जिनके जीवन में आत्मशांति प्राप्त करने की रूचि व तत्परता है, वे इस पृथ्वी के देव ही हैं। देव दो प्रकार के माने जाते हैं- एक तो स्वर्ग में रहने वाले और दूसरे धरती पर के देव। इनमें भी धरती पर के देव को श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि स्वर्ग के देव तो स्वर्ग के भोग भोगकर अपना पुण्य नष्ट कर रहे हैं जबकि पृथ्वी के देव अपने दान, पुण्य, सेवा, सुमिरन आदि के माध्यम से पाप नष्ट करते हुए हृदयामृत का पान करते हैं। सच्चे सत्संगी मनुष्य को पृथ्वी पर का देव कहा जाता है।
कबीर जी के पास ईश्वर का आदेश आया कि तुम वैकुण्ठ में पधारो। कबीर जी की आँखों में आँसू आ गये। इसलिए नहीं कि अब जाना पड़ता है, मरना पड़ता है.... बल्कि इसलिए कि वहाँ सत्संग नहीं मिलेगा। कबीर जी लिखते हैं-
राम परवाना भेजिया, वाँचत कबीरा रोय।
क्या करूँ तेरी वैकुण्ठ को, जहाँ साध-संगत नहीं होय।।
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