मंगलवार, दिसंबर 07, 2010

आत्म-साक्षात्कार जब तक नहीं होता तब तक धोखा ही धोखा है

ब्रह्मज्ञान सुनने से जो पुण्य होता है वह चान्द्रायण व्रत करने से नहीं होता ब्रह्मज्ञानी के दर्शन करने से जो शांति और आनंद मिलता है, पुण्य होता है वह गंगा स्नान से, तीर्थ, व्रत, उपवास से नहीं होता । इसलिए जब तक ब्रह्मज्ञानी महापुरुष नहीं मिलते तब तक तीर्थ करो, व्रत करो, उपवास करो, परंतु जब ब्रह्मज्ञानी महापुरुष मिल गये तो व्यवहार में से और तीर्थ-व्रतों में से भी समय निकाल कर उन महापुरुषों के दैवी कार्य में लग जाओ क्योंकि वह हजार गुना ज़्यादा फलदायी होता है
कबीरजी ने कहा हैः
तीर्थ नहाये एक फल संत मिले फल चार
तीर्थ नहायेंगे तो धर्म होगा । एक पुरुषार्थ सिद्ध होगा । संत के सान्निध्य से, सत्संग से साधक धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों के द्वार पर पहुँच जायेगा सत्गुरु मिलेंगे तो वे द्वार खुल जायेंगे, उनमें प्रवेश हो जायेगा
सत्गुरु मिले अनंत फल कहे कबीर विचार
'न अंतः इति अनंतः ' जिस फल का अंत न हो ऐसा अनंत फल, ब्रह्मरस जगाने वाला फल मिल जायेगा । वही ब्रह्मज्ञानी जब हमारे सदगुरु होते हैं तो उनके साथ अपना तादात्मय हो जाता है । उनसे संबंध जुड़ जाता है । मंत्र के द्वारा, दृष्टि के द्वारा अपने अंतःकरण में उनकी आँशिक किरण आ जाती है । फिर वह शिष्य चाहे कहीं भी रहे, मगर जब सदगुरु का स्मरण करेगा तब उसका हृदय थोड़ा गदगद हो जायेगा । जो सदगुरु से जुड़ गया है उसे अनंत फल मिलता है
वे सदगुरु कैसे होते हैं?
सतगुरु मेरा सूरमा करे शब्द की चोट
उपदेशरूपी ऐसी चोट भीतर करेंगे कि हमारे अज्ञान के संस्कार हटते जायेंगे, ज्ञान बढ़ता जाएगा
मारे गोला प्रेम का हरे भरम की कोट
चोट तो करते हैं मगर भीतर से उनके हृदय में हमारे लिए प्रेम, स्नेह होता है और वे हमारा कल्याण चाहते हैं । हमें भरम है कि "मैं अमुक का लड़का हूँ, अमुक का पति हूँ ' यह सब भरम है । यह तुम्हारा शरीर तुम नहीं हो, तुम तो अजर अमर आत्मा हो, ऐसा ज्ञान देकर गुरु उसमें स्थिति करवाते हैं
कबीरा वे नर अंध हैं
हरि को कहते और, गुरु को कहते और
वे हृदय के अंधे हैं जो भगवान को और गुरु को अलग मानते हैं
हरि रूठे ठौर है गुरु रूठे नहीं ठौर ।।
भगवान रूठ जायें तो गुरु संभाल लेंगे, भगवान को राजी होना पड़ेगा । मगर गुरु रूठ गये तो भगवान कहेंगेः "यह केस हम नहीं ले सकते क्योंकि हम जब अवतार धारण करते हैं तब भी गुरु की शरण जाते हैं तूने गुरु का अनादर किया और मेरे पास आया, मेरे पास तेरी जगह नहीं है "
सदगुरु जिसको मिल जाते हैं और जो उन गुरु को पहचान कर उनके वचन को पकड़ लेता है उसके तो हजारों जन्मों के कर्म एक ही जन्म में पूरे हो जाते हैं । शिष्य ईमानदारी से चलता है तो जितना चल पाये उतना चलता रहे । ऐसा नहीं कि बैठा रहे, चले ही नहीं और मानता रहे कि गुरु उठा लेंगे । नहीं ! खुद चलो । गुरु देखेंगे कि इससे जितना ईमानदारी से चला गया उतना चला है, तो बाकी का गुरु अपना धक्का लगाकर उसे पहुँचा देते हैं
आप तत्पर होकर चलो, वे धक्का लगायेंगे । आप पालथी मारकर बैठोगे तो कुछ नहीं होगा । बेटा चलना सीखना चाहे तो बाप ऊँगली देगा किन्तु पैर तो बेटे को ही चलाने पड़ेंगे । गुरु बताते हैं उस ढंग से शिष्य चलता है तो फिर बाकी का काम गुरु संभाल लेते हैं
गुरु शिष्य के बीच की बात.......................................................................................
भगवान को भी नहीं बतायी जाती । गुरु शिष्य का संबंध बड़ा सूक्ष्म होता है
तुलसीदास जी ने कहा हैः
गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई
चाहे बिरंचि शंकर सम होई ।।
शिवजी जैसा प्रलय करने का सामर्थ्य हो और ब्रह्माजी जैसा सृष्टि बनाने का सामर्थ्य हो मगर ब्रह्मज्ञानी गुरु की कृपा के बिना आदमी संसार सागर से नहीं तर सकता । संसार में कुछ भी मिल गया तो आखिर क्या? आँख बन्द होते ही सब गायब । बढ़िया से बढ़िया पति मिल गया तो क्या? सुख ही तो तुमसे लेगा । बूढ़ी होओगी तब देखेगा भी नहीं । सुन्दर पत्नी मिल गयी तो तुम से सुख चाहेगी । तुम बूढ़े हो गये तो थूक देगी । बेटे मिल गये तो पैसे चाहेंगे तुमसे । बेटा तुम्हारा वारिस हो जाता है । पत्नी तुम्हारे शरीर से सुख की चाह करती है । पति तुम्हारे शरीर का मालिक होना चाहता है । परन्तु तुम्हारा कल्याण करने वाला कौन होता है? नेता तो तुम्हारे वोट का भागी बनना चाहता है । जनता तुमसे सहुलियतें माँगती है । यह सब एक-दूसरे से स्वार्थ से ही जुड़े हैं । भगवान और भगवान को प्राप्त महापुरुष ही तुम्हारा चित्त चाहेंगे । असली हित तो वे ही कर सकते हैं । दूसरे कर भी नहीं सकते । भोजन-छाजन, नौकरी-प्रमोशन की थोड़ी सहूलियत कर सकते हैं । शरीर का हित तो भगवान और सदगुरु ही कर सकते हैं । दूसरे के बस की बात नहीं । तुम्हारा सच्चा हित अगर कोई करता है तो वह गुरु ही है । माँ अगर आत्म-साक्षात्कार करा देती है तो माँ गुरु है । अगर माँ या बाप ब्रह्मज्ञानी हैं तो वे तुम्हे आत्म-साक्षात्कार करा सकते हैं
शरीर की शुद्धि तो आपको कोई भी दे देगा परन्तु आपकी शुद्धि का क्या?
एक कर्म होता है अपने लिए, दूसरा होता है शरीर के लिए । शरीर के लिए तो ज़िन्दगी भर करते हैं, अपने लिए कब करोगे? और शरीर तो यहीं धरा रह जायेगा यह बिल्कुल पक्की बात है । अपने लिए कुछ नहीं किया तो शरीर के लिए कर-कर के क्या निष्कर्ष निकाला? कार के लिए तो बहुत कुछ किया मगर इन्जिन के लिए नहीं किया तो कार कितने दिन चलेगी? शरीर के लिए सब किया मगर अपने लिये कुछ नहीं किया तो तुम तो आखिर अशुभ योनियों में घसीटे जाओगे । प्रेत योनि में, वृक्ष के शरीर में, कोई अप्सरा के शरीर में जाओगे, वहाँ देवता लोग तुम्हे नोचेंगे । कहीं भी जाओ, सब एक-दूसरे को नोचते ही हैं । स्वतन्त्र आत्म-साक्षात्कार जब तक नहीं होता तब तक धोखा ही धोखा है । अतः तुम्हारा कीमती जीवन, कीमती समय, कीमती से कीमती आत्मा-परमात्मा को जानने के लिए लगाओ और सदा के लिए सुखी हो जाओ.... तनाव रहित, भयरहित, शोक रहित, जन्म रहित, मृत्यु रहित अमर आत्मपद पाओ
उठ जाग मुसाफिर ! भोर भई
अब रैन कहाँ जो सोवत है ।।
जो सोवत है सो खोवत है
     जो जागत है सो पावत है ।।

लेबल:

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ