काँटे से काँटा निकालो
जगत के जो महान पुरूष हो गये हैं, जो सादे रहे हैं, जिन्होंने बड़ी-बड़ी हवेलियाँ नहीं बनायी, बड़े-बड़े मकान नहीं बनाये, जो अपनी आवश्यकताएँ कम करके जी पाये उन्होंने ही जगत को भक्तिशास्त्र दिया है। उन्होंने ही विश्व को प्रेमाभक्ति का दान दिया है। उन्होंने ही विश्व को दर्शनशास्त्र दिया है।
भगवान वेदव्यासजी महाराज आठ घण्टे ध्यान में रहते थे। बाहर की चीजों में समय नहीं लगाते थे। ध्यान से उठते, भूख लगती तो बद्रिकाश्रम में सामने कुछ बेर (बदरी) के पेड़ थे, बेर लेकर खा लेते। इसी पर से उनका नाम बादरायण भी है। उन्होंने ऐसे-ऐसे ग्रन्थ बनाये कि अभी तक उनकी बराबरी करने वाला विश्व में कोई पैदा नहीं हुआ। सादा जीवन था उनका।
भक्तमाल के रचयिता नाभा जी महाराज का जीवन भी बहुत सादा, सरल था। रामायण के रचयिता तुलसीदास जी का जीवन सरल था।
विदेशों में भी कई अच्छे-अच्छे विद्वान, तत्त्वचिंतक हो गये जिनका जीवन बहुत सादा था। कोई-कोई तो एक छोटे-से बक्से में जीवन गुजारने वाले भी थे। उन्होंने वहाँ के लोगों को कैसे-कैसे शास्त्र दिये !
वैशेषिक दर्शन के रचयिता कणाद मुनि खेतों में गिरे हुए कण चुनकर गुजारा चला लेते थे। इसी से उनका नाम कणाद पड़ा। शुद्ध बुद्धि से चिन्तन करते-करते दूर के, देश-देशान्तर के विद्वान उनके दर्शन करने आते थे। तब वहाँ के राजा की आँख खुली कि हमारे राज्य के अरण्य में ऐसे महान कणाद मुनि रहते हैं जो एक-एक कण चुनकर गुजारा कर लेते हैं।
सुवर्णमुद्राओं का थाल भरकर, फल-फ्रूट, सूखे मेवे, मिठाई आदि के टोकरे भरकर राजा उनके पास गयाः
"महाराज ! स्वीकार करो और मुझे क्षमा करो। आप जैसी महान् विभूति मेरे राज्य में..... और मैंने आपकी सँभाल नहीं ली।"
"कोई बात नहीं, क्षमा है। मैं प्रसन्न हूँ।"
"महाराज ! मेरी दूसरी प्रार्थना यह है कि आप मेरे महल में पधारो। महल का एक भाग आपके लिए खाली करवा दिया है। दास-दासियाँ आपकी चाकरी में होंगी। बादाम रोगन लगाकर चंपी होगी, गाय का दूध होगा, घी-मक्खन होगा, नौकर-चाकर होंगे, शाम को सैर करने के लिए रथ होगा। रात को अलग शयनकक्ष होगा। माताजी के लिए रसोईघर भी बढ़िया होगा।"
कणाद मुनि बोलेः " एक मैंने तुम्हारी मान ली। अब तुम मेरी बात मान लो।"
"महाराज ! आज्ञा कीजिए।" राजा खुश होकर बोला।
"अभी चले जाओ और फिर कभी न आना।"
"महाराज ! क्यों आप नाराज हैं ?"
"जब तुम्हारे दास-दासियों से पैरचम्पी करवाऊँगा, प्रजा का शोषण करके बनाये हुए महलों में रहूँगा तो ईश्वर के गीत गाऊँगा कि तुम्हारे गीत गाऊँगा और चापलूसी करूँगा ? इसलिए हमारी आवश्यकताएँ हमें नहीं बढ़ानी हैं कि राजसी वस्तुओं की लाचारी करें और महलों में रहें।"
वास्तव में अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता ही है। भीष्म पितामह जैसे दुर्योधन के अन्न से प्रभावित होकर पांडवों के विपक्षी बन बैठे।
रहन-सहन का भी चित्त पर प्रभाव पड़ता है। आपके घर में अगर Luxurious Life मौज-शौक का, ऐश आराम का, विलासी जीवन है तो आपके कुटुम्बीजनों का मन नीचे के केन्द्रों में रहेगा। छोटी-मोटी असुविधा या छोटी-मोटी बात पर जल्दी अशांत, उद्विग्न होने लगेंगे।
संसार की चीजें तुमसे छुड़वाई जायेंगी। ये तुमसे छुड़वाई जाएँ उससे पहले इनकी आसक्ति छुड़वाने का मैं प्रयत्न कर रहा हूँ। इन चीजों के लिए रोना पड़े इससे ये चीजें तुम्हारे लिए रोती रहें ऐसे तुम महान बन जाओ, ऐसी आसाराम की आशा है।
लोग संसार की चीजों में प्रीति करते हैं। जो प्रीति प्रियतम परमात्मा में लगाने के लिए है वह प्रीति व्यक्ति में, चीज-वस्तु में, सम्बन्धों में लगाता है उसका आंतर-सुख क्षीण हो जाता है। जो बाहर की प्रीति को भीतर ले जाकर भीतर की प्रीति विकसित करता है और विश्व में बाँटता है वह प्रेमपात्र हो जाता है।
वास्तव में आप ईश्वर से विभक्त नहीं हैं, दूर नहीं हैं लेकिन अभागी इन्द्रियों के साथ, अभागे शरीर के साथ, अभागे विषयों के साथ इतना चिपक जाते हैं कि आप ईश्वर से विभक्त न होते हुए भी विभक्त जैसा ही जीवन बिता रहे हैं।
आप ईश्वर से अलग नहीं हो सकते हैं, फिर भी इन अभागे आकर्षणों के कारण आपको लगता है कि ईश्वर कोई दूर देश की चीज है, ईश्वर कोई मरने के बाद मिलने वाली चीज है अथवा ईश्वर कोई बड़ी तपस्या, मजदूरी करने के बाद मिलने वाली चीज है।
हकीकत में ईश्वर के लिए तपस्या नहीं करनी पड़ती, ईश्वर के लिए मजदूरी नहीं करनी पड़ती, ईश्वर के लिए इन्तजार भी नहीं करना पड़ता, फिर भी इन्तजार करना पड़ता है, फिर भी मजदूरी करनी पड़ती है, समय का भोग देना पड़ता है। इसका कारण यह है कि हमारा प्रेम बाह्या चीजों में अटक गया है। इस गलती को दूर करने के लिए भजन करना पड़ता है। आसक्ति हटाने के लिए तपस्या करनी पड़ती है। ईश्वर को पाने के लिए तप करने की जरूरत नहीं है फिर भी तप करने की जरूरत है, ध्यान करने की जरूरत है क्योंकि ध्यान गैर जगह चला गया है, वहाँ से हटाने के लिये यहाँ लाना पड़ता है। गैर चीजों के लिए तप रहे हैं इसलिए चलो, भगवान के लिए ही तप करो। काँटे से काँटा निकालो। तुम्हारे शरीर में जान बूझकर काँटा चुभाने की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन पहले अनजाने में जो चुभ गया है उसे निकालने के लिए दूसरा काँटा चुभाना पड़ता है। नहीं तो, वह प्रियतम और मजदूरी करवा कर मिले ? प्राणी मात्र का परम सुहृद और हमें तपा-तपाकर फिर मिले ? 'सुहृदं सर्वभूतानां' प्राणीमात्र का परमहितैषी है, परम सुहृद हूँ ऐसा भगवान स्वयं कहते हैं। जो सुहृद है, परम मित्र है वह तपा-तपाकर मिले, भूखा मारकर, उपवास कराकर मिले तो वह सुहृद कैसा ? मित्र कैसा ? ऐसा अन्याय वह करता है ?
वास्तव में वह भूखा नहीं मरवाता। हमारी योग्यताएँ खा-खाकर क्षीण हो गईं, अजीर्ण की बीमारी लगी इसलिए उपवास करो। आसक्ति हो गयी इसलिए त्याग करो। मोह हो गया इसलिए एकान्त में जाओ। बहिर्मुख हो गये इसलिए अंतर्मुख हो जाओ। यह सब गलतियों को निवृत्त करने के लिए है।
कपड़ों की पिटाई क्यों करते हो ? कपड़ों से तुम्हारी दुश्मनी है ? नहीं... कपड़े मैले हो गये, उनमें गन्दगी हो गई इसलिए सोडाखार, साबुन आदि डालकर पिटाई करते हैं ताकि साफ सुथरे हो जायें, उनमें केसूड़े का रंग लग जाय।
ऐसे ही अन्तःकरण को जप तप धारणा ध्यान करा के आसक्ति का कचरा निकाल देते हैं ताकि अन्तःकरण में चैतन्य का रंग बराबर प्रकट हो जाय।
जो लोग अपने मन का, इन्द्रियों का थोड़ा संयम कर देते हैं उनका आत्मबल जगता है। बाहर की चीजों के लिए जितना-जितना आग्रह टूटता जाता है उतना-उतना प्रेम व्यापक होता जाता है।
लेबल: asaramji, ashram, bapu, guru, hariom, india, saint, sant, sant Asaramji bapu
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ