संत-सान्निध्य और संत सेवा का फल
तैलंग स्वामी बड़े उच्चकोटि के संत थे।
वे 280 साल तक धरती पर रहे। रामकृष्ण परमहंस ने उनके काशी में दर्शन किये तो बोलेः
''साक्षात् विश्वनाथजी इनके शरीर में निवास करते हैं।" उन्होंने तैलंग स्वामी को 'काशी के सचल विश्वनाथ'
नाम से प्रचारित किया।
तैलंग स्वामी जी का जन्म दक्षिण भारत के
विजना जिले के होलिया ग्राम में हुआ था। बचपन में उनका नाम शिवराम था। शिवराम का
मन अन्य बच्चों की तरह खेलकूद में नहीं लगता था। जब अन्य बच्चे खेल रहे होते तो वे
मंदिर के प्रांगण में अकेले चुपचाप बैठकर एकटक आकाश की ओर या शिवलिंग को निहारते
रहते। कभी किसी वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे ही समाधिस्थ हो जाते। लड़के का रंग-ढंग देखकर माता-पिता को चिंता हुई कि कहीं यह साधु बन गया तो ! उन्होंने उनका विवाह
कराने का मन बना लिया। शिवराम को जब इस बात का पता चला तो वे माँ से बोलेः "माँ ! मैं विवाह नहीं करूँगा, मैं तो साधु
बनूँगा। अपने आत्मा की, परमेश्वर की सत्ता का ज्ञान पाऊँगा, सामर्थ्य पाऊँगा।" माता-पिता के अति आग्रह करने पर वे बोलेः "अगर आप लोग मुझे तंग करोगे तो फिर कभी मेरा मुँह नहीं देख
सकोगे।"
माँ ने कहाः "बेटा
! मैंने बहुत परिश्रम करके, कितने-कितने संतों की सेवा करके
तुझे पाया है। मेरे लाल ! जब तक मैं जिंदा रहूँ तब तक तो मेरे
साथ रहो, मैं मर जाऊँ फिर तुम साधु हो जाना। पर इस बात का पता जरूर लगाना कि संत
के दर्शन और उनकी सेवा का क्या फल होता है।"
"माँ
! मैं वचन देता हूँ।"
कुछ समय बाद माँ तो चली गयी भगवान के
धाम और वे बन गये साधु। काशी में जाकर बड़े-बड़े विद्वानों, संतों से सम्पर्क
किया। कई ब्राह्मणों, साधु-संतों से प्रश्न पूछा लेकिन किसी ने ठोस उत्तर नहीं
दिया कि संत-सान्निध्य और संत-सेवा का यह-यह फल होता है। यह तो जरूर बताया कि
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।
परंतु यह पता नहीं चला कि पूरा फल क्या
होता है। इन्होंने सोचा, 'अब क्या करें ?'
किसी साधु ने कहाः "बंगाल में बर्दवान जिले की कटवा नगरी में गंगाजी के तट पर
उद्दारणपुर नाम का एक महाश्मशान है, वहीं रघुनाथ भट्टाचार्य स्मृति ग्रंथ लिख रहे
हैं। उनकी स्मृति बहुत तेज है। वे तुम्हारे प्रश्न का जवाब दे सकते हैं।"
अब कहाँ तो काशी और कहाँ बंगाल, फिर भी
उधर गये। रघुनाथ भट्टाचार्य ने कहाः "भाई ! संत के दर्शन और
उनकी सेवा का क्या फल होता है, यह मैं नहीं बता सकता। हाँ, उसे जानने का उपाय
बताता हूँ। तुम नर्मदा किनारे चले जाओ और सात दिन तक मार्कण्डेय चण्डी का सम्पुट
करो। सम्पुट खत्म होने से पहले तुम्हारे समक्ष एक महापुरुष और भैरवी उपस्थित
होंगे। वे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं ।"
शिवरामजी वहाँ से नर्मदा-किनारे
पहुँचे और अनुष्ठान में लग गये। देखो, भूख होती है तो आदमी परिश्रम करता है और
परिश्रम के बाद जो मिलता है न, वह पचता है। अब आप लोगों को ब्रह्मज्ञान की तो भूख
है नहीं, ईश्वरप्राप्ति के पुरुषार्थ करना नहीं है तो कितना सत्संग मिलता है, उससे
पुण्य तो हो रहा है, फायदा तो हो रहा है लेकिन साक्षात्कार की ऊँचाई नहीं आती।
हमको भूख थी तो मिल गया गुरुजी का प्रसाद।
अनुष्ठान का पाँचवाँ दिन हुआ तो भैरवी
के साथ एक महापुरुष प्रकट हुए। बोलेः "क्या चाहते हो ?"
शिवरामजी प्रणाम करके बोलेः "प्रभु ! मैं यह जानना चाहता
हूँ कि संत के दर्शन, सान्निध्य और सेवा का क्या फल होता है ?"
महापुरुष बोलेः "भाई
! यह तो मैं नहीं बता सकता हूँ।"
देखो, यह हिन्दू धर्म की कितनी सच्चाई
है ! हिन्दू धर्म में निष्ठा रखने वाला कोई भी गप्प नहीं मारता कि
ऐसा है, ऐसा है। काशी में अनेक विद्वान थे, कोई गप्प मार देता !
लेकिन नहीं, सनातन धर्म में सत्य की महिमा है। आता है तो बोलो, नहीं आता तो नहीं
बोलो। शिवस्वरूप महापुरुष बोलेः "भैरवी ! तुम्हारे झोले में
जो तीन गोलियाँ पड़ी हैं वे इनको दे दो।"
फिर वे शिवरामजी को बोलेः "इस नगर के राजा के यहाँ संतान नहीं है। वह इलाज कर-करके थक गया
है। ये तीन गोलियाँ उस राजा की रानी को खिलाने से उसको एक बेटा होगा, भले उसके
प्रारब्ध में नहीं है। वही नवजात शिशु तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देगा।"
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