वो कौन सा परम रहस्य है ? जो रामकृष्ण को काली से, नामदेव को विट्ठल से और पार्वती को भगवान शिव से मिला !
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
गुरु की कृपा ही शिष्य का परम मंगल कर सकती है, दूसरा कोई भी नहीं कर सकता है यह प्रमाण वचन है। प्रमाण वचन को जो पकड़ता है वह तरता है। जो मन के अनुसार, वासना के अनुसार ही गुरु को देखना चाहता है वह भटक जाता है। 'गुरु को नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए अथवा हमको ऐसा होना चाहिए, हमको यह मिलना चाहिए..... ऐसी सोच है तो समझो वह वासना अनुसारी है।
'शास्त्रानुसारी' प्रमाण के अनुरूप करेगा। 'वासना अनुसारी' मन के अनुरूप करेगा। नामदान तो ले लेते हैं लेकिन मन के अनुरूप वाले ही लोग अधिक होते हैं। कोई विरला ही होता है प्रमाण से चलने वाला – जो शास्त्र कहते हैं वह सत् जो गुरुजी कहे वह सत्, जो अपनी वासना कहती है वह असत्।
वासना अनुसारी कर्म बंधन है, संसार है, जन्म-मरण का कारण है और शास्त्रानुसारी कर्म उन्नति व ईश्वरप्राप्ति का साधन है। तो पुरुषार्थ क्या करना है? जैसा मन में आये ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए कि जैसा शास्त्र और गुरु कहते हैं वैसा करना चाहिए? मान्यता अनुसारी कर्म कितने भी कर लो और उनका फल कितना भी दिख जाय लेकिन होगा वह संसारी।
जैसे सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है – यह प्रमाणभूत बात है। आँखों को नहीं दिखता है फिर भी मानना पड़ेगा। आकाश में नीलिमा नहीं है तो मानना पड़ेगा नीलिमा नहीं है। जो प्रमाणित बात वह माननी पड़ती है। शास्त्र कहते हैं- गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्। यह प्रमाणित बात है। नानक जी कहते हैं- घर विच आनंद रहा भरपूर, मनमुख स्वाद न पाया। अपने घर में ही ब्रह्म परमात्मा का आनंद है लेकिन जो मन के अनुसार ही करना चाहते हैं, वे उसको नहीं पा सकते। यह प्रमाणित बात है।
हमारे घर में कोई कमी नहीं थी। हमारे परिचय में गुफा की, रहने की जगहों की कमी नहीं थी फिर भी हमको अच्छा न लगे, ऐसा सात साल गुरुजी ने डीसा की झोंपड़पट्टी में हमको रख दिया तो हमने स्वीकार कर लिया। हमारे मन की नहीं चली। हमारी वासना के अनुसार अथवा हमारे कुटुम्बी हमको कहते हैं और हम चले जाते तो हमारी यहा दशा होती है जैसी दूसरे कर्मलेढ़ियों की होती है। कर्मलेढ़ी उसे कहा जाता है जिसके हाथ में मक्खन का पिण्ड आया और सरक गया, अब लस्सी चाट रहा है। करा-कराया सब नष्ट कर रहा हो उसको बोलते हैं कर्मलेढ़ी। अगर हम कर्मलेढ़ी हो जाते तो डीसा और अमदावाद में कितना अंतर है? और हम तो शादीशुदा थे, 7 साल में सातों बार घर जाकर आ सकते थे बिना आज्ञा लिये.... 70 बार जाते तो भी गुरुजी कहाँ रोकते? लेकिन हमने देखा कि अपने मन में या कुटुम्बियों के मन में जो भी आयेगा वैसा करेंगे तो आखिर क्या मिलेगा? ये जन्म मरण से पार नहीं हुए हैं तो उनकी सलाह लेकर हम जन्म-मरण से पार हो जायेंगे? शास्त्र कहता हैः
तन सुखाय पिंजर कियो धरे रैनदिन ध्यान।
तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान।।
शास्त्रानुसारी कर्म किये बना ईश्वर नहीं मिलता तो यूँ सबको मिल जाय ईश्वर ! आस्तिक तो बहुत लोग हैं, श्रद्धालु तो बहुत लोग हैं, फिर उनको अल्लाह, गॉड या ईश्वर क्यों नहीं मिलता! मेरे गुरु जी के आश्रम में ऐसे कई लोग आये। जैसे आई.ए.एस होने के लिए ढाई लाख युवक परीक्षा देते हैं। विभिन्न परीक्षाएँ देते-देते कई छँट जाते हैं, कई पास होते हैं, अंत में उनमें से करीब 1000 ऑफिसरों की पोस्टिंग होती है ऐसा हमने सुना है। ऐसे ही गुरु के द्वार पर कई लोग आते हैं परंतु उनमें से जिनमें ईश्वरप्राप्ति की सच्ची लगन होती है वे गुरु के दैवी कार्यों में, शास्त्रुसारी कर्मों में तत्परता से लगे रहते हैं और परम लक्ष्य को पा लेते हैं।
अपने मन में जैसा आया वैसा निर्णय करके जीव संसार-सागर में बह जाता है। अतः वासना अनुसारी कर्म संसार में भटकाता है और प्रमाण अनुसारी कर्म मोक्ष का हेतु है। अच्छा तो वही लगेगा जो अपने अनुकूल मिल जाय। व्यक्ति अपने विचारों के अनुसार करने लग जाये तो गिरेगा, पतन होगा और गुरु के अनुरूप छलाँग मारी तो उत्थान होगा। अपनी मान्यता के अनुसार एक जन्म नहीं हजार जन्म जीयो, कर करके गिर जाते हैं इसीलिए बोलते हैं शास्त्र के अनुसार कर्म करो।
रामकृष्णदेव ने अपनी मान्यता के अनुसार काली माता को तो प्रकट कर लिया लेकिन काली माता ने कहाः 'ब्रह्मज्ञानी गुरु की शरण जाओ।'
नामदेवजी ने अपनी मान्यतानुसार भगवान विट्ठल को प्रकट कर लिया लेकिन विट्ठल ने कहाः 'विसोबा खेचर के पास जाओ।' भगवान शिव को पार्वतीजी ने अपनी मान्यता के अनुसार पति के रूप में पा लिया लेकिन शिवजी ने कहाः 'गुरु वामदेव जी की शरण जाओ।' यह क्या रहस्य है?प्रमाणभूत है कि गुरुकृपा ही केवलं.... प्रमाणभूत बात मानने पड़ेगी।
मेरी हो सो जल जाय। तेरी हो सो रह जाय।
हमारी जो अहंता, ममता और वासना है वह जल जाये। गुरुजी ! आपकी जो करूणा और ज्ञान प्रसाद है वही रह जाय। तत्परता से सेवा करते हैं तो आदमी की वासनायें नियंत्रित हो जाती हैं और ईश्वरप्राप्ति की भूख लगती है।
प्रमाणभूत है कि जगत नष्ट हो रहा है। संसार का कितना भी कुछ मिल जाये लेकिन परमात्म-पद को पाये बिना इस जीवात्मा का जन्म-मरण का दुःख जायेगा नहीं।
बिनु रघुबीर पद जिय की जरनी न जाई।
जो प्रमाणभूत बात है उसको पकड़ लेना चाहिए और जीवन सफल बनाना चाहिए।
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