शुक्राचार्य के
शाप से राजा ययाति युवावस्था में ही वृद्ध हो गये थे | परन्तु बाद में ययाति के प्रार्थना करने पर शुक्राचार्य ने दयावश उनको यह
शक्ति दे दी कि वे चाहें तो अपने पुत्रों से युवावस्था लेकर अपना वार्धक्य उन्हें
दे सकते थे | तब ययाति ने अपने पुत्र यदु, तर्वसु, द्रुह्यु और अनु से उनकी जवानी माँगी, मगर वे राजी न हुए | अंत में छोटे पुत्र पुरु ने अपने पिता को
अपना यौवन देकर उनका बुढ़ापा ले लिया |
पुनः युवा होकर ययाति ने फिर
से भोग भोगना शुरु किया | वे नन्दनवन में विश्वाची नामक अप्सरा के
साथ रमण करने लगे | इस प्रकार एक हजार वर्ष तक भोग भोगने के बाद भी भोगों से जब वे संतुष्ट नहीं हुए
तो उन्होंने अपना बचा हुआ यौवन अपने पुत्र पुरु को लौटाते हुए कहा :
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति |
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ||
“पुत्र ! मैंने
तुम्हारी जवानी लेकर अपनी रुचि,
उत्साह और समय के अनुसार
विष्यों का सेवन किया लेकिन विषयों की कामना उनके उपभोग से कभी शांत नहीं होती, अपितु घी की आहुति पड़ने पर अग्नि की भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है |
रत्नों से जड़ी हुई सारी
पृथ्वी, संसार का सारा सुवर्ण, पशु और सुन्दर स्त्रियाँ,
वे सब एक पुरुष को मिल जायें
तो भी वे सबके सब उसके लिये पर्याप्त नहीं होंगे | अतः तृष्णा का
त्याग कर देना चाहिए |
छोटी बुद्धिवाले लोगों के लिए
जिसका त्याग करना अत्यंत कठिन है,
जो मनुष्य के बूढ़े होने पर भी
स्वयं बूढ़ी नहीं होती तथा जो एक प्राणान्तक रोग है उस तृष्णा को त्याग देनेवाले
पुरुष को ही सुख मिलता है |” (महाभारत : आदिपर्वाणि संभवपर्व : 12)
ययाति का अनुभव वस्तुतः बड़ा
मार्मिक और मनुष्य जाति ले लिये हितकारी है | ययाति आगे कहते हैं
:
“पुत्र
! देखो, मेरे एक हजार वर्ष विषयों को भोगने में बीत
गये तो भी तृष्णा शांत नहीं होती और आज भी प्रतिदिन उन विषयों के लिये ही तृष्णा
पैदा होती है |
पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयासक्तचेतसः |
तथाप्यनुदिनं तृष्णा ममैतेष्वभिजायते ||
इसलिए पुत्र ! अब मैं विषयों
को छोड़कर ब्रह्माभ्यास में मन लगाऊँगा | निर्द्वन्द्व तथा
ममतारहित होकर वन में मृगों के साथ विचरूँगा | हे पुत्र !
तुम्हारा भला हो | तुम पर मैं प्रसन्न हूँ | अब तुम अपनी जवानी पुनः प्राप्त करो और मैं यह राज्य भी तुम्हें ही अर्पण करता हूँ |
इस प्रकार अपने पुत्र पुरु को
राज्य देकर ययाति ने तपस्या हेतु वनगमन किया | उसी राजा पुरु से
पौरव वंश चला | उसी वंश में परीक्षित का पुत्र राजा
जन्मेजय पैदा हुआ था |
Cursed by Shukracharya, King
Yayati became aged in the very prime of his youth. On being begged for
forgiveness, Shukracharya took pity on him and modified his curse so that
Yayati could regain his youth if any of his sons consented to exchange his
youth with his father’s old age. One by one, Yayati asked each of his sons
Yadu, Turvasu, Druhyu and Anu, to take his old age and give his own youth in
exchange. But all of them refused. Finally Yayati’s youngest son, Puru,
exchanged his youth for his father’s old age. Yayati, gained his youth anew and
began to indulge himself in sensual pleasures again. But even after enjoying
all these pleasures for one thousand years, he was not satisfied. Then,
returning his remaining youth to his son Puru, Yayati said: “Dear Son, with
your youth I enjoyed all the pleasures I craved and longed for.
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OmVw H$m_… H$m_mZm_wn^moJoZ emå`{V & h{dfm H¥$îUdË_}d ^y` Edm{^dY©Vo
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“But desires never die. They
are never satiated by indulgence. Through indulgence they only flare up, just
like the sacrificial fire when ghee is poured into it. If one becomes the sole
Lord of the earth with all its jewels, gold, cows and beautiful women in his
possession, he will still not consider it enough. Therefore, the thirst for
enjoyment itself should be abandoned. This thirst is, however, very difficult
to give up for people with a depraved intellect. Desire, that does not diminish
even with the waning, life is a veritable fatal disease in man. Only he who
abandons all his desires attains real happiness.” (The
Mahabharata - Adiparvani Sambhavaparva: 85:12-14)
Yayati’s experience is very
poignant and teaches a great lesson to mankind. He continued, ''nyUª df©ghò§ _o {df`mgŠVMoVg…
& VWmß`Zw{XZ§ V¥îUm __¡Voîd{^Om`Vo &&... Dear son!
I have been indulging in worldly pleasures for the last thousand years, yet my
thirst for them only goes on increasing day by day. Therefore, I shall abandon
these pleasures and fix my mind on Brahman. Then with a completely detached and
tranquil mind I shall pass the rest of my days with the innocent deer in the
forest.”
Yayati crowned Puru as the
king and retired to the forest to lead the life of an ascetic.
Those who do not realize the importance and
value of preserving this vital essence of life (semen), should remember that
they are merely the followers of Yayati, and hence, are only heading towards
utter ruin. They must learn a lesson from the experience of Yayati. They should
cultivate dynamic will-power, a discriminative intellect, and have pity on
their own selves. Forget the past. Make a fresh start in life. It is better
late than never. Practice brahmacharya by means of yogÍsanas, prÍnÍyÍma,
etc., and adopt herbal therapy to maintain good health and regain the lost
vitality. Be heroic and brave. ›... ›... ›...