रविवार, अगस्त 28, 2011

चतु:श्लोकी भागवत


ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था। वही मूल चतु:श्लोकी भागवत है।

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।
पश्चादहं यदेतच्च योSवशिष्येत सोSस्म्यहम ॥१॥
ऋतेSर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो माया यथाSSभासो यथा तम: ॥ २॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥ ३॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाSSत्मन:।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥ ४॥

सृष्टी से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टी न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टीरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टी, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूँ। (१)
जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है। (२)

जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।  (३)

आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्त्व है। (४)

इस चतु:श्लोकी भागवत के पठन एवं श्रवण से मनुष्य के अज्ञान जनित मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो वास्तविक ज्ञानरुपी सूर्य का उदय होता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

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नवधा भक्ति


संत श्री तुलसीदास जी रचित राम चरित मानस में शबरी से भेंट प्रसंग के समय श्री राम अपनी नवधा भक्ति के लक्षण उन्हें बताते हैं॥ श्री राम द्वारा भिलनी शबरी को दिए गए इस सत्संग प्रसंग ने मन को छू लिया॥ बहुत ही सहज और सुंदर तरीके से संत शिरोमणि श्री तुलसी दास जी ने उस प्रसंग का वर्णन किया है॥
नवधा भक्ति कहऊँ तेहि पाहीं, सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भक्ति संतन्ह कर संगा, दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
श्री राम शबरी से कहते हैं की मैं तुझसे अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ॥ तू सावधान होकर सुन॥ और मन में धारण कर॥ पहली भक्ति है संतों का सत्संग॥ दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥
गुरु पद पंकज सेवा तीसरी भक्ति अमान,
चौथी भक्ति मम गुन गन करई कपट तजि गान॥
तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा॥ और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़ कर मेरे गुन समूहों का गान करें ॥
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा, पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा, निरत निरंतर सज्जन धर्मा ॥
मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास-यह पांचवी भक्ति है जो वेदों में प्रसिद्द है॥ छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा सवभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के (आचरण) में लगे रहना॥
सातवं सम मोहि मय जग देखा, मोते संत अधिक करी लेखा॥
आठँव जथा लाभ संतोष, सपनेहूँ नहि देखई परदोषा॥
सातवीं भक्ति है जगत भर को सम भाव से मुझमें ओत-प्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना॥ आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए उसी में संतोष करना॥ और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना॥
नवम सरल सब सन छलहीना, मम भरोस हियं हर्ष न दिना नव महू एकऊ जिन्ह के होई, नारि पुरूष सचराचर कोई॥
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपट रहित बर्ताव करना॥ ह्रदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना॥ इन् नवों में से जिनके पास एक भी भक्ति होती है, वह स्त्री पुरूष, जड़ चेतन कोई भी हो..॥
सोई अतिसय प्रिय भामिनी मोरें, सकल प्रकार भक्ति दृढ़ तोरें
जोगी ब्रिंद दुर्लभ गति जोई, तो कहूँ आज सुलभ भई सोई॥
हे भामिनी! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है॥ फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है॥ अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है॥ वही आज तेरेलिये सुलभ हो गई॥
इस प्रसंग के शुरू में ही श्री राम ने साफ शब्दों में कहा है कि मैं सिर्फ़ एक भक्ति का ही सम्बन्ध जनता हूँ॥ जाति पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुंब, गुण और चतुरता-इन सबके होने पर भी भक्ति रहित मनुष्य कैसा लगता है जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई देता है॥

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सोमवार, अगस्त 08, 2011

जन्माष्टमी का संदेश !


श्रीकृष्ण ऐसे महान नेता थे कि उनके कहने मात्र से राजाओं ने राजपाट का त्याग करके ऋषि-जीवन जीना स्वीकार कर लिया। ऐसे श्रीकृष्ण थे फिर भी बड़े त्यागी थे, व्यवहार में अनासक्त थे। हृदय में प्रेम.... आँखों में दिव्य दृष्टि....। ऐसा जीवन जीवनदाता ने जीकर प्राणीमात्र को, मनुष्य मात्र को सिखाया कि हे जीव ! तू मेरा ही अंश है। तू चाहे तो तू भी ऐसा हो सकता है।       
   ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।


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