रविवार, दिसंबर 04, 2022

'तुलसी दल के सिवा मेरा कोई दल नहीं'


        एक बार माघ मेले के अवसर पर मदनमोहन मालवीयजी 'सनातन धर्म महासभा' के सम्मेलन में भाषण दे रहे थे । विरोधी दल के कुछ लोग वहाँ आये और सम्मेलन भंग करने के उद्देश्य से शोरगुल मचाने लगे। तब उनके एक प्रवक्ता को मालवीयजी ने बोलने के लिए आमंत्रित किया । उस प्रवक्ता ने मालवीयजी पर दलबंदी करने का आरोप लगाया। उसके उत्तर में मालवीयजी ने कहा: "मैंने अपने समस्त जीवन में दल तो केवल एक ही जाना है । वह दल ही मेरा जीवन-प्राण है और जीवन रहते उस दल को मैं कभी छोड़ भी नहीं सकता। उस दल के अतिरिक्त किसी दूसरे दल से मुझे कोई मतलब नहीं ।"

       यह कहकर उन्होंने अपनी जेब से एक छोटा-सा दल निकाला और उसे जनता को दिखलाते हुए कहा : "और वह दल है यह तुलसी दल!" हर्षध्वनि और 'मालवीयजी की जय !' के नारों से सारा पंडाल गूंज उठा तथा प्रतिपक्षी अपना सा मुँह लेकर वापस लौट गये । इतने उदार, सत्यनिष्ठ सज्जन को भी प्रतिपक्षी-द्वेषी लोगों ने बदनाम करने में कमी नहीं रखी । इस लौहपुरुष से द्वेष करनेवाले तो पचते रहे परंतु वे सत्संग और स्नेह रस से सराबोर रहे।

 ऋषि प्रसाद अगस्त 2006

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अमृतबिंदु – पूज्य बापूजी


         जो वर्तमान में ही इच्छाओं-वासनाओं को छोड़ देते हैं, उनके हृदय में उसी समय परमात्म-प्रेम, परमात्म-रस छलकने लगता है ।
ऋषि प्रसाद नवंबर 2018

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शाकों में श्रेष्ठ बथुआ


शाकों में श्रेष्ठ बथुआ

        शाकों में बथुआ श्रेष्ठ है । इसमें पौष्टिक तत्त्वों के साथ विविध औषधीय गुणधर्म भी पाये जाते है। यह उत्तम पथ्यकर है ।

           आयुर्वेद के अनुसार बथुआ त्रिदोषशामक, रुचिकारक, स्वादिष्ट एवं भूखवर्धक तथा पचने में हलका होता है । यह भोजन पचाने में सहायक, बल-वीर्यवर्धक, पेट साफ लानेवाला एवं पित्तजन्य विकारों को नष्ट करनेवाला है ।

आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार बथुए में विटामिन 'ए', 'बी' 'सी', 'के' व कैल्शियम, मैग्नेशियम, पोटैशियम, फॉस्फोरस, सोडियम, लौह, मँगनीज आदि खनिज तत्त्व प्रचुरता से पाये जाते हैं ।

     बथुए के नियमित सेवन से रक्त मांसादि शरीर की समस्त धातुओं का पोषण होता है तथा नेत्रज्योति बढ़ती है । खून की कमी (anaemia), कृमि, रक्तपित्त, बवासीर, उच्च रक्तचाप (hypertension), यकृत (liver) के विकारों में इसका सेवन लाभदायी है । पित्त प्रकृतिवालों के लिए यह विशेषरूप से लाभदायी है । पित्त के कारण उत्पन्न हुए सिरदर्द, अम्लपित्त (hyperacidity), चर्मरोग, सर्वशरीरगत जलन आदि में यह लाभदायी है । पेटदर्द तथा कब्ज के कारण उत्पन्न वायु-विकार (गैस) में इसका सेवन हितकारी है । पीलिया में बथुए का साग उत्तम पथ्यकर है ।

तिल्ली (spleen) के विकार दूर करने में बथुआ अद्वितीय है । यह आमाशय को ताकत देता है । कब्ज की तकलीफ होने पर नित्य कुछ दिनों तक इसका साग खाना चाहिए ।

         मंदाग्नि, कब्ज, आँतों की कमजोरी, अफरा आदि पेट की समस्याओं में लहसुन का छौंक लगाकर बथुए का रसदार साग खाने से अथवा काली मिर्च, जीरा व सेंधा नमक मिलाकर इसका सूप पीने से पेट साफ होता है, भूख खुल के लगती है, आँतों को शक्ति मिलती है ।

        बथुए का साग कम-से- कम मसाला व बिना नमक मिलाये ही खाया तो ज्यादा फायदा करता है । आवश्यक हो तो थोड़ा सेंधा नमक मिला सकते हैं ।

बथुए के औषधीय प्रयोग
 
(1) याददाश्त की कमी : बथुए के चौथाई कटोरी रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर रात को सोने से पूर्व पियें । 15 दिन तक नियमित प्रयोग करने से लाभ होता है ।

(2) बवासीर: इसमें बथुए का साग व छाछ का सेवन लाभदायी है ।

सावधानी: बथुए में क्षारों की मात्रा अधिक होने के कारण पथरी के रोग में इसका सेवन नहीं करना चाहिए ।

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शनिवार, दिसंबर 03, 2022

जीव-सेवा ही शिव-सेवा - पूज्य बापूजी

जीव-सेवा ही शिव-सेवा

      स्वामी श्रीकृष्णबोधाश्रमजी महाराज एक बड़े ही उच्चकोटि के वीतराग ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष थे । एक बार वे कुछ ब्रह्मचारियों को लेकर कुरुक्षेत्र गये । दैवयोग से उन दिनों कुरुक्षेत्र और आसपास के क्षेत्रों में वर्षा न होने के कारण सूखा पड़ गया था। जलाभाव के कारण चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था । पशु-पक्षी भी पानी न मिलने के कारण प्यास से मरने लगे थे । सर्वत्र चिंता व्याप्त थी। स्वामीजी एक देवमंदिर में ठहरे हुए थे । वहाँ उन्होंने एक अत्यंत करुणाजनक दृश्य देखा । मंदिर के पास एक बहुत बड़ा तालाब था । उस तालाब के एक छोटे-से गड्ढे में बहुत थोड़ा पानी रह गया था । पानी न होने के कारण तालाब की हजारों मछलियाँ मर चुकी थीं तथा शेष बची हजारों मछलियाँ उस गड्ढे के थोड़े-से पानी में एक जगह एकत्रित हो गयी थीं और पानी के अभाव में छटपटा रही थीं। ऊपर से बड़ी तेज गर्मी पड़ रही थी । गड्ढे का पानी भी एक-दो दिन में सूखनेवाला था । ऐसा होने पर बाकी बची वे हजारों मछलियाँ भी तड़प-तड़पकर मर जाती । स्वामीजी से यह करुणाजनक दृश्य नहीं देखा गया । वे व्याकुल हो उठे और किस प्रकार इन मछलियों के प्राण बचाये जायें, इस पर विचार करने लगे ।

       स्वामीजी के आने का शुभ समाचार सुनकर अनेक लोग उनके दर्शन के लिए आये और सबने करबद्ध होकर एक ही प्रार्थना की कि "महाराज ! बहुत दिनों से वर्षा न होने के कारण को बड़ा नुकसान पहुँच रहा है । तालाब और कुएँ आदि का जल भी सूख गया है । अब तो पशु-पक्षी सभी पानी के बिना मरने लगे हैं । आप ऐसा उपाय बताने की कृपा करें कि वर्षा हो जाय और सबको सुख-शांति प्राप्त हो ।"

      स्वामीजी बोले "भाई भगवान की कृपा चाहते हो तो उन्हें प्रसन्न करो । वे ही तुम्हारे ऊपर कृपा कर वर्षो करके तुम्हारा दुःख दूर करेंगे ।" "महाराजजी ! क्या किया जाय, जिससे भगवान प्रसन्न होकर हम पर कृपा करें ? आप इसका कोई उपाय बतायें ।

      "भगवान को प्रसन्न करने का तात्कालिक उपाय यही है कि तुम यहाँ के जीवों पर कृपा करो, तभी भगवान तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हारे ऊपर कृपा करेंगे ।"

      "महाराज ! हममें इतना सामर्थ्य कहाँ है कि यहाँ के जीवों पर कृपा करें । हम तो सर्वथा असमर्थ हैं ।"

     "हम तुम्हें भगवान को प्रसन्न कर उनकी कृपा प्राप्त करने का ऐसा ही साधन बतायेंगे, जो तुम कर सकोगे ।"
      "महाराज ! आप आज्ञा दीजिये, हम उसका अवश्य पालन करेंगे ।"

       स्वामीजी ने सामने के उस सूखे तालाब की ओर संकेत करके कहा: "देखो, उस तालाब का सारा पानी सूख गया है, जिसके कारण हजारों मछलियाँ मर चुकी हैं और बाकी जीवित बची मछलियाँ उस छोटे-से गड्ढे के जल में एक जगह इकट्ठी होकर पानी के बिना छटपटा रही हैं । यदि इन्हें जल देकर इनकी रक्षा नहीं की गयी तो एक-दो दिन में ही ये भी जल के बिना तड़प- तड़पकर प्राण दे देंगी ।"

       आतुरता एवं उत्सुकतावश गाँववालों ने एक स्वर में कहा : "महाराजजी ! हम क्या करें ?"

     "तुम इनके ऊपर कृपा करो तो भगवान स्वयं तुम्हारे ऊपर कृपा करेंगे । इन मछलियों के लिए जल लाकर इस तालाब में डालो।" 

       "महाराजजी ! जल तो है ही नहीं, फिर लायें कहाँ से ?"

      गाँववालों की यह बात सुनकर स्वामीजी स्वयं उठे और पास के कुएं पर पड़ी बाल्टी को लटकाकर जल खींचने को उद्यत हो गये । यह देख सभी गाँववाले स्तब्ध रह गये । फिर क्या था, तत्काल गाँववालों ने कुएं में से जल निकाल-निकालकर उस तालाब में डालना शुरू किया । अब तो जिसे देखो वह पानी लिये दौड़ रहा था । कोई बाल्टी में, कोई घड़े में तो कोई कनस्तर में जल ले जाकर तालाब में छोड़ने लगा । अब तालाब में जल-ही- जल दिख रहा था । मछलियों का छटपटाना बंद हो गया था, उनके प्राणों की रक्षा जो हो गयी थी।

     मछलियों के प्राण-रक्षारूपी इस यज्ञ से भगवान गाँववालों पर अत्यंत प्रसन्न हुए और तत्काल एक अद्भुत चमत्कार हुआ । कई दिनों से जो आकाश बिल्कुल साफ था और बादल नाम को भी नहीं थे, वह आकाश सबके देखते-देखते एकदम बादलों से भर उठा । मेघों का गरजना और विद्युत का चमकना शुरू हो गया तथा मूसलधार वर्षा होने लगी । देखते-ही-देखते चारों ओर जल- ही जल भर गया । चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी । उस क्षेत्र के सूखा पीड़ित लोगों की खुशी का कोई ठिकाना न रहा । सभी गाँववाले स्वामीजी के चरणों में गिर पड़े और कहने लगे :

       "महाराजजी ! आपका यह कहना कि 'तुम यहाँ के जीवों पर कृपा करो तो तुम्हारे ऊपर भगवान कृपा करेंगे ।' यह बात अक्षरशः सत्य निकली । आज हम लोगों ने यह प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि 'जीव प्रसन्नता ही भगवत्प्रसन्नता है, जीव-सेवा ही शिव-सेवा है। अतः प्राणिमात्र को भगवान ही मानकर उनकी सेवा करनी चाहिए ।"

ऋषि प्रसाद नवंबर 2010

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संकल्पशक्ति का विकास कैसे करें ? -पूज्य बापूजी

साधना आलोक

संकल्पशक्ति का विकास कैसे करें ?

        सभी परिस्थितियों का सदुपयोग करें। प्रत्येक स्थान व अवस्था मे अपनेको प्रसन्न रखने का स्वभाव बनायें। इससे आपके व्यक्तित्व में बल और तेज उतरेगा ।

         संकल्प का शुद्ध और अप्रतिहत (अखंडित) अभ्यास किया जाय तो अद्भुत कार्य भी सिद्ध किये जा सकते हैं । बलवती इच्छावाले व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी असंभव नहीं है । वासना से संकल्प अशुद्ध और निर्बल हो जाता है । इच्छाओं को वश में करने से संकल्पशक्ति बढ़ती है । इच्छाएँ जितनी कम हो संकल्प उतना ही बलवान होता है । मनुष्य के भीतर कई प्रकार की मानसिक शक्तियाँ हैं, जैसे- धारणाशक्ति, विवेकशक्ति, अनुमानशक्ति, मनःशक्ति, स्मृतिशक्ति, प्रज्ञाशक्ति आदि । ये सभी संकल्पशक्ति के विकसित होने पर पलक मारते ही काम करने लग जाती हैं ।

         ध्यान का नियमित अभ्यास, सहिष्णुता, विपत्तियों में धैर्य, तपस्या, प्रकृति-विजय, तितिक्षा, दृढ़ता तथा सत्याग्रह और घृणा, अप्रसन्नता व चिड़चिड़ाहट का दमन - ये सब संकल्प के विकास को सुगम बनाते हैं । धैर्यपूर्वक सबकी बातें सुननी चाहिए । इससे संकल्प का विकास होता है तथा दूसरों के हृदय को जीता जा सकता है ।

       विषम परिस्थतियों की शिकायत कभी न करें । जहाँ कहीं आप रहें और जहाँ कहीं आप जायें, अपने लिए अनुकूल मानसिक जगत का निर्माण करें । सुख और सुविधाओं के उपलब्ध होने से आप मजबूत नहीं बन सकते । विषम और अनुपयुक्त वातावरण से भागने का प्रयत्न न करें। भगवान ने आपकी त्वरित उन्नति के लिए ही आपको वहाँ रखा है । अतः सभी परिस्थितियों का सदुपयोग करें । किसी भी वस्तु से अपने मन को उद्विग्न न होने दें । इससे आपकी संकल्पशक्ति का विकास होगा । प्रत्येक स्थान व अवस्था में अपनेको प्रसन्न रखने का स्वभाव बनायें । इससे आपके व्यक्तित्व में बल और तेज उतरेगा ।

       मन की एकाग्रता का अभ्यास संकल्प की उन्नति में सहायक है । मन का क्या स्वभाव है इसका अच्छी तरह से ज्ञान प्राप्त कर लें । मन किस तरह इधर-उधर घूमता है और किस प्रकार अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है - यह सब भली-भाँति हृदयंगम कर लें । मन के चलायमान स्वभाव को वश में करने के लिए आसान और प्रभावकारी तरीके खोज लें । व्यर्थ की बातचीत सदा के लिए त्याग दें। सभीको समय के मूल्य का ज्ञान होना चाहिए। संकल्प में तेज तभी निखरेगा, जब समय का उचित उपयोग किया जाय । व्यवहार और दृढता, लगन व ध्यान, धैर्य तथा अप्रतिहत प्रयत्न, विश्वास और स्वावलम्बन आपको अपने सभी प्रयासों में सफलता प्राप्त करायेंगे ।

        आपको अपने संकल्पों का व्यवहार योग्यतानुसार करना चाहिए, अन्यथा संकल्प क्षीण हो जायेगा, आप हतोत्साहित हो जायेंगे । अपना दैनिक नियम अथवा कार्य-व्यवस्था अपनी योग्यता के अनुसार बना लें और उसका सम्पादन नित्य सावधानी से करें । अपने कार्यक्रम में पहले-पहल कुछ ही विषयों को सम्मिलित करें। यदि आप अपने कार्यक्रम को अनेकों विषयों से भर देंगे तो न उसे निभा सकेंगे और न लगन के साथ दिलचस्पी ही ले सकेंगे । आपका उत्साह क्षीण होता जायेगा । शक्ति तितर-बितर हो जायेगी । अतः आपने जो कुछ करने का निश्चय किया है, उसका अक्षरशः पालन प्रतिदिन करें।

        विचारों की अधिकता संकल्पित कार्यों में बाधा पहुँचाती है इससे भ्रान्ति, संशय और दीर्घसूत्रता का उदय होता है । संकल्प की तेजस्विता में ढीलापन आ जाता है । अतः यह आवश्यक है कि कुछ समय के लिए विचार करें फिर निर्णय करें । इसमें अनावश्यक विलम्ब न करें। कभी-कभी सोचते तो हैं पर कर नहीं पाते । उचित विचार और अनुभवों के अभाव में ही यह हुआ करता है । अतः उचित रीति से सोचना चाहिए और उचित निर्णय ही करना चाहिए, तब संकल्प की सफलता अनिवार्य है । किंतु केवल संकल्प ही किसी वस्तु की प्राप्ति में सफल नहीं होता । संकल्प के साथ निश्चित उद्देश्य को भी जोड़ना होगा । इच्छा या कामना तो मानस सरोवर में एक छोटी लहर सी है परंतु संकल्प वह शक्ति है जो इच्छा को कार्यरूप में परिणत कर देती है । संकल्प निश्चय करने की शक्ति है।

     जो मनुष्य संकल्प-विकास की चेष्टा कर रहा है, उसे सदा मस्तिष्क को शांत रखना चाहिए । सभी परिस्थितियों में अपने मन का संतुलन कायम रखना चाहिए । मन को शिक्षित तथा अनुशासित बनाना चाहिए। जो व्यक्ति मन को सदा संतुलित रखता है तथा जिसका संकल्प तेजस्वी है, वह सभी कार्यों में आशातीत सफलता प्राप्त करेगा ।

      अनुद्विग्न मन, समभाव, प्रसन्नता, आन्तरिक बल, कार्य सम्पादन की क्षमता, प्रभावक व्यक्तित्व, सभी उद्योगों में सफलता, ओजपूर्ण मुखमंडल, निर्भयता आदि लक्षणों से पता चलता है कि संकल्पोन्नति हो रही है।
ऋषि प्रसाद अगस्त 2006

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