मंगलवार, दिसंबर 07, 2010

आत्म-साक्षात्कार जब तक नहीं होता तब तक धोखा ही धोखा है

ब्रह्मज्ञान सुनने से जो पुण्य होता है वह चान्द्रायण व्रत करने से नहीं होता ब्रह्मज्ञानी के दर्शन करने से जो शांति और आनंद मिलता है, पुण्य होता है वह गंगा स्नान से, तीर्थ, व्रत, उपवास से नहीं होता । इसलिए जब तक ब्रह्मज्ञानी महापुरुष नहीं मिलते तब तक तीर्थ करो, व्रत करो, उपवास करो, परंतु जब ब्रह्मज्ञानी महापुरुष मिल गये तो व्यवहार में से और तीर्थ-व्रतों में से भी समय निकाल कर उन महापुरुषों के दैवी कार्य में लग जाओ क्योंकि वह हजार गुना ज़्यादा फलदायी होता है
कबीरजी ने कहा हैः
तीर्थ नहाये एक फल संत मिले फल चार
तीर्थ नहायेंगे तो धर्म होगा । एक पुरुषार्थ सिद्ध होगा । संत के सान्निध्य से, सत्संग से साधक धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों के द्वार पर पहुँच जायेगा सत्गुरु मिलेंगे तो वे द्वार खुल जायेंगे, उनमें प्रवेश हो जायेगा
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शनिवार, दिसंबर 04, 2010

कलियुग में परमात्मा प्राप्ति शीघ्र कैसे ?



कहते हैं कि सतयुग में वर्षों के पुण्यों से परमात्म प्राप्ति होती थी। द्वापर में यज्ञ से होती थी, ध्यान से होती थी। कलियुग के लिए कहा गया हैः
दानं केवलं कलियुगे।
अथवा
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा।।
परंतु शास्त्र का कोई एक हिस्सा लेकर निर्णय नहीं लेना चाहिए। शास्त्र के तत्मत से वाकिफ होना चाहिए। यह भी शास्त्र ही कहता है कि
राम भगत जग चारि प्रकारा।
सुकृति चारिउ अनघ उदारा।।
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा।
गयानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।
(श्री राम चरित. बा. कां. 21.3 व 4)
राम के, परमात्मा के भक्त चार प्रकार के हैं। चारों भगवन्नाम का आधार लेते हैं, श्रेष्ठ हैं परंतु ज्ञानी तो प्रभु को विशेष प्यारा है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
'इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है।'
(गीताः 4.38)
दूसरे युगों में जप से, यज्ञ से परमात्म प्राप्ति होती थी तो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तत्त्वज्ञान का उपदेश क्यों दिया ? उद्धव को तत्त्वज्ञान क्यों दिया ?
जनसाधारण के लिए जप अपनी जगह पर ठीक है, हवन अपनी जगह पर ठीक है किंतु जिनके पास समझ है, बुद्धि है, वे अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार साधन करके पार हो जाते हैं। जनक अष्टावक्र से तत्त्वज्ञान सुनकर पार हो गये।
वह भी जमाना था कि लोग 12-12 वर्ष, 25-25 वर्ष जप तप करते थे, तब कहीं उनको सिद्धी मिलती थी पर कलियुग में सिद्धि जल्दी हो जाती है।
एक आदमी को पेट में कुछ दर्द हुआ। वह बड़ा सेठ था। वह वैद्य के पास दवा लेने गया। वैद्य ने देखा कि यह अमीर आदमी है, इसको सस्ती दवा काम में नहीं आयेगी।
वैद्य ने कहाः "ठहरो जरा ! दवा घोंटनी है, सुवर्णभस्म डालना है, बंगभस्म डालना है, थोड़ा समय लगेगा। बढ़िया दवा बना देता हूँ।"
काफी समय उसको रोका, बाद में दवा दी। उसने खायी और वह ठीक हो गया।
वैद्य ने पूछाः "अब कैसा है ?"
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गुरुवार, दिसंबर 02, 2010

आयुष्यरूपी खेत के नष्ट-भ्रष्ट होने के बाद क्या होगा ?


अशनं मे वसनं मे जाया मे बन्धुवर्गो मे।
इति मे मे कुर्वाणं कालवृको हन्ति पुरुषाजम्।।
'यह मेरा भोजन, यह मेरा वस्त्र, यह मेरी पत्नी, ये मेरे बांधवगण-ऐसे मेरा-मेरा करने वाले पुरुषरूपी बकरे को कालरूपी भेड़िया मार डालता है।'
अतः गहन निद्रा से जागो। सावधान हो जाओ। मोह-ममता के बुने हुए जाल को विवेक की कैंची से काट डालो। इतने सत्संग का श्रवण, ध्यान आदि करते हो तो अब मोह ममता से ऊपर उठकर आत्मपद में पहुँच जाओ। देर क्यों करते हो ? संसार सागर में अब तक खाये गये गोते क्या काफी नहीं हैं ? देहभाव से परे होने की तलब क्यों नहीं जगती ? निश्चित जानना कि आगे की राह बड़ी मुश्किल है। समय एवं शक्ति गँवाने के बाद चाहे कितना भी रोओगे, पछताओगे, सिर कूटोगे, फिर भी कुछ न होगा। अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत। आयुष्यरूपी खेत के नष्ट-भ्रष्ट होने के बाद क्या होगा ? अतः अभी से सावधान ! आत्मवेत्ता सत्पुरुष के वचनों का मर्म हृदय में उतारकर आत्मपद की प्राप्ति कर लो। सदा के लिए सुखी हो जाओ। जीवभाव से पृथक होकर शिवत्व में विश्रांति पा लो।

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