ऊपरवाली सरकार की नजरों से कोई बच नहीं सकता !
पाकिस्तान
के सख्खर में
साधुबेला
आश्रम था। रमेशचन्द्र
नाम के आदमी
को उस समय के
संत महात्मा
ने अपनी जीवन
कथा सुनाई थी
और कहा था कि
मेरी यह कथा
सब लोगों को
सुनाना। मैं
कैसे साधु-संत
बना यह समाज
में जाहिर
करना। वह
रमेशचन्द्र
बाद में
पाकिस्तान
छोड़कर मुंबई
में आ गया था।
उस संत ने
अपनी कहानी
उसे बताते हुए
कहा थाः
"मैं
जब गृहस्थ था
तब मेरे दिन
कठिनाई से बीत
रहे थे। मेरे
पास पैसे नहीं
थे। एक मित्र
ने अपनी पूँजी
लगाकर रूई का
धन्धा किया और
मुझे अपना
हिस्सेदार
बनाया। रूई
खरीदकर
संग्रह करते
और मुंबई में
बेच देते।
धन्धे में
अच्छा मुनाफा
होने लगा।
एक
बार हम दोनों
मित्रों को
वहाँ के
व्यापारी ने
मुनाफे के एक
लाख रूपये
लेने के लिए
बुलाया। हम
रूपये लेकर
वापस लौटे। एक
सराय में
रात्रि
गुजारने
रूके। आज से
साठ-सत्तर वर्ष
पहले की बात
है। उस समय क
एक लाख जिस
समय सोना
साठ-सत्तर
रूपये तोला
था। मैंने
सोचाः एक लाख
में से पचास
हजार मेरा
मित्र ले जाएगा।
हालाँकि
धन्धे में
सारी पूँजी
उसी ने लगाई
थी फिर भी
मुझे मित्र के
नाते आधा
हिस्सा दे रहा
था। फिर भी
मेरी नीयत
बिगड़ी।
मैंने उसे दूध
में जहर पिला
दिया। लाश को
ठिकाने लगाकर
अपने गाँव चला
गया। मित्र के
कुटुम्बी
मेरे पास आये
तब मैंने नाटक
किया, आँसू
बहाय और उनको
दस हजार रूपये
देते हुए कहा
कि मेरा प्यारा
मित्र रास्ते
में बीमार हो
गया, एकाएक पेट
दुखने लगा,
काफी इलाज
किये लेकिन...
हम सबको छोड़कर
विदा हो गये।
दस
हजार रूपये
देखकर उन्हें
लगा कि, 'यह
बड़ा ईमानदार
है। बीस हजार
मुनाफा हुआ
होगा उसमें से
दस हजार दे
रहा है।' उन्हें
मेरी बात पर
यकीन आ गया।
बाद
में तो मेरे
घर में
धन-वैभव हो
गया। नब्बे हजार
मेरे हिस्से
में आ गये थे।
मैं जलसा करने
लगा। मेरे घर
पुत्र का जन्म
हुआ। मेरे
आनन्द का
ठिकाना न रहा।
बेटा कुछ बड़ा
हुआ कि वह
किसी अगम्य
रोग से ग्रस्त
हो गया। रोग
ऐसा था कि
भारत के किसी
डॉक्टर का बस
न चला उसे स्वस्थ
करने में। मैं
अपने लाडले को
स्वीटजरलैंड
ले गया। काफी
इलाज करवाये,
पानी की तरह
पैसे खर्च
किये,
बड़े-बड़े
डॉक्टरों को
दिखाया लेकिन
कोई लाभ नहीं
हुआ। मेरा
करीब करीब सब
धन नष्ट हो
गया। दूसरा धन
कमाया वह भी
खर्च हो गया।
आखिर निराश
होकर बच्चे को
भारत में वापस
ले आया। मेरा
इकलौता बेटा ! अब कोई
उपाय नहीं बचा
था। डॉक्टर,
वैद्य, हकीमों
के इलाज चालू
रखे। रात्रि
को मुझे नींद
नहीं आती और
बेटा दर्द से
चिल्लाता
रहता।
"बेटा
! तू
क्यों दिनो
दिन क्षीण
होता चला जा
रहा है ? अब
तेरे लिए मैं
क्या करूँ ? मेरे
लाडले लाल ! तेरा यह
बाप आँसू
बहाता है। अब
तो अच्छा हो
जा, पुत्र !
बेटा
गंभीर बीमारी
में मूर्छित
सा पड़ा था। मैंने
नाभि से आवाज
उठाकर बेटे को
पुकारा था तो
बेटा हँसने
लगा। मुझे
आश्चर्य हुआ।
अभी तो बेहोश
था फिर कैसे
हँसी आई ? मैंने
बेटे से पूछाः
"बेटा
! एकाएक
कैसे हंस रहा
है ?"
"जाने
दो....।"
"नहीं
नहीं.... बता
क्यों हँस रहा
है ?"
आग्रह
करने पर आखिर
बेटा कहने
लगाः
"अभी
लेना बाकी है,
अभी बीमारी
चालू रहेगी,
इसलिए मैं हँस
रहा हूँ। मैं
तुम्हारा वही
मित्र हूँ
जिसे तुमने
जहर दिया था।
मुंबई की धर्मशाला
में मुझे खत्म
कर दिया था और
मेरा सारा धन
हड़प लिया था।
मेरा वह धन और
उसका सूद मैं
वसूल करने आया
हूँ। काफी कुछ
हिसाब पूरा हो
गया है। अब
केवल पाँच सौ
रूपये बाकी
हैं। अब मैं
आपको छुट्टी
देता हूँ। आप
भी मुझे इजाजत
दो। ये बाकी
के पाँच सौ
रूपये मेरी
उत्तर क्रिया
में खर्च
डालना, हिसाब
पूरा हो
जाएगा। मैं
जाता हूँ... राम
राम...." और
मेरे बेटे ने
आँख मूँद ली,
उसी क्षण वह
चल बसा।
मेरे
दोनों गालों
पर थप्पड़ पड़
चुकी थी। सारा
धन नष्ट हो
गया और बेटा
भी चला गया। मुझे
किये हुए पाप
की याद आयी तो
कलेजा छटपटाने
लगा। जब कोई
हमारे कर्म
नहीं देखता है
तब देखने वाला
मौजूद है।
यहाँ की सरकार
अपराधी को शायद
नहीं पकड़ेगी
तो भी ऊपरवाली
सरकार तो है ही।
उसकी नजरों से
कोई बच नहीं
सकता।
मैंने
बेटे की उत्तर
क्रिया
करवाई। अपनी
बची-खुची
संपत्ति
अच्छी-अच्छी
जगहों में लगा
दी और मैं
साधु बन गया
हूँ। आप कृपा
करके मेरी यह
बात लोगों को
कहना। मैंने
भूल की ऐसी
भूल वे न करें,
क्योंकि यह
पृथ्वी
कर्मभूमि है।"
कर्मप्रधान
विश्व करी
राखा।
जो
उस करे तैसा
फल चाखा।।
कर्म
का सिद्धान्त
अकाट्य है।
जैसे काँटे से
काँटा निकलता
है ऐसे ही
अच्छे कमों से
बुरे कर्मों
का
प्रायश्चित
होता है। सबसे
अच्छा कर्म है
जीवनदाता
परब्रह्म
परमात्मा को
सर्वथा समर्पित
हो जाना।
पूर्व काल में
कैसे भी बुरे
कर्म हो गये
हों उन कर्मों
का
प्रायश्चित
करके फिर से
ऐसी गलती न हो
जाए ऐसा दृढ़
संकल्प करना
चाहिए। जिसके
प्रति बुरे
कर्म हो गये
हों उनसे
क्षमायाचना
करके, अपना
अन्तःकरण
उज्जवल करके
मौत से पहले
जीवनदाता से
मुलाकात कर
लेनी चाहिए।
भगवान
श्रीकृष्ण
कहते हैं-
अपि
चेत्सुदराचारो
भजते
मामनन्यभाक्।
साधुरेव
स मन्तव्यः
सम्यग्व्यवसितो
हि सः।।
'यदि
कोई अतिशय
दुराचारी भी
अनन्य भाव से
मेरा भक्त
होकर मुझको
भजता है तो वह
साधु ही मानने
योग्य है,
क्योंकि वह
यथार्थ
निश्चयवाला
है। अर्थात्
उसने
भलीभाँति
निश्चय कर
लिया है कि परमेश्वर
के भजन के
समान अन्य कुछ
भी नहीं है।'
(भगवद्
गीताः 9.30)
तथा-
अपि
चेदासि
पापेभ्यः
सर्वेभ्यः
पापकृत्तमः।
सर्वं
ज्ञानप्लवेनैव
वृजिनं
संतरिष्यसि।।
'यदि
तू अन्य सर्व
पापियों से भी
अधिक पाप करने
वाला है तो भी
तू ज्ञान रूप
नौका द्वारा
निःसन्देह
सम्पूर्ण
पाप-समुद्र से
भली-भाँति तर
जाएगा।'
(भगवद्
गीताः 4.36)
लेबल: nischint jivan, sant Asaramji bapu
1 टिप्पणियाँ:
sahi baat hai, oopar wale se koi nahi bach sakta...
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