रविवार, नवंबर 06, 2011

हँसते-खेलते मुक्तिमार्ग की यात्रा


कामी का साध्य कामिनी होता है, मोही का साध्य परिवार होता है, लोभी का साध्य धन होता है लेकिन साधक का साध्य तो परमात्मा होते हैं। जीवभाव की जंजीरों में जकड़ा साधक जब संसार की असारता को कुछ-कुछ जानने लगता है तो उसके हृदय में विशुद्ध आत्मिक सुख की प्यास जगती है। उसे पाने के लिए वह भिन्न-भिन्न शास्त्रों व अनेक साधनाओं का सहारा लेता है परंतु जब उसे यह अनुभव होता है कि उसका भीतरी खालीपन किसी प्रकार दूर नहीं हो रहा है तो वह अपने बल का अभिमान छोड़कर सर्वव्यापक सत्ता परमात्मा को सहाय के लिए पुकारता है। तब उसके साध्य परमात्मा ब्रह्मज्ञानी सदगुरू के रूप में अवतरित होकर साकार रूप में अठखेलियाँ करते हैं।

इसी श्रृंखला में वर्तमान में ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु परम पूजनीय बापू जी साधक-भक्तों को दर्शन, सत्संग, ध्यान तथा कुंडलिनी योग व नादानुसंधान योग आदि यौगिक कुंजियाँ द्वारा हँसते, खेलते, खाते, पहनते सहज में ही मुक्तिमार्ग की यात्रा करा रहे हैं। 'गुरुग्रंथ साहिब' में आता हैः

नानक सतिगुरि भेटिऐ पूरी हौवै जुगति।
हसंदिआ खेलंदिआ पैनंदिआ खावंदिआ विचे हौवे मुकति।।

पूज्य श्री कहते हैं- "हे साधक ! ईश्वर न दूर है न दुर्लभ। आज दृढ़ संकल्प कर कि 'मैं परमात्मा का साक्षात्कार करके ही रहूँगा।' तू केवल एक कदम उठा, नौ सौ निन्यानवे कदम वह परमात्मा उठाने को तैयार है। कातरभाव से प्रार्थना करते-करते खो जा, जिसका है उसी का हो जा !"

जिज्ञासु अपनी जिज्ञासापूर्ति के लिए शास्त्र पढ़ते हैं लेकिन उनके गूढ़ रहस्य को न समझ पाने के कारण उनसे रसमय जीवन जीने की कला नहीं प्राप्त कर पाते। यह तो तभी सम्भव है जब शास्त्रों की उक्ति ( 'वासुदेवः सर्वम् आदि) की अंतर में अनुभूति किये हुए कोई 'सुदुर्लभ' सत्पुरुष सुलभ हो जायें।

आत्मरस का पान कराने वाले पूज्य श्री से जो सौभाग्यशाली भक्त मंत्रदीक्षा लेते हैं व ध्यानयोग शिविरों में आते हैं, उन्हें आपकी अहैतुकी की करुणा-कृपा से चित्शक्ति-उत्थान के दिव्य अनुभव होते हैं, जिससे चिंता-तनाव, हताशा-निराशा आदि पलायन कर जाते हैं और जीवन की उलझी गुत्थियाँ सुलझने लगती हैं। उनका काम राम में बदलने लगता है, ध्यान स्वाभाविक लगने लगता है और मन अंतरात्मा में आराम पाने लगता है। लोगों को बारह-बारह साल तपस्याएँ करने के बाद भी जो सच्चा सुख, भगवदीय शांति नहीं मिलती, वह बारह-दिनों में ही उन्हें महसूस होने लगती है। कृपासिन्धु बापू जी के चरणों में बैठकर सत्संग-श्रवण करने मात्र से साधना में उन्नत होने की कुंजियाँ मिल जाती हैं और शास्त्रों के रहस्य हृदय में प्रकट होने लगते हैं।

साधकों के लिए आपका संदेश हैः "अपने देवत्व में जागो। एक ही शरीर, मन, अंतःकरण को कब तक अपना मानते रहोगे ? अनंत-अनंत अंतःकरण, अनंत-अनंत शरीर जिस सच्चिदानंद में प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, वह शिवस्वरूप तुम हो। फूलों में सुगंध तुम्हीं हो। वृक्षों में रस तुम्हीं हो। पक्षियों में गीत तुम्हीं हो। सूर्य और चाँद में चमक तुम्हारी है। अपने 'सर्वोऽहम्' स्वरूप को पहचानकर खुली आँख समाधिस्थ हो जाओ। देर न करो, काल कराल सिर पर है।"

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