ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी उससे आलिंगन करके मिलते हैं !
तुम निर्भयतापूर्वक अनुभव करो कि मैं आत्मा हूँ । मैं अपनेको ममता से बचाऊँगा । बेकार के नाते और रिश्तों में बहते हुए अपने जीवन को बचाऊँगा । पराई आशा से अपने चित्त को बचाऊँगा । आशाओं का दास नहीं लेकिन आशाओं का राम होकर रहूँगा । ॐ … ॐ … ॐ …
मैं निर्भय रहूँगा । मैं बेपरवाह रहूँगा जगत के सुख दु:ख में । मैं संसार की हर परिस्थिति में निश्चिन्त रहूँगा, क्योंकि मैं आत्मा हूँ । ऐ मौत ! तू शरीरों को बिगाड़ सकती है, मेरा कुछ नहीं कर सकती । तू क्या डराती है मुझे ?
साधना के रास्ते पर हजार हजार विघ्न होंगे, लाख लाख काँटे होंगे । उन सबके ऊपर निर्भयतापूर्वक पैर रखेंगे । वे काँटे फूल न बन जाँए तो हमारा नाम ‘साधक’ कैसे ?
हमें रोक सके ये जमाने में दम नहीं ।
ऐ दुनियाँ की रंगीनियाँ ! ऐ संसार के प्रलोभन ! तुम मुझे अब क्या फँसाओगे ! तुम्हारी पोल मैंने जान ली है । हे समाज के रीति रिवाज ! तुम कब तक बाँधोगे मुझे ? हे सुख और दु:ख ! तुम कब तक नचाओगे मुझे ? अब मैं मोहनिशा से जाग गया हूँ ।
निर्भयतापूर्वक, दृढ़तापूर्वक, ईमानदारी और नि:शंकता से अपनी असली चेतना को जगाओ । कब तक तुम शरीर में सोते रहोगे ?
ॐ … ॐ … ॐ …
हजारों हजारों उत्थान और पतन के प्रसंगो में हम अपनी ज्ञान की आँख खोले रहेंगे । हो होकर क्या होगा ? इस मुर्दे शरीर का ही तो उत्थान और पतन गिना जाता है । हम तो अपनी आत्मा मस्ती में मस्त है।
बिगड़े तब जब हो कोई बिगड़नेवाली शय ।
अकाल अछेघ अभेघ को कौन वस्तु का भय ॥
मुझ चैतन्य को, मुझ आत्मा को क्या बिगड़ना है और क्या मिलना है ? बिगड़ बिगड़कर किसका बिगड़ेगा ? इस मुर्दे शरीर का ही न ? मिल मिलकर भी क्या मिलेगा ? इस मुर्दे शरीर को ही मिलेगा न ? इसको तो मैं जलाकर आया हूँ ज्ञान की आग में । अब सिकुड़ने की क्या जरुरत है ? बाहर के दु:खों के सामने, प्रलोभनों के सामने झुकने की क्या जरुरत है ?
अब मैं सम्राट की नाईं जिऊँगा … बेपरवाह होकर जिऊँगा । साधना के मार्ग पर कदम रखा है तो अब चलकर ही रहूँगा । ॐ … ॐ … ॐ … ऐसे व्यक्ति के लिए सब संभव है ।
एक मरणियो सोने भारे ।
आखिर तो मरना ही है, तो अभी से मौत को निमंत्रण दे दो । साधक वह है कि जो हजार विघ्न आयें तो भी न रुके , लाख प्रलोभन आएँ तो भी न फँसे । हजार भय के प्रसंग आएँ तो भी भयभीत न हो और लाख धन्यवाद मिले तो भी अहंकारी न हो । उसका नाम साधक है । साधक का अनुभव होना चाहिए कि:
हम से जमाना है जमाने से हम नहीं ॥
प्रहलाद के पिता ने रोका तो प्रहलाद ने पिता की बात को ठुकरा दी । वह भगवान के रास्ते चल पड़ा । मीरा को पति और परिवार ने रोका तो मीरा ने उनकी बात को ठुकरा दिया । राजा बलि को तथाकथित गुरु ने रोका तो राजा बलि ने उनकी बात को सुनी अनसुनी कर दी ।
ईश्वर के रास्ते पर चलने में यदि गुरु भी रोकता है तो गुरु की बात को भी ठुकरा देना, पर ईश्वर को नहीं छोड़ना ।
ऐसा कौन गुरु है जो भगवान के रास्ते चलने से रोकेगा ? वह निगुरा गुरु है । ईश्वर के रास्ते चलने में यदि कोई गुरु रोके तो तुम बलि राजा को याद करके कदम आगे रखना । यदि पत्नी रोके तो राजा भरतृहरी को याद करके पत्नी की ममता को ढकेल देना । यदि पुत्र और परिवार रोकता है तो उन्हें ममता की जाल समझकर काट देना ज्ञान की कैंची से । ईश्वर के रास्ते, आत्म-साक्षात्कार के रास्ते चलने में दुनियाँ का अच्छे से अच्छा व्यक्ति भी आड़े आता हो तो … आहा ! तुलसीदासजी ने कितना सुन्दर कहा है !
जाके प्रिय न राम वैदेही,
तजिए ताहि कोटि वैरी सम , यद्यपि परम सनेही ।
ऐसे प्रसंग में परम स्नेही को भी वैरी की तरह त्याग दो । अन्दर की चेतना का सहारा लो और ॐ की गर्जना करो ।
दु:ख और चिन्ता, हताशा और परेशानी, असफलता और दरिद्रता भीतर की चीजें होती हैं, बाहर की नहीं । जब भीतर तुम अपने को असफल मानते हो तब बाहर तुम्हें असफलता दिखती है ।
भीतर से तुम दीन हीन मत होना । घबराहट पैदा करनेवाली परिस्थितियों के आगे भीतर से झुकना मत । ॐकार का सहारा लेना । मौत भी आ जाए तो एक बार मौत के सिर पर भी पैर रखने की ताकत पैदा करना । कब तक डरते रहोगे ? कब तक मनौतियाँ मनाते रहोगे ? कब तक नेताओं को,साहबों को, सेठों को, नौकरों को रिझाते रहोगे ? तुम अपने आपको रिझा लो एक बार । अपने आपसे दोस्ती कर लो एक बार । बाहर के दोस्त कब तक बनाओगे ?
कबीरा इह जग आय के, बहुत से कीने मीत ।
जिन दिल बाँधा एक से, वे सोये निश्चिंत ॥
बहुत सारे मित्र किये लेकिन जिसने एक से दिल बाँधा वह धन्य हो गया । अपने आपसे दिल बाँधना है । यह ‘एक’ कोई आकाश पाताल में नहीं बैठा है । कहीं टेलिफोन के खम्भे नहीं डालने हैं, वायरिंग नहीं जोड़नी है । वह ‘एक’ तो तुम्हारा अपना आपा है । वह ‘एक’ तुम्हीं हो । नाहक सिकुड़ रहे हो । ‘यह मिलेगा तो सुखी होऊँगा, वह मिलेगा तो सुखी होऊँगा …’
अरे ! सब चला जाए तो भी ठीक है, सब आ जाए तो भी ठीक है । आखिर यह संसार सपना है । गुजरने दो सपने को । हो होकर क्या होगा ? क्या नौकरी नहीं मिलेगी ? खाना नहीं मिलेगा ? कोई बात नहीं । आखिर तो मरना है इस शरीर को । ईश्वर के मार्ग पर चलते हुए बहुत बहुत तो भूख प्यास से पीड़ित हो मर जायेंगे । वैसे भी खा खाकर लोग मरते ही हैं न ! वास्तव में होता तो यह है कि प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलनेवाले भक्त की रक्षा ईश्वर स्वयं करते हैं । तुम जब निश्चिंत हो जाओगे तो तुम्हारे लिए ईश्वर चिन्तित होगा कि कहीं भूखा न रह जाए ब्रह्मवेत्ता ।
सोचा मैं न कहीं जाऊँगा यहीं बैठकर अब खाऊँगा ।
जिसको गरज होगी आयेगा सृष्टिकर्त्ता खुद लायेगा ॥
सृष्टिकर्त्ता खुद भी आ सकता है। सृष्टि चलाने की और सँभालने की उसकी जिम्मेदारी है । तुम यदि सत्य में जुट जाते हो तो धिक्कार है उन देवी देवताओं को जो तुम्हारी सेवा के लिए लोगों को प्रेरणा न दें । तुम यदि अपने आपमें आत्मारामी हो तो धिक्कार है उन किन्नरों और गंधर्वों को जो तुम्हारा यशोगान न करें !
नाहक तुम देवी देवताओं के आगे सिकुड़ते रहते हो कि ‘आशीर्वाद दो… कृपा करो …’ तुम अपनी आत्मा का घात करके, अपनी शक्तियों का अनादर करके कब तक भीख माँगते रहोगे ? अब तुम्हें जागना होगा । इस द्वार पर आये हो तो सोये सोये काम न चलेगा ।
हजार तुम यज्ञ करो, लाख तुम मंत्र करो लेकिन तुमने मूर्खता नहीं छोड़ी तब तक तुम्हारा भला न होगा । 33 करोड़ देवता तो क्या, 33 करोड़ कृष्ण आ जायें, लेकिन जब तक तत्त्वज्ञान को व्यवहार में उतारा नहीं तब तक अर्जुन की तरह तुम्हें रोना पड़ेगा । Let the lion of vedant roar in your life.वेदान्तरुपी सिंह को अपने जीवन में गर्जने दो । टँकार कर दो ॐ कार का । फिर देखो, दु:ख चिन्ताएँ कहाँ रहते हैं ।
चाचा मिटकर भतीजे क्यों होते हो ? आत्मा होकर शरीर क्यों बन जाते हो ? कब तक इस जलनेवाले को ‘मैं’ मानते रहोगे ? कब तक इसकी अनुकूलता में सुख, प्रतिकूलता में दु:ख महसूस करते रहोगे ? अरे सुविधा के साधन तुम्हें पाकर धनभागी हो जायें, तुम्हारे कदम पड़ते ही असुविधा सुविधा में बदल जाए -ऐसा तुम्हारा जीवन हो ।
घने जंगल में चले जाओ । वहाँ भी सुविधा उपलब्ध हो जाए । न भी हो तो अपनी मौज, अपना आत्मानंद भंग न हो । भिक्षा मिले तो खा लो । न भी मिले तो वाह वाह ! आज उपवास हो गया ।
राजी हैं उसमें जिसमें तेरी रजा है ।
हमारी न आरजू है न जूस्तजू है ॥
खाना या नहीं खाना यह मुर्दे के लिए है । जिसकी अस्थियाँ भी ठुकराई जाती हैं उसकी चिन्ता ? भगवान का प्यारा होकर टुकड़ों की चिन्ता ? संतो का प्यारा होकर कपड़ों की चिन्ता ? फकीरों का प्यारा होकर रुपयों की चिन्ता ? सिद्धों का प्यारा होकर नाते रिश्तों की चिन्ता ?
चिन्ता के बहुत बोझे उठाये । अब निश्चिन्त हो जाओ । फकीरों के संग आये हो तो अब फक्कड़ हो जाओ । साधना में जुट जाओ ।
फकीर का मतलब भिखारी नहीं । फकीर का मतलब लाचार नहीं । फकीर वह है जो भगवान की छाती पर खेलने का सामर्थ्य रखता हो । ईश्वर की छाती पर लात मारने की शक्ति जिसमें है वह फकीर । भृगु ने भगवान की छाती पर लात मार दी और भगवान पैरचंपी कर रहे हैं । भृगु फकीर थे । भिखमंगो को थोड़े ही फकीर कहते हैं ? तृष्णावान् को थोड़े ही फकीर कहते हैं ?
भृगु को भगवान के प्रति द्वेष न था । उनकी समता निहारने के लिए लगा दी लात । भगवान विष्णु ने क्या किया ? कोप किया ? नहीं । भृगु के पैर पकड़कर चंपी की कि हे मु्नि ! तुम्हें चोट तो नहीं लगी ?
फकीर ऐसे होते हैं । उनके संग में आकर भी लोग रोते हैं : ‘कंकड़ दो… पत्थर दो… मेरा क्या होगा … ? बच्चो का क्या होगा ? कुटुम्ब का क्या होगा?
सब ठीक हो जायेगा । पहले तुम अपनी महिमा में आ जाओ । अपने आपमें आ जाओ ।
न्यायाधीश कोर्ट में झाडू लगाने थोड़े ही जाता है ? वादी प्रतिवादी को, असील वकील को बुलाने थोड़ी ही जाता है ? वह तो कोर्ट में आकर विराजमान होता है अपनी कुर्सी पर । बाकी के सब काम अपने आप होने लगते हैं । न्यायाधीश अपनी कुर्सी छोड़कर पानी भरने लग जाए, झाडू लगाने लग जाए,वादी प्रतिवादी को पुकारने लग जाए तो वह क्या न्याय करेगा ?
तुम न्यायाधीशों के भी न्यायाधीश हो । अपनी कुर्सी पर बैठ जाओ । अपनी आत्मचेतना में जग जाओ ।
छोटी बड़ी पूजाएँ बहुत की । अब आत्मपूजा में आ जाओ ।
देखा अपने आपको, मेरा दिल दीवाना हो गया ।
ना छेड़ो मुझे यारों ! मैं खुद पे मस्ताना हो गया ॥
ऐसे गीत निकलेंगे तुम्हारे भीतर से । तुम अपनी महिमा में आओ । तुम कितने बड़े हो ! इन्द्रपद तुम्हारे आगे तुच्छ है, अति तुच्छ है । इतने तुम बड़े हो, फिर सिकुड़ रहे हो ! धक्का मुक्का कर रहे हो । ‘दया कर दो … जरा सा प्रमोशन दे दो… अवल कारकुन में से तहसीलदार बना दो …तहसीलदार में से कलेक्टर बना दो … कलेक्टर में से सचिव बना दो …’
लेकिन … जो तुमको यह सब बनायेंगे वे तुमसे बड़े बन जायेंगे । तुम छोटे ही रह जाओगे । बनती हुई चीज से बनानेवाला बड़ा होता है । अपने से किसको बड़ा रखोगे ? मुर्दों को क्या बड़ा रखना ? अपनी आत्मा को ही सबसे बड़ी जान लो, भैया ! यहाँ तक कि तुम अपने से इन्द्र को भी बड़ा न मानो।
फकीर तो और आगे की बात कहेंगे । वे कहते हैं ‘ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी अपने से बढ़कर नहीं होते, एक ऐसी अवस्था आती है । यह है आत्म साक्षात्कार ।’
ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तत्त्ववेत्ता से आलिंगन करके मिलते हैं कि यह जीव अब शिवस्वरुप हुआ । ऐसे ज्ञान में जगने के लिए तुम्हारा मनुष्य जन्म हुआ है । … और तुम सिकुड़ते रहते हो ? ‘मुझे नौकर बनाओ, चाकर रखो ।’ अरे, तुम्हारी यदि तैयारी है तो अपनी महिमा में जगना कोई कठिन बात नहीं है ।
यह कौन सा उकदा है जो हो नहीं सकता ।
तेरा जी न चाहे तो हो नहीं सकता ॥
छोटा सा कीड़ा पत्थर में घर करे ।
और इन्सान क्या दिले दिलबर में घर न करे ॥
तुम्हारे सब पुण्य, कर्म, धर्माचरण और देव दर्शन का यह फल है कि तुम्हें आत्मज्ञान में रुचि हुई । ब्रह्मवेत्ताओं के शरीर की मुलाकात तो कई नास्तिकों को भी हो जाती है, अभागों को भी हो जाती है । श्रद्धा जब होती है तब शरीर के पार जो बैठा है उसे पहचानने के काबिल तुम बन जाओगे । ॐ … ॐ… ॐ …
जो तत्त्ववेत्ताओं की वाणी से दूर है उसे इस संसार में भटकना ही पड़ेगा । जन्म मरण लेना ही पड़ेगा । चाहे वह कृष्ण के साथ हो जाए चाहे अम्बाजी के साथ हो जाए लेकिन जब तक तत्त्वज्ञान नहीं हुआ तब तक तो बाबा …
गुजराती भक्त कवि नरसिंह मेहता कहते हैं :
आत्मतत्त्व चीन्या विना सर्व साधना झूठी ।
सर्व साधनाओं के बाद नरसिंह मेहता यह कहते हैं ।
तुम कितनी साधना करोगे ?
पहले मैंने भी खूब पूजा उपासना की थी । भगवान शिव की पूजा के बिना कुछ खाता पीता नहीं था । प. पू. सदगुरुदेव श्री लीलाशाहजी बापू के पास गया तब भी भगवान शंकर का बाण और पूजा की सामग्री साथ में लेकर गया था । मैं लकड़ियाँ भी धोकर जलाऊँ, ऐसी पवित्रता को माननेवाला था । फिर भी जब तक परम पवित्र आत्मज्ञान नहीं हुआ तब तक यह सब पवित्रता बस उपाधि थी । अब तो … अब क्या कहूँ ?
नैनीताल में 15 डोटियाल (कुली) रहने के लिए एक मकान किराये पर ले रहे थे । किराया 32 रुपये था और वे लोग 15 थे । लीलाशाहजी बापू ने दो रुपये देते हुए कहा:
“मुझे भी एक ‘मेम्बर’ बना लो । 32 रुपये किराया है, हम 16 किरायेदार हो जायेंगे ।’’
ये अनन्त ब्रह्माण्डों के शहेनशाह उन डोटियालों के साथ वर्षों तक रहे । वे तो महा पवित्र हो गये थे । उन्हें कोई अपवित्रता छू नहीं सकती थी ।
एक बार जो परम पवित्रता को उपलब्ध हो गया उसे क्या होगा ? लोहे का टुकड़ा मिट्टी में पड़ा है तो उसे जंग लगेगा । उसे सँभालकर आलमारी में रखोगे तो भी हवाँए वहाँ जंग चढ़ा देंगी । उसी लोहे के टुकड़े को पारस का स्पर्श करा दो, एक बार सोना बना दो, फिर चाहे आलमारी में रखो चाहे कीचड़ में डाल दो, उसे जंग नहीं लगेगा ।
ऐसे ही हमारे मन को एक बार आत्मस्वरुप का साक्षात्कार हो जाय । फिर उसे चाहे समाधि में बिठाओ, पवित्रता में बिठाओ चाहे नरक में ले जाओ । वह जहाँ होगा, अपने आपमें पूर्ण होगा । उसीको ज्ञानी कहते हैं । ऐसा ज्ञान जब तक नहीं मिलेगा तब तक रिद्धि सिद्धि आ जाए, मुर्दे को फूँक मारकर उठाने की शक्ति आ जाए फिर भी उस आत्मज्ञान के बिना सब व्यर्थ है । वाक् सिद्धि या संकल्पसिद्धि ये कोई मंजिल नहीं है । साधनामार्ग में ये बीच के पड़ाव हो सकते हैं । यह ज्ञान का फल नहीं है । ज्ञान का फल तो यह है कि ब्रह्मा और महेश का ऐश्वर्य भी तुम्हें अपने निजस्वरुप में भासित हो,छोटा सा लगे । ऐसा तुम्हारा आत्म परमात्मस्वरुप है। उसमें तुम जागो । ॐ … ॐ … ॐ …
लेबल: इश्वर की ओर, Ishwar ki aur
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