गुरुवार, जुलाई 08, 2010

कोई अकल मस्त, कोई शक्ल मस्त

जो लोग आपको ईश्वर के मार्ग ले जाते हैं वे ही लोग आपको रोकेंगे, यदि आपकी साधना की गाड़ी ने जोर पकड़ा तो। अगर वे लोग नहीं रोकते अथवा उनके रोकने से आप नहीं रुके तो देवता लोग कुछ न कुछ प्रलोभन भेजेंगे। अथवा यश आ जायगा, रिद्धि-सिद्धि आ जायेगी, सत्य-संकल्प सिद्धि आ जायगी। महसूस करोगे कि मैं जो संकल्प करता हूँ वह पूर्ण होने लगता है।
अपने आश्रम के एक साधक ने पंचेड़ (रतलाम) के आश्रम में रहकर साठ दिन का अनुष्ठान किया। छोटी-मोटी कुछ इच्छा हुई और जरा सा ऐसा हो गया। उसने गाँठ बाँध ली कि मेरे पास सत्य-संकल्प सिद्धि आ गयी। अरे भाई ! इतने में ही संतुष्ट हो गये ? साधना में रुक गये ?

सितारों से आगे जहाँ कुछ और है।
इश्क के इम्तीहाँ कुछ और हैं।।
आगे बढ़ो। यह तो केवल शुरूआत है। थोड़ी सी संसार की लोलुपता कम होने से अन्तःकरण शुद्ध होता है। अन्तःकरण शुद्ध होता है तो कुछ-कुछ आपके संकल्प फलित होते हैं। संकल्प फलित हुआ और उसके भोग में आप पड़ गये तो आप प्रेम में पड़ जायेंगे। अगर संकल्प-फल के भोग में नहीं पड़े और परमात्मा को ही चाहा तो आप प्रेम से चढ़ जाओगे। प्रेम में पड़ना एक बात है और प्रेम में चढ़ना कोई निराली ही बात है।


थोड़ी बहुत साधना करने से पुण्य बढ़ते हैं, सुविधाएँ आ जाती है, जो नहीं बुलाते थे वे बुलाने लगेंगे, किन्तु मनुष्य जन्म केवल इसीलिए नहीं है कि लोग मान से देखने लग जाएँ। जिसको वे देखेंगे वह (देह) भी तो स्मशान में जलकर खाक हो जायेगा भाई ! मनुष्य जन्म इसलिए भी नहीं है कि बढ़िया मकान मिल जाय रहने को।


'हमें तो ठाठ से रहना है.....।'


यह तो अहंकार पोसने की बात है। न ठाठ से रहना ठीक है न बाट से रहना ठीक है, जिससे रहने का विचार उत्पन्न होता है वह अन्तःकरण जिससे संचालित होता है उस तत्त्व को अपने आत्मा के रूप में जानना अर्थात् आत्म-साक्षात्कार करना ही ठीक है, बाकी सब मन की कल्पना है। स्वामी रामतीर्थ ने बहुत बढ़िया बात कही। वे बोलते हैं-


कोई हाल मस्त, कोई माल मस्त, कोई तूती मैना सूए में।
कोई खान मस्त, पहरान मस्त, कोई राग रागिनी दोहे में।।

कोई अमल मस्त, कोई रमल मस्त, कोई शतरंज चौपड़ जूए में।
इक खुद मस्ती बिन और मस्त, सब पड़े अविद्या कूए में।।




कोई अकल मस्त, कोई शक्ल मस्त, कोई चंचलताई हांसी में।
कोई वेद मस्त, कितेब मस्त, कोई मक्के में कोई काशी में।।
कोई ग्राम मस्त, कोई धाम मस्त, कोई सेवक में कोई दासी में।
इक खुद मस्ती बिन और मस्त, सब बंधे अविद्या फाँसी में।।

कोई पाठ मस्त, कोई ठाट मस्त, कोई भैरों में, कोई काली में।
कोई ग्रंथ मस्त, कोई पन्थ मस्त, कोई श्वेत पीतरंग लाली में।।
कोई काम मस्त, कोई खाम मस्त, कोई पूरन में, कोई खाली में।
इक खुद मस्ती बिन और मस्त सब बंधे अविद्या जाली में।।

कोई हाट मस्त, कोई घाट मस्त, कोई बन पर्वत ऊजारा1 में।
कोई जात मस्त, कोई धर्म मस्त, कोई मसजिद ठाकुरद्वारा में।
इक खुद मस्ती बिन और मस्त, सब बहे अविद्या धारा में।।

कोई साक2 मस्त, कोई खाक मस्त, कोई खासे में कोई मलमल में।
कोई योग मस्त, कोई भोग मस्त, कोई स्थिति में, कोई चलचल में।।
कोई ऋद्धि मस्त, कोई सिद्धि मस्त, कोई लेन देन की कलकल में।
इक खुद मस्ती बिन और मस्त, सब फँसे अविद्या दलदल में।।
कोई ऊर्ध्व मस्त, कोई अधः मस्त, कोई बाहर में कोई अंतर में।
कोई देश मस्त, विदेश मस्त, कोई औषध में, कोई मन्तर में।।
कोई आप मस्त, कोई ताप मस्त, कोई नाटक चेटक तन्तर में।
इक खुद मस्ती बिन, और मस्त, सब फँसे अविद्या जन्तर में।।
कोई शुष्ट3 मस्त, कोई तुष्ट4 मस्त, कोई दीरध में कोई छोटे में।
कोई गुफा मस्त, कोई सुफा मस्त, कोई तूंबे में कोई लोटे में।।
कोई ज्ञान मस्त, कोई ध्यान मस्त, कोई असली में कोई खोटे में।
इक खुद मस्ती बिन, और मस्त, सब रहे अविद्या टोटे में।।

1 उजाड़ बियावान 2 रिश्तेदारी 3 खाली 4 प्रसन्नचित्त



ऐसा रहने का हो, ऐसा खाने का हो, ऐसी इज्जत-आबरू हो ऐसा जीवन हो तो मजा है। I am very happy. I am very lucky.


अगले जन्म या इस जन्म का थोड़ा बहुत ध्यान-भजन-जप-तप-पुण्य, जाने अनजाने कोई एकाग्रता फली है तो आप जरा सा सुखी हैं, ऐहिक जगत में सामान्य जीवन जीनेवालों से आपका जीवन थोड़ा ऐश-आरामवाला होगा, जरा ठीक होगा। इसमें अगर आप सन्तुष्ट होकर बैठ गये, जीवन की सार्थकता समझकर बैठ गये तो आप अपने पैर पर कुल्हाड़ा मार रहे हैं, आप कृष्ण का वरण नहीं करना चाहते हैं।


रुक्मिणी के पास राजा की रानी होने का जीवन सामने था। शिशुपाल जैसे राजा थे जो शिशुओं के, बच्चों के पालन-पोषण में लगे रहें, स्त्री का आज्ञा मानें, स्त्री के लिए छटपटायें ऐसे कामुक लोग रुक्मिणी को मिल रहे थे। प्रेम में पड़ने के लिए उसके पास पूरा माहौल था। लेकिन रुक्मिणी जी प्रेम में नहीं पड़ी। वह प्रेम में चढ़ना चाहती थी।


ऐसे ही तुम्हारी बुद्धिमाती रुक्मिणी संसार की सुविधाओं में अगर तन्मय हो जाती है तो वह रुक्मिणी शिशुपाल के हाथ चली जायगी।


अगर वह बुद्धिरूपी रुक्मिणी कृष्ण को ही वरना चाहती है, आत्मा को ही वरना चाहती है तो फिर ब्रह्मवेत्ता को खोजेगी, छुपकर पत्र देगी। बुद्धि हृदयपूर्वक प्रार्थना करेगी और ब्रह्मवेत्तारूपी ब्राह्मण को पत्र देगी किः 'हे गुरू महाराज ! मुझे तो चारों ओर से गिराने वाले, घसीटने वाले हैं। आप मेरा सन्देशा पहुँचा दो। मुझे भगवान ही वरें, और कोई न वरे। मैं भगवान के योग्य हूँ और भगवान मेरे लिये योग्य वर हैं।


सच पूछो तो प्राणीमात्र का योग्य वर तो परमात्मा है, बाकी सब गुड्डा-गुड्डी है।


रुक्मिणी का दूसरा अर्थ है प्रकृति। प्रकृति का योग्य वर तो पुरूष ही है।


प्रकृति के देह को जब हम 'मैं' मानते हैं तो हम सब दाढ़ी-मूँछवाले रूक्मिणी हैं। कोई दाढ़ी-मूँछवाली रुक्मिणी तो कोई कम दाढ़ी-मूँछवाली रुक्मिणी तो कोई बिना दाढ़ी-मूँछवाली रुक्मिणी तो कोई चूड़ियों वाली रुक्मिणी। हम लोग सब रुक्मिणी हैं अगर प्राकृतिक शरीर को 'मैं' मानकर प्राकृतिक पदार्थ पर ही आधारित रहते हैं तो।
रुक्मिणी को अगर बुद्धि की जगह पर रखें तो जिसकी बुद्धि संसार का सुख चाहती है वह प्रेम में पड़ती है और जिसकी बुद्धि आत्मसुख चाहती है, शुद्ध सुख चाहती है वह रुक्मिणी कृष्ण को वरती है।


अब, हमारी रुक्मिणी कहाँ है ? हमारी बुद्धिरूपी रुक्मिणी सुख-सुविधाओं में तन्मय हो जाती है कि सुखों को नश्वर समझकर, सापेक्ष समझकर, कल्पित समझकर सत्य की खोज करना चाहती है ?


बुद्धि अगर सूक्ष्म है तो सत्य की खोज करेगी। उसमें विवेक-वैराग्य होगा, मोक्ष की इच्छा होगी। अगर बुद्धि सूक्ष्म है तो आत्म विचार करना चाहिए। बुद्धि आत्म-ध्यान के भी योग्य नहीं है, सूक्ष्म नहीं है, पवित्र नहीं है तो फिर भी भगवान के गुणानुवाद गाते हुए श्रीमद् भगवद गीता, श्रीमद् भागवत आदि ग्रन्थों का पारायण करना चाहिए, अवलोकन करना चाहिए। अगर उन ग्रंथों को भी नहीं समझ सकते हैं तो कथा और सत्संग के द्वारा बुद्धि को सूक्ष्म बनाना चाहिए ताकि यह बुद्धिरूपी रुक्मिणी कृष्ण को ही वरे और कृष्ण आकर रुक्मिणी का हाथ पकड़कर अपनी बना लें।


अपनी बुद्धिरूपी रुक्मिणी को ब्रह्मरूपी कृष्ण हाथ पकड़कर अपनी बना लें। जब परमात्मा तुम्हारी बुद्धि को अपनी बना लेंगे तो वह तुम्हारी बुद्धि मन की दासी नहीं बनेगी, इन्द्रियों की गुलाम नहीं बनेगी। जो बुद्धि मन की दासी या इन्द्रियों को गुलाम नहीं बनती। उस बुद्धि बाई के आगे मन-इन्द्रिया आज्ञाकारी चाकर हो जाते हैं। सारे सुख-सुविधाएँ उसके आगे मँडराते हैं। बुद्धि उसका यथायोग्य थोड़ा-बहुत उपयोग करके बाकी का समय बचाकर अपने ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण में खेलने लगती है।


श्रीकृष्ण जब रुक्मिणी का हाथ पकड़ लेते हैं तब एक तेजपुञ्ज प्राप्त होता है। श्रीमद् भागवत की कथा कहती है कि रुक्मिणी जब श्रीकृष्ण को प्राप्त हुई तब समय पाकर तेजस्वी पुत्र प्रद्युम्न का जन्म हुआ। साधक की बुद्धि को जब परमात्मा पकड़ लेते हैं तब बुद्धि में निर्मल तेज प्रकट होता है।


सच्चे भक्तो को सोचने की फुरसत नहीं होती कि लोग क्या कहेंगे। जो लोग अधिक वाचाल होते हैं, अधिक बोलते हैं, चें.....चें, करते रहते हैं वे आध्यात्मिक मार्ग में जल्दी से सफल नहीं होते। रुक्मिणी पत्र में लिखती है कि मैं अपने कुल देवी के दर्शन करने जाऊँगी, व्रत रखूँगी और हे नाथ ! गाँव के बाहर कुलदेवी के मंदिर में जाते समय आप मेरा हाथ पकड़ लेना।


ऐसे ही हम साधक अपने व्यवहार, अपने मोह-ममता में सम्बन्धों से परे, कुछ दूरी पर चले जायें और आराधना, उपासना करें उस समय हे देव ! हे परब्रह्म परमात्मा ! हमारी बुद्धिरूपी रुक्मिणी का हाथ पकड़ोगे तो आसानी हो जायेगी।

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1 टिप्पणियाँ:

यहां मंगलवार, 13 जुलाई 2010 को 1:13:00 am IST बजे, Blogger narayanhari ने कहा…

hariom bahut sadhuwad hariom

 

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