सोमवार, मार्च 06, 2023

जन समुदाय में प्रीति है तो ज्ञान में रूचि कैसे होगी ?

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि ।।

“मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना (यह ज्ञान है)।”
(भगवद् गीताः १३-१०)

अनन्य भक्ति और अव्यभिचारिणी भक्ति अगर भगवान में हो जाय, तो भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं है। भगवान प्राणी मात्र का अपना आपा है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति के सिवाय अन्य पुरूष में पतिभाव नहीं रखती, ऐसे ही जिसको भगवत्प्राप्ति के सिवाय और कोई सार वस्तु नहीं दिखती, ऐसा जिसका विवेक जाग गया है, उसके लिए भगवत्प्राप्ति सुगम हो जाती है। वास्तव में, भगवत्प्राप्ति ही सार है। माँ आनन्दमयी कहा करती थी – “हरिकथा ही कथा…… बाकी सब जगव्यथा।”

मेरे अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन समुदाय में प्रीति न होना…. इस प्रकार की जिसकी भक्ति होती है, उसे ज्ञान में रूचि होती है। ऐसा साधक अध्यात्मज्ञान में नित्य रमण करता है। तत्त्वज्ञान के अर्थस्वरूप परमात्मा को सब जगह देखता है। इस प्रकार जो है, वह ज्ञान है। इससे जो विपरीत है, वह अज्ञान है।

हरिरस को, हरिज्ञान को, हरिविश्रान्ति को पाये बिना जिसको बाकी सब व्यर्थ व्यथा लगती है, ऐसे साधक की अनन्य भक्ति जगती है। जिसकी अनन्य भक्ति है भगवान में, जिसका अनन्य योग हो गया है उसको जनसंपर्क में रूचि नहीं रहती। सामान्य इच्छाओं को पूर्ण करने में, सामान्य भोग भोगने में जो जीवन नष्ट करते है, ऐसे लोगों में सच्चे भक्त को रूचि नहीं होती। पहले रूचि हुई तब हुई, किन्तु जब अनन्य भक्ति मिली तो फिर उपरामता आ जायेगी। व्यवहार चलाने के लिए लोगों के साथ ‘हूँ…हाँ…’ कर लेगा, पर भीतर महसूस करेगा कि यह सब जल्दी निपट जाय तो अच्छा।

अनन्य भक्ति जब हृदय में प्रकट होती है, तब पहले का जो कुछ किया होता है वह बेगार-सा लगता है। एकान्त देश में रहने की रूचि होती है। जन-संपर्क से वह दूर भागता है। आश्रम में सत्संग कार्यक्रम, साधना शिविरें आदि को जन-संसर्ग नहीं कहा जा सकता। जो लोग साधन-भजन के विपरीत दिशा में जा रहे हैं, देहाध्यास बढ़ा रहे हैं, उनका संसर्ग साधक के लिए बाधक है। जिससे आत्मज्ञान मिलता है वह जनसंपर्क तो साधन मार्ग का पोषक है। जन-साधारण के बीच साधक रहता है तो देह की याद आती है, देहाध्यास बढ़ता है, देहाभिमान बढ़ता है। देहाभिमान बढ़ने पर साधक परमार्थ तत्त्व से च्युत हो जाता है, परम तत्त्व में शीघ्र गति नहीं कर सकता। जितना देहाभिमान, देहाध्यास गलता है, उतना वह आत्मवैभव को पाता है। यही बात श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने कहीः

गलिते देहाध्यासे विज्ञाते परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।

जब देहाध्यास गलित हो जाता है, परमात्मा का ज्ञान हो जाता है, तब जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ समाधि का अनुभव होता है, समाधि का आनन्द आता है।

देहाध्यास गलाने के लिए ही सारी साधनाएँ हैं। परमात्मा-प्राप्ति के लिये जिसको तड़प होती है, जो अनन्य भाव से भगवान को भजता है, ‘परमात्मा से हम परमात्मा ही चाहते हैं…. और कुछ नहीं चाहते…..’ ऐसी अव्यभिचारिणी भक्ति जिसके हृदय में है, उसके हृदय में भगवान ज्ञान का प्रकाश भर देते हैं।

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रविवार, मार्च 05, 2023

जिस माला से परमात्मा के साथ संबंध जोड़ा जाता है उस माला का मूल्य हम लोग नहीं जानते। जानिए कैसे ला सकते हैं अपनी माला में दिव्यता - बता रहे हैं पूज्य बापूजी

https://youtu.be/V7ah2asLJHU

शास्त्रों के अनुसार जपमाला जाग्रत होती है, यानी वह जड़ नहीं, चेतन होती है । माना जाता है कि देव शक्तियों के ध्यान के साथ-साथ अंगूठे या उंगलियों के अलग-अलग भागों से गुजरते माला के दाने आत्मा ब्रम्ह को जागृत करते हैं । इन स्थानों से ‘दैवीय उर्जा’ मन और शरीर में प्रवाहित होती है । इसलिए यह भी देवस्वरूप है। जिससे मिलनेवाली शक्ति या ऊर्जा अनेक दुखों का नाश करती है ।

यही कारण है कि मंत्रजप के पहले जपमाला की भी विशेष मंत्र से स्तुति एवं पूजा करने का विधान शास्त्रों में बताया गया है । 
भगवन्नाम की दीक्षा देने वाले महापुरुष जब मंत्र दीक्षा देते हैं और साधक जपने लग जाता है तो साधक के पांच शरीर शुद्ध होने लगते हैं। 84 नाड़ियां भगवन्नाम से पावन होने लगती है । 26 उपत्काओं में भगवन्नाम का प्रताप पहुंचने लगता है। लिंग पुराण में लिखा है:

 _जपेन पापं शाम्येत शेषंयत्कृतं जन्मपरंपराषु ।_
_जपेन भोगान् जपेन च मृत्यु जपेन सिद्धिं लभते च मुक्तिं॥_ 

भगवन्नाम जपने के द्वारा अनेक जन्मपरंपराओं, कई जन्म की परंपराओं के संचित पाप नष्ट हो जाते हैं।
भगवन्नाम जपते सभी प्रकार के सुखभोग खींचकर आने लगते हैं। भगवत्नाम जप प्राप्ति करते जप के द्वारा मुक्ति भी सुलभ 
हो जाती है और प्रज्ञा में प्रकाश होने लगता है। भगवन्नाम का प्रारम्भ करते समय जरा माला-वाला जपने की प्रेक्टिस नहीं है तो कठिन लगता है लेकिन प्रेक्टिस हो जाए तो माला बहुत काम देती है क्योंकि माला मध्यमा उंगली और अंगूठे के मेल से घुमाई जाती है। इससे क्या कि अंगूठे में जो तीन पाईंट है : एक सुमृति की है, एक प्रज्ञा की है, एक कार्यक्षमता की है, ये तीनों पाईंटें माला जपने से सजग रहती है और भगवान के नाम से बाकी के लाभ होते रहते हैं। तो प्रतिदिन माला जपने का अभ्यास.... आरंभ में के.जी. में जाते हैं ना बच्चे 1, 2.. लिखने अथवा ए.बी.सी.डी. लिखना कठिन लगता है लेकिन हाथ जम जाता है तो आसान हो जाता है ऐसे ही पहले माला पर जप करते-करते बाद में आठ-दस.. दस माला हो गई थोड़ी देर बैठे रहे। और जप करते-करते अपने आप को छोड़ दिया तो अंदर की शक्तियां जागृत होने लगेगी। कभी ऐसा झटका आएगा तो आप डरना नहीं और कुछ रोकना नहीं अंदर की छुपी हुई शक्तियों जागेगी कभी प्रकाश दिखेगा कभी हंसी आएगी कभी भगवान कहते भागवत में : 

वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
हसति क्वचित् रुदत्यभीक्ष्णं।
उद्गायन्ति विलज्जै नृत्यनंति च
मद्भक्तियुक्ता भुवनं पुनाति ॥

कभी वह हंसने लगता है, कभी रोने लगता है । कभी गला भर जाता है । कभी लज्जा छोड़कर नाचने लग जाता है। उद्धव ऐसा मेरा भक्त त्रिभुवन को पावन करने वाला हो जाता है।

तो हम जप कराते हैं या मंत्र देते हैं तो यह कहते हैं कि जप-ध्यान करो तो आसन बिछाकर करना चाहिए क्योंकि जैसे जनरेटर घूमता है तो विद्युत बनती है वैसे भगवान के नाम की पुनरावृति से एक आध्यात्मिक बिजली बनती है । तो आसन बिछाए बिना जो जप होता है तो अर्थिंग मिलने के कारण जप की विद्युत धरती में चली जाती है। इसीलिए आसन बिछाकर जप करना चाहिए।

जप के समय मन को एकाग्र कैसे करें?

मानो किसी का मन बहुत चंचल है, एकाग्र नहीं होता तो जप करते जाए और दाने पर त्राटक करते जाए, देखते जाएं। जब उंगली दाने पर आए मंत्र बोला और फिर दूसरे दाने को देखा। तो मन दाने को देखने में और जपने में दो काम होने से चंचलता कम कर देगा। नजर... और जपते जाएं, इससे मन की एकाग्रता में मदद मिलेगी दूसरा उपाय है कि अगर खुला आकाश है और अच्छा लगता है तो आकाश में निगाह टिकाए और जप करते जाएं। तीसरा उपाय है जिसमें प्रीति हो, ओंकार में अथवा इस प्रकार के स्वस्तिक में तो उसकी आकृति, चित्र सामने रखें । न ऊपर देखें न नीचे, बिल्कुल बराबरी में रखें, उस पर टिकीटिकी लगाकर देखें अथवा कोई हयात जागृत महापुरुष हो, उनका चित्र पर एकाकार होने का अवसर मिलता है तो इससे भी मन की एकाग्रता में मदद मिलेगी।

 *सावधानियां* 
 _मंत्र जप का पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए_ 

अमावस्या पूर्णिमा और पर्व के दिन मौन, जप-उपवास आदि से नाड़ियों का शोधन होता है। रोज दस प्राणायाम करने से विधिवत सुबह और दोपहर को करें तो एक महीने में सारी नाड़ियां शुद्ध होकर जापक को चमत्कारिक लाभ, आनंद प्राप्त हो सकता है। प्याज, लहसुन, मूली, आलू स्वास्थ्य के लिए और भक्ति के लिए विशेष हितकारी नहीं है । भैंस का दूध की अपेक्षा गाय का दूध साधन भजन वाले के लिए हितकारी है। मासिक धर्म में महिलाएं हों तो अपने हाथ से भोजन बनाकर पति को या बच्चों को ना खिलाएं, उनकी बुद्धि के विकास में, ओज में रुकावट आती है। इस प्रकार निगुरे लोगों से ज्यादा संपर्क या उनकी खुशामद में अथवा उनके हाथ का खानपान से थोड़ा बचें तो अपनी भक्ति के धर्म की रक्षा होगी। कभी-कभार महीने-दो महीने में दो दिन, चार दिन एकांत में चला जाए, जप-ध्यान और मौन तो बहुत सारी शक्तियां जल्दी जागृत होगी । चार-छह महीने में एक हफ्ता आश्रम में आ जाए, ध्यान योग, मौन में बैठ जाए तो गजब के फायदे होते हैं। तो आपके अंदर बहुत सारी संभावनाएं छुपी है, बहुत सारी योग्यताएं छुपी है, गुरुमंत्र के द्वारा, मौन के द्वारा, सत्कर्मों के द्वारा आप सारे दुखों को मिटाकर अपने हृदय में परमात्मा का आनंद, परमात्मा का ज्ञान, परमात्मा का माधुर्य पाकर सदा के लिए मुक्त आत्मा हो जाओ।

 *माला पूजन क्यों करना चाहिए?* 

अपनी माला दूसरे को नहीं देनी चाहिए और दूसरे की माला अपने नहीं जपनी चाहिए । सामान्य चैतन्य सब में है तो माला में भी सामान्य चैतन्य परमात्मा है और माला को जब पीपल के पत्ते पर रखकर उसको ग्रहण किया जाता है, पीपल के पत्ते पर रखकर "माले माले महा माले..." ऐसा जप करके, थोड़ा ध्यान करके "भगवान की दिव्यता, भगवान की चेतना इस माला में प्रवेश करो" ऐसी भावना करने के बाद, माला के दाने खंडित ना हो फिर तुलसी की हो, चंदन की हो, रुद्राक्ष की हो, मणियों की हो, स्वर्ण की हो, जैसी हो, ये ईष्टसिद्धि नाम की पुस्तक में शायद वर्णन है, माला विषयक।
तो पीपल के पत्ते पर रखकर माला को और उसमें दिव्यता अर्पित रखे, भगवान का ध्यान करके फिर अगर माला जपी जाए उस माला का जप अद्भुत होता है और माला को पवित्र जगह पर रखनी चाहिए । नाभि से नीचे के हिस्से में माला स्पर्श न करें, माला न घूमे और दूसरे की नजर भी ना पड़े तो अच्छा है माला गोमुखी में हो अथवा वस्त्र में हों ऐसे करके घूमे। जिस माला से परमात्मा का नाम लिया जाता है और जिस माला से परमात्मा के साथ संबंध जोड़ा जाता है उस माला का मूल्य हम लोग नहीं जानते। माला जपते-जपते कहीं रख दिया, कहीं रख दिया.. नहीं । माला का एक-एक मनका जो है उसमें, सामान्य चैतन्य तो सबमें है, लेकिन जब माला में आपने भावना की और प्राण प्रतिष्ठा जैसे मूर्ति में करते हैं तो वह भगवान हो जाती है ऐसे ही माला भी, माला... माला महालक्ष्मी, माला महान विद्या, माला वास्तविक में मातृ। तो जिसमें मन 'ल' हो जाए, जिसका सहारा लेकर मन परमात्मा में 'ल' हो जाए उसका नाम 'माला'।
"माले माले महा माले" ऐसा करके माला का जप करके माला को ग्रहण करने के बाद उसकी पवित्रता जो संभालता है उस साधक का मन दिव्यता की तरफ जाता है, निष्कामता की तरफ जाता और ध्यान भजन में रुचि होती है । प्रतिदिन एक हजार जप करने से आदमी का पतन नहीं होता है। 
मंत्र त्यागाद् दरिद्रता ! 
मंत्र का त्याग करने वाला दरिद्र होता है। धन का दरिद्र न हो तो विचारों का दरिद्र तो हो ही जाता है, आनंद का दरिद्र तो हो ही जाता है। तो हम लोग जब दुखी होते हैं, अशांत होते हैं, बेचैन होते है तो थोपते हैं कि फलाने ने मेरा अपमान किया, फलाने ने विघ्न लाया लेकिन हमारे पुण्यों की जब कमी होती है तभी हम दुखी होते तभी बेचैन होते अन्यथा बेचैनी या दुख दूसरा कोई नहीं दे सकता।

को काहू को नहीं सुख-दुख करि दाता।
निज कृत कर्म भोगतहिं भ्राता॥
तो जब-जब दुख हो, अशांति हो, बेचैनी हो तब-तब समझें कि हमारा जप-तप, साधन-भजन में कहीं न कहीं गड़बड़ है। कहीं ना कहीं उससे लापरवाही की।

माला पूजन विधि के लिए आवश्यक सामग्री

पूजन के लिए आवश्यक सामग्री
दो थालियां, एक माला पूजन के लिए दूसरी सामग्री रखने के लिए।
दो कटोरी, दो चम्मच अपने उपयोग के लिए एवं पूजन के लिए ।
पूजा की थाली में पीपल के 9 पत्ते, गंगाजल, पंचगव्य, चंदन, कुमकुम, फूल, तुलसी पत्ते, कलावा, धूपबत्ती, कपूर, माचिस, दीपक और अक्षत ।

पूजा कैसे करें ?

पूजा की थाली में पीपल का एक पत्ता बीच में और बाकी आठ को अगल-बगल इस ढंग से रखें कि ‘अष्टदल-कमल’ जैसा आकार बने । बीच वाले पत्ते पर अपनी जपमाला, करमाला और पहननेवाली माला रखें । पीपल एवं तुलसी के पत्ते रविवार के दिन नहीं तोड़ते हैं, अगर रविवार के दिन माला पूजन करना है तो पत्ते एक दिन पहले तोड़कर अवश्य रख लें ।
तीन बार ‘हरि ॐ’ का गुंजन करेंगे ।
हरि ॐ…
हरि ॐ....
हरि ॐ....

सर्वप्रथम प्रथम पूज्य गणेशजी, अपने सदगुरुदेव या इष्ट देव और माला देवी का पूजन करेंगे।

ॐ गं गणपतये नमः ।
ॐ श्री गुरुभ्यो नमः ।
ॐ श्री सरस्वत्यै नमः ।
ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः ।

आचमन 

यह मंत्र पढ़ते हुए तीन बार आचमन करें :
ॐ केशवाय नमः ।
ॐ नारायणाय नमः ।
ॐ माधवाय नमः ।

यह मंत्र बोलते हुए हाथ धो लें ।
ॐ गोविंदाय नमः ।
इति हस्तं प्रक्षाल्य:

पवित्रीकरण :
मंत्र पढ़कर बाएं हाथ में जल लेकर पवित्रीकरण की भावना करते हुए हाथ से अपने शरीर पर छिड़कें।

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपि वा ।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतर शुचि:।।

तिलक :
पूजन की थाली में से थोड़ा कुमकुम मिश्रित चंदन निकाल कर अपने ललाट पर तिलक कर लें। 

चंदनस्य महत्पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ।
आपदां हरते नित्यं लक्ष्मीः तिष्ठति सर्वदा ॥

रक्षासूत्र बंधन :
हाथ में मौली बांध लें।

सूचना
भाई दाहिने हाथ में मौली बांधे ।
बहने बाएं हाथ में मौली बांधें।

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥

प्रार्थना

हाथ जोड़कर प्रार्थना करें।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

वक्रतुंड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।।

माला-स्नान :

अब पीपल के पत्तों पर रखी माला की थाली को अपने सामने रख लें और स्नान का मंत्र बोलते हुए माला को गंगाजल से स्नान कराएं।

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेsस्मिन् सन्निधिं कुरु॥
ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । स्नानं समर्पयामि ।

पंचगव्य स्नान :

अब इस मंत्रोचार के साथ माला को पंचगव्य से स्नान कराएं ।

पयोदधि घृतं चैव गोमूत्रम च कुशोदकम्। गोमयेन समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । पंचगव्य स्नानं समर्पयामि ।

शुद्धोदक स्नान :
अब माला को शुद्ध जल से स्नान कराएं ।
ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि ।

माला को गोल आकार बना कर पीपल के पत्ते पर मेरू ऊपर रहे इस प्रकार थाली में रख दें । अब इस मंत्र को बोलते हुए माला को कुमकुम मिश्री तो चंदन से तिलक करें व अक्षत चढ़ाएं।

चन्दनस्य महत्पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् । आपदां हरते नित्यं, लक्ष्मी: तिष्ठति सर्वदा॥

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । गंधं समर्पयामि ।

अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुङ्कुमाक्ताः सुशोभिताः ।
मया निवेदिता तुभ्यं गृहाण परमेश्वरी ॥

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । अक्षतआन् समर्पयामि ।

माला को तुलसी पत्र और पुष्प चढ़ाएं।

तुलसी हेमरूपांच रत्नरूपा च मंजरिं ।
भवमोक्षप्रदां रम्यां अर्पयामि हरिप्रियाम् ॥

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः । तुलसीदलं समर्पयामि ।

माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वे प्रभो।
मयानीतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यताम्॥
ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः। पुष्पं समर्पयामि ।

अब गौ चंदन धूपबत्ती जलाकर माला को दाहिने हाथ से धूप दें।

वनस्पति रसोद्भूतो गन्धाढयो गन्ध उत्तम:।
आघ्रेय : सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ 

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः। धूपमाघ्रापयामि ।

दीया जलाकर माला को दीप दिखाएं। पश्चात कपूर जलाकर माला की आरती करें।

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम् ।
सदावसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ॥

माला में इष्टदेव की प्रतिष्ठा की भावना से प्रार्थना करें ।

प्रतिष्ठा सर्वदेवानां मित्रा वरुण निर्मिता । प्रतिष्ठां ते करोम्यत्र मण्डले दैवते : सह ॥

अखण्डानन्दबोधाय शिष्यसंतापहारिणे । सच्चिदानन्दरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

दोनों हाथ जोड़कर माला में अपने सदगुरुदेव अथवा इष्ट देव की भावना करते हुए माला को प्रार्थना करें।

माले माले महामाले सर्वतत्त्व स्वरूपिणी । चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्ततस्मान्मे सिद्धिदा भव॥
ॐ त्वं माले सर्वदेवानां सर्वसिद्धिप्रदा मता। 
तेन सत्येन मे सिद्धिं देहि मातर्नमोऽस्तु ते ॥
त्वं माले सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा भव ।
शिवं कुरुष्व मे भद्रे यशो वीर्यं च सर्वदा ॥

 ‘हे माले ! हे महामाले !! आप सर्वतत्व स्वरूपा हैं । आपमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चारों पुरुषार्थ समाये हुए हैं । इसलिए आप मुझे इनकी सिद्धि प्रदान करने वाली होईये । हे माले ! आप सभी देवताओं को समस्त सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली मानी जाती हैं । अतः मुझे सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्तिरूपी सिद्धि प्रदान कीजिये । हे माते ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ । हे माले ! आप मुझे सभी देवताओं तथा परम देव परमात्मा की प्रसन्नता प्रदान करने वाली होईये, शुभ फल देनेवाली होईये । हे भद्रे ! आप सदैव मुझे सत्कीर्ति और बल दीजिये और मेरा कल्याण कीजिये।’
इस प्रकार माला का पूजन करने से उसमें परमात्म-चेतना का आविर्भाव हो आता है।
इसके पश्चात अपने गुरु मंत्र की एक माला करें। अब अपनी माला को दोनों हाथों से हार की तरह उठाकर सामने पकड़े रखें और अपने गुरुदेव के गले में माला पहना रहे हैं, ऐसी भावना करें और गुरुदेव से प्रार्थना करें कि "हे मेरे इष्ट देव ! हे गुरुदेव! आप जड़ और चेतन सबमें विराजमान हैं। जिस चैतन्य स्वरूप आत्मतत्व में आप नित्य स्थित हैं उसमें हम भी आपके दिए हुए चेतन मंत्र को जपते हुए सर्वदा प्रतिष्ठित हो, ऐसी हम पर कृपा करें।"

 जिन्होंने मंत्र दीक्षा नहीं ली है वे अपने इष्टदेव का स्मरण और प्रार्थना कर सकते हैं । 
दोनों हाथ ऊपर करके तीन बार बोलेंगे:
ॐ तं नमामि हरिं परम् 
ॐ तं नमामि हरिं परम् 
ॐ तं नमामि हरिं परम् 

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