सोमवार, अगस्त 08, 2011

जन्माष्टमी का संदेश !


श्रीकृष्ण ऐसे महान नेता थे कि उनके कहने मात्र से राजाओं ने राजपाट का त्याग करके ऋषि-जीवन जीना स्वीकार कर लिया। ऐसे श्रीकृष्ण थे फिर भी बड़े त्यागी थे, व्यवहार में अनासक्त थे। हृदय में प्रेम.... आँखों में दिव्य दृष्टि....। ऐसा जीवन जीवनदाता ने जीकर प्राणीमात्र को, मनुष्य मात्र को सिखाया कि हे जीव ! तू मेरा ही अंश है। तू चाहे तो तू भी ऐसा हो सकता है।       
   ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।




'इस देह में यह सनातन जीव मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है।' (भगवद् गीताः १५.७)

 
तुम मेरे अंश हो, तुम भी सनातन हो। जैसे, मेरे कई दिव्य जन्म हो गये, मैं उनको जानता हूँ। हे अर्जुन ! तुम नहीं जानते हो, बाकी तुम भी पहले से हो।

 
अर्जुन को निमित्त करके भगवान सबको उपदेश देते हैं कि आप भी अनादि काल से हो। इस शरीर के पहले तुम थे। बदलने वाले शरीरों में कभी न बदलने वाले ज्ञानस्वरूप आत्मा को जान लेना ही मनुष्य जन्म का फल है।

 
'मैं हूँ' जहाँ से उठता है उस ज्ञानस्वरूप अधिष्ठान में जो विश्रांति पा लेता है वह श्रीकृष्ण के स्वरूप को ठीक से जान लेता है।

 
इस ज्ञान को पचाने के लिए बुद्धि की पवित्रता चाहिए। बुद्धि की पवित्रता के लिए यज्ञ, होम, हवन, दान, पुण्य ये सब बहिरंग साधन हैं। धारणा-ध्यान आदि अंतरंग साधन हैं और आत्मज्ञान का सत्संग परम अंतरंग साधन हैं। सत्संग की बलिहारी है।

 
सत्संग सुनने से जितना पुण्य होता है उसका क्या बयान करें !

 
तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।
सदगुरू मिले अनन्त फल कहे कबीर विचार।।

 
तीर्थ में स्नान करो तो पुण्य बढ़ेगा। संत का सान्निध्य मिले तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों के द्वार खुल जाएँगे। वे ही संत जब सदगुरू के रूप में मिल जाते हैं तो उनकी वाणी हमारे हृदय में ऐसा गहरा प्रभाव डालती है कि हम अपने वास्तविक 'मैं' में पहुँच जाते हैं।

 
हमारा 'मैं' तत्त्व से देखा जाय तो अनन्त है। एक शरीर में ही नहीं बल्कि हरेक शरीर में जो 'मैं.... मैं.... मैं... मैं....' चल रहा है वह अनन्त है। उस अनन्त परमात्मा का ज्ञान जीव को प्राप्त हो जाता है। इसलिए कबीर जी न ठीक ही कहा है किः

 
तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।
सदगुरू मिले अनन्त फल कहे कबीर विचार।।

 
सदगुरू मेरा शूरमा करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का हरे भरम की कोट।।

 
जीव को भ्रम हुआ है कि 'यह करूँ तो सुखी हो जाऊँ, यह मिले तो सुखी हो जाऊँ....' लेकिन आज तक जो मिला है, आज के बाद जो भी संसार का मिलेगा, आज तक जो भी संसार का जाना है और आज के बाद जो भी जानोगे, वह मृत्यु के एक झटके में सब पराया हो जायेगा।

 
मृत्यु झटका मारकर सब छीन ले उसके पहले, जहाँ मौत की गति नहीं उस अपने आत्मा को 'मैं' स्वरूप में जान ले, अपने कृष्ण तत्त्व को जान ले, तेरा बेड़ा पार हो जायेगा।

 
श्रीकृष्ण कहते हैं-

 
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।



'हे अर्जुन ! मैं अमृत हूँ, मैं मृत्यु हूँ, मैं सत् हूँ और मैं असत् हूँ।' (गीताः ९.१९)

 
कितना दिव्य अनुभव ! कितनी आत्मनिष्ठा ! कितना सर्वात्मभाव ! सर्वत्र एकात्मदृष्टि ! जड़-चेतन में अपनी सत्ता, चेतनता और आनन्दरूपता जो विलस रही है उसक प्रत्यक्ष अनुभव !

 
आप दुनियाँ की मजहबी पोथियों, मत-मतांतरों, पीर-पैगम्बरों को पढ़ लीजिये, सुन लीजिये। उनमें से किसी में ऐसा कहने की हिम्मत है ? किन्तु श्रीकृष्ण भगवान के इस कथन से सर्वत्र एकात्मदृष्टि और उनके पूर्णावतार, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण प्रेम, पूर्ण समता आदि छलकते हैं।

 
श्रीकृष्ण जेल में पैदा हुए हैं, मुस्कुरा रहे हैं। मथुरा में धनुषयज्ञ में जाना पड़ता है तो भी मुस्करा रहे हैं। मामा के षडयंत्रों के समय भी मुस्करा रहे हैं। संधिदूत होकर गये तब भी मुस्करा रहे हैं। शिशुपाल सौ-सौ बार अपमान करता है, हर अपमान का बदला मृत्युदंड हो सकता है, फिर भी चित्त की समता वही की वही। युद्ध के मैदान में अपने ज्ञानामृत से मुस्कराते हुए उलझे, थके, हारे अर्जुन को भक्ति का, योग का, ज्ञान का आत्म-अमृतपान कराते हैं।

 
संसार की किसी भी परिस्थिति ने उन पर प्रभाव नहीं डाला। जेल में पैदा होने से, पूतना के विषपान कराने से, मामा कंस के जुल्मों से, मामा को मारने से, नगर छोड़कर भागने से, भिक्षा माँगते ऋषियों के आश्रम में निवास करने से, धरती पर सोने से, लोगों का और स्वयं अपने भाई का भी अविश्वास होने से, बच्चों के उद्दण्ड होने से, किसी भी कारण से श्रीकृष्ण के चेहरे पर शिकन नहीं पड़ती। उनका चित्त कभी उद्विग्न नहीं हुआ। सदा समता के साम्राज्य में। समचित्त श्रीकृष्ण का चेहरा कभी मुरझाया नहीं। किसी भी वस्तु की प्राप्ति-अप्राप्ति से, किसी भी व्यक्ति की निन्दा-स्तुति से श्रीकृष्ण की मुखप्रभा म्लान नहीं हुई।

 
नोदेति नास्तमेत्येषा सुखे दुःखे मुखप्रभा।

 
श्रीकृष्ण यह नहीं कहते कि आप मंदिर में, तीर्थस्थान में या उत्तम कुल में प्रगट होगे तभी मुक्त होगे। श्रीकृष्ण तो कहते हैं कि अगर आप पापी से भी पापी हो, दुराचारी से भी दुराचारी हो फिर भी मुक्ति के अधिकारी हो।

 
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।

 
'यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसन्देह संपूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा।' (भगवद् गीताः ४.३६)

 
हे साधक ! इस जन्माष्टमी के प्रसंग पर तेजस्वी पूर्णावतार श्रीकृष्ण की जीवन-लीलाओं से, उपदेशों से और श्रीकृष्ण की समता और साहसी आचरणों से सबक सीख, सम रह, प्रसन्न रह, शांत हो, साहसी हो, सदाचारी हो। स्वयं धर्म में स्थिर रह, औरों को धर्म के मार्ग में लगाता रह। मुस्कराते हुए आध्यात्मिक उन्नति करता रह। औरों को सहाय करता रह। कदम आगे रख। हिम्मत रख। विजय तेरी है। सफल जीवन जीने का ढंग यही है।

 
जय श्रीकृष्ण ! कृष्ण कन्हैयालाल की जय....!

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