मंगलवार, अक्टूबर 11, 2011

वो कौन सा परम रहस्य है ? जो रामकृष्ण को काली से, नामदेव को विट्ठल से और पार्वती को भगवान शिव से मिला !


गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
गुरु की कृपा ही शिष्य का परम मंगल कर सकती है, दूसरा कोई भी नहीं कर सकता है यह प्रमाण वचन है। प्रमाण वचन को जो पकड़ता है वह तरता है। जो मन के अनुसार, वासना के अनुसार ही गुरु को देखना चाहता है वह भटक जाता है। 'गुरु को नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए अथवा हमको ऐसा होना चाहिए, हमको यह मिलना चाहिए..... ऐसी सोच है तो समझो वह वासना अनुसारी है।
'शास्त्रानुसारी' प्रमाण के अनुरूप करेगा। 'वासना अनुसारी' मन के अनुरूप करेगा। नामदान तो ले लेते हैं लेकिन मन के अनुरूप वाले ही लोग अधिक होते हैं। कोई विरला ही होता है प्रमाण से चलने वाला – जो शास्त्र कहते हैं वह सत् जो गुरुजी कहे वह सत्, जो अपनी वासना कहती है वह असत्।
वासना अनुसारी कर्म बंधन है, संसार है, जन्म-मरण का कारण है और शास्त्रानुसारी कर्म उन्नति व ईश्वरप्राप्ति का साधन है। तो पुरुषार्थ क्या करना है? जैसा मन में आये ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए कि जैसा शास्त्र और गुरु कहते हैं वैसा करना चाहिए? मान्यता अनुसारी कर्म कितने भी कर लो और उनका फल कितना भी दिख जाय लेकिन होगा वह संसारी।
जैसे सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है – यह प्रमाणभूत बात है। आँखों को नहीं दिखता है फिर भी मानना पड़ेगा। आकाश में नीलिमा नहीं है तो मानना पड़ेगा नीलिमा नहीं है। जो प्रमाणित बात वह माननी पड़ती है। शास्त्र कहते हैं- गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्। यह प्रमाणित बात है। नानक जी कहते हैं- घर विच आनंद रहा भरपूर, मनमुख स्वाद न पाया। अपने घर में ही ब्रह्म परमात्मा का आनंद है लेकिन जो मन के अनुसार ही करना चाहते हैं, वे उसको नहीं पा सकते। यह प्रमाणित बात है।
हमारे घर में कोई कमी नहीं थी। हमारे परिचय में गुफा की, रहने की जगहों की कमी नहीं थी फिर भी हमको अच्छा न लगे, ऐसा सात साल गुरुजी ने डीसा की झोंपड़पट्टी में हमको रख दिया तो हमने स्वीकार कर लिया। हमारे मन की नहीं चली। हमारी वासना के अनुसार अथवा हमारे कुटुम्बी हमको कहते हैं और हम चले जाते तो हमारी यहा दशा होती है जैसी दूसरे कर्मलेढ़ियों की होती है। कर्मलेढ़ी उसे कहा जाता है जिसके हाथ में मक्खन का पिण्ड आया और सरक गया, अब लस्सी चाट रहा है। करा-कराया सब नष्ट कर रहा हो उसको बोलते हैं कर्मलेढ़ी। अगर हम कर्मलेढ़ी हो जाते तो डीसा और अमदावाद में कितना अंतर है? और हम तो शादीशुदा थे, 7 साल में सातों बार घर जाकर आ सकते थे बिना आज्ञा लिये.... 70 बार जाते तो भी गुरुजी कहाँ रोकते? लेकिन हमने देखा कि अपने मन में या कुटुम्बियों के मन में जो भी आयेगा वैसा करेंगे तो आखिर क्या मिलेगा? ये जन्म मरण से पार नहीं हुए हैं तो उनकी सलाह लेकर हम जन्म-मरण से पार हो जायेंगे? शास्त्र कहता हैः
तन सुखाय पिंजर कियो धरे रैनदिन ध्यान।
तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान।।
शास्त्रानुसारी कर्म किये बना ईश्वर नहीं मिलता तो यूँ सबको मिल जाय ईश्वर ! आस्तिक तो बहुत लोग हैं, श्रद्धालु तो बहुत लोग हैं, फिर उनको अल्लाह, गॉड या ईश्वर क्यों नहीं मिलता! मेरे गुरु जी के आश्रम में ऐसे कई लोग आये। जैसे आई.ए.एस होने के लिए ढाई लाख युवक परीक्षा देते हैं। विभिन्न परीक्षाएँ देते-देते कई छँट जाते हैं, कई पास होते हैं, अंत में उनमें से करीब 1000 ऑफिसरों की पोस्टिंग होती है ऐसा हमने सुना है। ऐसे ही गुरु के द्वार पर कई लोग आते हैं परंतु उनमें से जिनमें ईश्वरप्राप्ति की सच्ची लगन होती है वे गुरु के दैवी कार्यों में, शास्त्रुसारी कर्मों में तत्परता से लगे रहते हैं और परम लक्ष्य को पा लेते हैं।
अपने मन में जैसा आया वैसा निर्णय करके जीव संसार-सागर में बह जाता है। अतः वासना अनुसारी कर्म संसार में भटकाता है और प्रमाण अनुसारी कर्म मोक्ष का हेतु है। अच्छा तो वही लगेगा जो अपने अनुकूल मिल जाय। व्यक्ति अपने विचारों के अनुसार करने लग जाये तो गिरेगा, पतन होगा और गुरु के अनुरूप छलाँग मारी तो उत्थान होगा। अपनी मान्यता के अनुसार एक जन्म नहीं हजार जन्म जीयो, कर करके गिर जाते हैं इसीलिए बोलते हैं शास्त्र के अनुसार कर्म करो।
रामकृष्णदेव ने अपनी मान्यता के अनुसार काली माता को तो प्रकट कर लिया लेकिन काली माता ने कहाः 'ब्रह्मज्ञानी गुरु की शरण जाओ।'
नामदेवजी ने अपनी मान्यतानुसार भगवान विट्ठल को प्रकट कर लिया लेकिन विट्ठल ने कहाः 'विसोबा खेचर के पास जाओ।' भगवान शिव को पार्वतीजी ने अपनी मान्यता के अनुसार पति के रूप में पा लिया लेकिन शिवजी ने कहाः 'गुरु वामदेव जी की शरण जाओ।' यह क्या रहस्य है?प्रमाणभूत है कि गुरुकृपा ही केवलं.... प्रमाणभूत बात मानने पड़ेगी।
मेरी हो सो जल जाय। तेरी हो सो रह जाय।
हमारी जो अहंता, ममता और वासना है वह जल जाये। गुरुजी ! आपकी जो करूणा और ज्ञान प्रसाद है वही रह जाय। तत्परता से सेवा करते हैं तो आदमी की वासनायें नियंत्रित हो जाती हैं और ईश्वरप्राप्ति की भूख लगती है।
प्रमाणभूत है कि जगत नष्ट हो रहा है। संसार का कितना भी कुछ मिल जाये लेकिन परमात्म-पद को पाये बिना इस जीवात्मा का जन्म-मरण का दुःख जायेगा नहीं।
बिनु रघुबीर पद जिय की जरनी न जाई।
जो प्रमाणभूत बात है उसको पकड़ लेना चाहिए और जीवन सफल बनाना चाहिए।

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शनिवार, अक्टूबर 08, 2011

अमृतवर्षा की रात्रि : शरद पूर्णिमा 11 अक्टूबर 2011


कामदेव ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि "हे वासुदेव ! मैं बड़े-बड़े ऋषियों, मुनियों तपस्वियों और ब्रह्मचारियों को हरा चुका हूँ। मैंने ब्रह्माजी को भी आकर्षित कर दिया। शिवजी की भी समाधि विक्षिप्त कर दी। भगवान नारायण ! अब आपकी बारी है। आपके साथ भी मुझे खिलवाड़ करना है तो हो जाय दो-दो हाथ ?"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः "अच्छा बेटे ! मुझ पर तू अपनी शक्ति का जोर देखना चाहता है ! मेरे साथ युद्ध करना चाहता है !तो बता, मेरे साथ तू एकांत में आयेगा कि मैदान में आयेगा ?"
एकांत में काम की दाल नहीं गली तो भगवान ने कहाः "कोई बात नहीं। अब बता, तुझे किले में युद्ध करना है कि मैदान में? अर्थात् मैं अपनी घर-गृहस्थी में रहूँ, तब तुझे युद्ध करना है कि जब मैं मैदान में होऊँ तब युद्ध करना है ?"
बोलेः महाराज ! जब युद्ध होता है तो मैदान में होता है। किले में क्या करना !
भगवान बोलेः "ठीक है, मैं तुझे मैदान दूँगा। जब चन्द्रमा पूर्ण कलाओं से विकसित हो, शरद पूनम की रात हो, तब तुझे मौका मिलेगा। मैं ललनाएँ बुला लूँगा।"
शरद पूनम की रात आयी और श्रीकृष्ण ने बजायी बंसी। बंसी में श्रीकृष्ण ने 'क्लीं' बीजमंत्र फूँका। क्लीं बीजमंत्र फूँकने की कला तो भगवान श्रीकृष्ण ही जानते हैं। यह बीजमंत्र बड़ा प्रभावशाली होता है।
श्रीकृष्ण हैं तो सबके सार और अधिष्ठान लेकिन जब कुछ करना होता है न, तो राधा जी का सहारा ढूँढते हैं। राधा भगवान की आह्लादिनी शक्ति माया है।
भगवान बोलेः "राधे देवी ! तू आगे-आगे चल। कहीं तुझे ऐसा न लगे कि ये गोपिकाओं में उलझ गये, फँस गये। राधे ! तुम भी साथ में रहो। अब युद्ध करना है। काम बेटे को जरा अपनी विजय का अभिमान हो गया है। तो आज उसके साथ दो दो हाथ होने हैं। चल राधे तू भी।"
भगवान श्रीकृष्ण ने बंसी बजायी, क्लीं बीजमंत्र फूँका। 32 राग, 64 रागिनियाँ... शरद पूनम की रात... मंद-मंद पवन बह रहा है। राधा रानी के साथ हजारों सुंदरियों के बीच भगवान बंसी बजा रहे हैं। कामदेव ने अपने सारे दाँव आजमा लिये। सब विफल हो गया।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः
"काम ! आखिर तो तू मेरा बेटा ही है !"
वही काम भगवान श्रीकृष्ण का बेटा प्रद्युम्न होकर आया।
कालों के काल, अधिष्ठानों के अधिष्ठान तथा काम-क्रोध, लोभ मोह सबको सत्ता-स्फूर्ति दने वाले और सबसे न्यारे रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण को जो अपनी जितनी विशाल समझ और विशाल दृष्टि से देखता है, उतनी ही उसके जीवन में रस पैदा होता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन के विध्वंसकारी, विकारी हिस्से को शांति, सर्जन और सत्कर्म में बदल के, सत्यस्वरूप का ध्यान् और ज्ञान पाकर परम पद पाने के रास्ते सजग होकर लग जाये तो उसके जीवन में भी भगवान श्रीकृष्ण की नाईं रासलीला होने लगेगी। रासलीला किसको कहते हैं ? नर्तक तो एक हो और नाचने वाली अनेक हों, उसे रासलीला कहते हैं। नर्तक एक परमात्मा है और नाचने वाली वृत्तियाँ बहुत हैं। आपके जीवन में भी रासलीला आ जाय लेकिन श्रीकृष्ण की नाईं नर्तक अपने स्वरूप में, अपनी महिमा में रहे और नाचने वाली नाचते-नाचते नर्तक में खो जायें और नर्तक को खोजने लग जायें और नर्तक उन्हीं के बीच में, उन्हीं के वेश में छुप जाय-यह बड़ा आध्यात्मिक रहस्य है।
ऐसा नहीं है कि दो हाथ-पैरवाले किसी बालक का नाम कृष्ण है। यहाँ कृष्ण अर्थात् कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। जो कर्षित कर दे, आकर्षित कर दे, आह्लादित कर दे, उस परमेश्वर ब्रह्म का नाम 'कृष्ण' है। ऐसा नहीं सोचना कि कोई दो हाथ-पैरवाला नंदबाबा का लाला आयेगा और बंसी बजायेगा तब हमारा कल्याण होगा, ऐसा नहीं है। उसकी तो नित्य बंसी बजती रहती है और नित्य गोपिकाएँ विचरण करती रहती हैं। वही कृष्ण आत्मा है, वृत्तियाँ गोपिकाएँ हैं। वही कृष्ण आत्मा है और जो सुरता है वह राधा है। 'राधा'..... उलटा दो तो 'धारा'। उसको संवित्, फुरना और चित्तकला भी बोलते हैं।
काम आता है तो आप काममय हो जाते हो, क्रोध आता है तो क्रोधमय हो जाते हो, चिंता आती है तो चिंतामय हो जाते हो, खिन्नता आती है तो खिन्नतामय हो जाते हो। नहीं,नहीं। आप चित्त को भगवदमय बनाने में कुशल हो जाइये। जब भी चिंता आये तुरंत भगवदमय। जब भी काम, क्रोध आये तुरंत भगवदमय। यही तो पुरुषार्थ है। पानी का रंग कैसा ? जैसा मिलाओ वैसा। चित्त जिसका चिंतन करता है, जैसा चिंतन करता है, चिदघन चैतन्य की वह लीला वैसा ही प्रतीत कराती है। दुश्मन की दुआ से डर लगता है और सज्जन की गालियाँ भी मीठी लगती हैं। चित्त का ही तो खेल है ! भगवदभाव से प्रतिकूलताएँ भी दुःख नहीं देतीं और विकारी दृष्टि से अनुकूलता भी तबाह कर देती है। विकारी दृष्टि विकार और विषाद में गिरा देती है।
शरद पूर्णिमा की रात्रि का विशेष महत्त्व है। इस रात को चन्द्रमा की किरणों से अमृत-तत्त्व बरसता है। चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर शीतलता, पोषकशक्ति एवं शांतिरूपी अमृतवर्षा करता है।
आज की रात्रि चन्द्रमा पृथ्वी के बहुत नजदीक होता है और उसकी उज्जवल किरणें पेय एवं खाद्य पदार्थों में पड़ती हैं तो उसे खाने वाला व्यक्ति वर्ष भर निरोग रहता है। उसका शरीर पुष्ट होता है। भगवान ने भी कहा हैः
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।
'रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ।' (गीताः15.13)
आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो चन्द्र का मतलब है शीतलता। बाहर कितने भी परेशान करने वाले प्रसंग आयें लेकिन आपके दिल में कोई फरियाद न उठे। आप भीतर से ऐसे पुष्ट हों कि बाहर की छोटी मोटी मुसीबतें आपको परेशान न कर सकें।
शरद पूर्णिमा की शीतल रात्रि में (9 से 12 बजे के बीच) छत पर चन्द्रमा की किरणों में महीन कपड़े से ढँककर रखी हुई दूध-पोहे अथवा दूध-चावल की खीर अवश्य खानी चाहिए। देर रात होने के कारण कम खायें, भरपेट न खायें, सावधानी बरतें। रात को फ्रिज में रखें या ठंडे पानी में ढँक के रखें। सुबह गर्म करके उपयोग कर सकते हैं। ढाई तीन घंटे चन्द्रमा की किरणों से पुष्ट यह खीर पित्तशामक, शीतल, सात्त्विक होने के साथ वर्ष भर प्रसन्नता और आरोग्यता में सहायक सिद्ध होती है। इससे चित्त को शांति मिलती है और साथ ही पित्तजनित समस्त रोगों का प्रकोप भी शांत होता है।
इस रात को हजार काम छोड़कर 15 मिनट चन्द्रमा को एकटक निहारना। एक आध मिनट आँखें पटपटाना। कम से कम 15 मिनट चन्द्रमा की किरणों का फायदा लेना, ज्यादा करो तो हरकत नहीं। इससे 32 प्रकार की पित्त संबंधी बीमारियों में लाभ होगा, शांति होगी। और फिर ऐसा आसन बिछाना जो विद्युत का कुचालक हो, चाहे छत पर चाहे मैदान में। चन्द्रमा की तरफ देखते-देखते अगर मौज पड़े तो आप लेट भी हो सकते हैं। श्वासोच्छवास के साथ भगवन्नाम और शांति को भरते जायें, निःसंकल्प नारायण में विश्रान्ति पायें। ऐसा करते-करते आप विश्रान्ति योग में चले जाना। विश्रांति योग... भगवदयोग.... अंतरंग जप करते हुए अपने चित्त को शांत, मधुमय, आनंदमय, सुखमय बनाते जाना। हृदय से जपना प्रीतिपूर्वक। आपको बहुत लाभ होगा। कितना लाभ होगा, यह माप सकें ऐसा कोई तराजू नहीं है। वह तराजू आज तक बनी नहीं। ब्रह्माजी भी बनायें तो वह तराजू टूट जायेगा।
जिनको नेत्रज्योति बढ़ानी हो वे शरद पूनम की रात को सुई में धागा पिरोने की कोशिश करें। जिनको दमे की बीमारी हो वे नजदीक के किसी आश्रम या समिति से सम्पर्क के साथ लेना। दमा मिटाने वाली बूटी निःशुल्क मिलती है, उसे खीर में डाल देना। जिसको दमा है वह बूटी वाली खीर खाये और घूमे, सोये नहीं, इससे दमे में आराम होता है। दूसरा भी दमा मिटाने का प्रयोग है। अंग्रजी दवाओं से दमा नहीं मिटता लेकिन त्रिफला रसायन 10-10 ग्राम सुबह शाम खाने से एक महीने में दमे का दम निकल जाता है।
इस रात्रि में ध्यान-भजन, सत्संग, कीर्तन, चन्द्रदर्शन आदि शारीरिक व मानसिक आरोग्यता के लिए अत्यन्त लाभदायक है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010

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