असली 'मैं' का साक्षात्कार !
जप, तप, व्रत, उपवास, ध्यान, भजन, योग आदि साधन अगर सत्संग के बिना किये जायें तो उनमें रस नहीं आता। वे तो साधन मात्र हैं। सत्संग के बिना वे व्यक्तित्व का सिंगार बन जाते हैं।
जब तक ब्रह्मवेत्ता महापुरूष का जीवंत सान्निध्य इन साधनों का सुहावना नहीं बनाता तब तक ये साधन श्रम मात्र रह जाते हैं। ये साधन सब अच्छे हैं फिर भी सत्संग के बिना रसमय नहीं बनते। सत्संग इनमें रस लाता है।
रसौ वै सः।
रस स्वरूप परमात्मा का बोध ब्रह्मवेत्ता अनुभवनिष्ठ महापुरूष की वाणी का शरण लिए बिना नहीं हो सकता। अकेले साधन-भजन करने से थोड़ी-बहुत सात्त्विकता आ जाती है, सच्चाई आ जाती है, साथ ही साथ सात्त्विकता और सच्चाई का अहं भी उतना ही आ जाता है। साधना का अहं खड़ा हो जाता है। अहं के अनुरूप घटना घटती है तो सुख होता है। अहं के प्रतिकूल घटना घटती है तो सुख होता है। अहं के प्रतिकूल घटना घटती है तो दुःख होता है। सुखी और दुःखी होने वाले हम मौजूद रहे।
सत्संग से क्या लाभ होता है ? हमारा माना हुआ जो परिच्छिन्न व्यक्तित्व है, जीव का अहं है उसका पोल खुल जाता है। जैसे प्याज की पर्तें उतारते जाओ तो भीतर से कुछ ठोस प्याज जैसा निकलेगा नहीं। केवल पर्तें ही पर्तें है। ऐसे ही जब तक सत्संग नहीं मिलता तब तक 'मैं' का ठोसपना दिखता है। सत्संग मिलते ही 'मैं' की पर्तें हटती हैं और अपने चिदाकाश स्वरूप का दीदार हो जाता है। जीव मुक्ति का अनुभव कर लेता है।
एक साधु ने 'कलिदोषनिवारक' ग्रन्थ में पढ़ा कि साढ़े तीन करोड़ नाम जपने से सद्योमुक्ति होती है। उसने अनुष्ठान शुरू किया। साढ़े तीन करोड़ राम नाम का जप कर लिया। कुछ हुआ नहीं। दूसरी बार अनुष्ठान किया। फिर भी सद्योमुक्ति जैसा कुछ नहीं हुआ। जिन सत्पुरूष के द्वारा उस ग्रन्थ की बात सुनी थी उनको जाकर कहाः
"महाराज ! मैंने साढ़े तीन करोड़ जप दो बार किये। कुछ हुआ नहीं।"
तीसरी बार कर। संत ने सूचन किया।
तीसरी बार करने पर भी सद्योमुक्ति का कोई अनुभव नहीं हुआ। उनकी श्रद्धा टूट गई। फिर किसी ब्रह्मवेत्ता के पास गया और अपना हाल बताते हुए कहाः
"स्वामी जी ! सुना था कि साढ़े तीन करोड़ मंत्रजप करने से सद्योमुक्ति होती है। मैंने एक बार नहीं, तीन बार किया। मुझे कोई अनुभव नहीं हुआ।"
"सद्योमुक्ति का मतलब क्या है ?" संत श्री ने पूछा।
"शीघ्र मुक्ति। सद्यो मोक्षप्रदायकः। तुरन्त मुक्ति हो जाती है।"
"वत्स ! तू मनमाना होकर साधना करता था इसलिए अटूट दृष्टि नहीं रही। तू अभी मुक्त है, इसी समय तू मुक्त है। तुझे बाँध सके ऐसी कोई भी परिस्थिति तीनों लोकों में भी नहीं है। तू अभी मुक्त है। तूने जप तो किया लेकिन सत्संग का रंग नहीं लगा। अब सत्संग में बैठकर देख। दीये में तेल तो भर दिया, बाती भी रख दी लेकिन जले हुए दीये के नजदीक नहीं गया। अब सत्संग में बैठ। शान्ति से ध्यानपूर्वक सुन। श्रद्धा के साथ विचार कर। तेरी सद्योमुक्ति है ही। 'मेरी सद्योमुक्ति अब होगी' – ऐसा मत मान। अभी इसी समय, यहीं तेरी सद्योमुक्ति है। हम लोग बड़े में बड़ी गलती यह करते हैं कि साधनों के बल से भगवान को पाना चाहते हैं या मुक्त होना चाहते हैं। साधन करने वाले का व्यक्तित्व बना रहेगा। केवल भगवान की कृपा से भगवान को पाना चाहते हैं तो आलस्य आ जायेगा। अतः तुम्हारा पुरूषार्थ और भगवान की कृपा का समन्वय कर। 'भगवान ऐसे हैं.... वैसे हैं' ऐसी मान्यता मत पकड़। वे जैसे हैं उसी रूप में अपने आप प्रकट हों।"
तुम्हारी धारणा के मुताबिक भगवान प्रकट हों ऐसा चाहोगे तो तुम्हारी धारणा कभी कैसी होगी कभी कैसी होगी। मुसलमान खुदा को चाहेगा तो अपनी धारणा का, वाघरी भगवान को चाहेगा तो अपनी धारणा का, रामानुजाचार्य के भक्त भगवान को चाहेंगे तो अपनी धारणा का, देवी का भक्त अपनी धारणा का चाहेगा, पटेल अपनी धारणा का भगवान चाहेगा, सिंधी अपनी धारणा का झूलेलाल चाहेगा।
तुम्हारी धारणा के भगवान तो तुम्हारी अन्तःकरण की वृत्ति तदनुकूल होगी तो वही होकर दिखेंगे। तुम्हारी वृत्ति माता के आकार की होगी तो भगवान माता के स्वरूप में दिखेंगे, तुम्हारी वृत्ति श्रीरामचन्द्रजी के आकार की होगी तो भगवान रामचन्द्र जी के रूप मे दिखेंगे। तुम्हारी वृत्ति झुलेलाल के आकार की होगी तो भगवान झुलेलाल के स्वरूप में दिखेंगे। ऐसे भगवान दिखेंगे और फिर अन्तर्ध्यान हो जायेंगे।
उन महापुरूष ने साधू को कहाः "तू सत्संग में आ तब तुझे भगवत-रस की प्राप्ति होगी, इसके बिना नहीं होगी।"
यही घटना बिल्ख के सम्राट इब्राहीम के साथ हुई। वह राजपाट छोड़कर भारत में आया और संन्यास ले लिया। मजदूरी करके, लकड़ियाँ बेचकर दो पैसे कमा लेता। एक पैसे से गुजारा करता, एक पैसा बच जाता। जब ज्यादा पैसे इकट्ठे हो जाते तब साधुओं को भोजन करा देता। कहाँ तो बिल्ख का सम्राट और कहाँ लकड़हारा होकर परिश्रम करने वाला फकीर !
इब्राहीम के मन में आया कि, "मैं दान का नहीं खाता। इतना बड़ा राज्य छोड़ा, संन्यासी बना, फिर भी किसी के दान का नहीं खाता हूँ, अपना कमाकर खाता हूँष ऊपर से दान भी करता हूँ। फिर भी मालिक नहीं मिल रहा है, क्या बात है ?" वह प्रार्थना करने लगताः
"हे मेरे मालिक ! हे मेरे प्रभु ! हे भगवान ! हे खुदा ! हे ईश्वर ! मुझे कब मिलोगे ? मैं नहीं जानता कि आप कैसे हो। आप जैसे भी हो, मुझे सन्मार्ग दिखाओ।"
ऐसी प्रार्थना करते-करते ध्यानस्थ होने लगा। अंतर में प्रेरणा मिली कि, "जा ऋषिकेश के आगे। वहाँ अमुक संत हैं उनके पास जा।" बिल्खनरेश वहाँ पहुँच गया और बोलाः
"बाबाजी मैं बिल्ख का सम्राट था। राजपाट छोड़कर फकीर बना हूँ। अभी मेरा अहं नहीं छूटता। मैंने सुना है कि अहं मिटते ही मालिक मिलता है। पहले मैं राजा था ऐसा अहं था। फिर फकीर का अहं घुसा। अहं निकालने के लिए परीश्रम करके खाता हूँ, संग्रह न करके त्याग करता हूँ, बचा हुआ वित्त भंडारे में खर्च कर देता हूँ। पसीना बहाकर अपना अन्न खाता हूँ फिर भी मालिक क्यों नहीं मिलता ?"
बाबाजी ने कहाः "यह अपना खाने वाला" और "पराया खाने वाला" ही अड़चन है। मेरा और तेरा, अपना और पराया जो बनाता है वह अहं ही मालिक के दीदार में अड़चन है।"
सम्राट ने कहाः "महाराज ! मेरा वह अहं आप निकाल दीजिये। इतनी कृपा कीजिये।"
बाबाजी ने कहाः "हाँ, ठीक तू समझा है। अहं है तेरे पास ?"
"हाँ अहं है। वही दुष्ट परेशान कर रहा है।"
"तो देखो, कल प्रभात में चार बजे आ जाना। मैं तेरा अहं ले लूँगा।"
"जी महाराज !"
अनुभव-संपन्न ब्रह्मवेत्ता महापुरूष थे। सिद्धि के ऊँचे शिखर सर किये थे।
इब्राहीम जाने लगा। बाबाजी ने पीछे से कहाः "देख, अहं लाना, पूरा। कहीं आधा छोड़कर नहीं आना।"
इब्राहीम चकित रह गयाः "अहं छोड़कर कहाँ आऊँगा ? वह तो पूरे का पूरा साथ में रहता है।"
दूसरे दिन प्रभात में चार बजे इब्राहीम पहुँच गया बाबाजी के गुफा पर। बाबाजी डण्डा लेकर आये। बड़ी-बड़ी आँखे दिखाते हुए बोलेः "अहं लाया है ?"
"हाँ महाराज ! अहं है ।"
"कहीं छोड़कर तो नहीं आया ?"
"ना महाराज !"
"कहाँ है ?"
"हृदय में रहता है।"
"बैठ। निकाल उसको, मेरे को दिखा, उसको मैं ठीक कर देता हूँ। जब तक अहं को निकालकर मेरे सामने नहीं रखा तब तक उठने नहीं दूँगा। इस डण्डे से सिर फोड़ दूँगा। तू सम्राट था तो उधर था। इधर अभी तेरा कोई नहीं। यहाँ बाबाओं के राज्य की सीमा में आ गया है। सिर फोड़ दूँगा अहं दिये बिना गया तो। देना है न अहं ? तो खोज, कहाँ है अहं ?"
"कैसे खोजूँ अहं को ? वह कहाँ होता है ?"
"अहं कहाँ होता है – ऐसा करके भी खोज। जहाँ होता है वहाँ से निकाल। आज तेरे को नहीं छोड़ूँगा।"
ज्यों केले के पात में पात पात में पात।
त्यों संतन की बात में बात बात में बात।।
कभी साधक का ताड़न करने से काम बन जाता है कभी पुचकार से काम हो जाता है। कभी किसी साधन से कभी किसी साधन से....। ये तो महापुरूष जानते हैं कि कौन से साधक की उन्नति किस प्रकार करनी चाहिए।
युक्ति से मुक्ति होती है, मजदूरी से मुक्ति नहीं होती।
इब्राहीम अहं को खोजते-खोजते अन्तर्मुख होता गया। प्रभात का समय। वातावरण शुद्ध था। बाबाजी की कृपा बरसती रही। मन की भाग दौड़ क्षीण होती गई। एक टक निहारते निहारते आँखें बन्द हुई। चेहरे पर अनुपम शांति छाने लगी। ललाट पर तेज उभरने लगा। डण्डे वाला बाबाजी तो गुफा के भीतर चले गये थे। डण्डा मारना तो था नहीं। जो कुछ भीतर से करना था वह कर दिया। इब्राहीम की सुरता की गति अन्तर्मुखी बना दी।
इब्राहीम को अहं खोजते-खोजते साढ़े चार बजे, पाँच बजे, छः बज गये। बैठा है ध्यानस्थ। बाहर का कोई पता नहीं। श्वासोच्छ्वास की गति मंद होती चली जा रही है।
सूर्योदय हुआ। सूर्य का प्रकाश पहाड़ियों पर फैल रहा है। अपने आत्मा का प्रकाश इब्राहीम के चेहरे पर दिव्य तेज ले आया है। बाबाजी देखकर प्रसन्न हो रहे हैं कि साधक ठीक जा रहा है।
घण्टों के बाद बाबाजी इब्राहीम के पास गयेः
"उठो उठो अब।"
इब्राहीम ने आँख खोली और चरणों में गिर पड़ा।
"अहं दे दो।"
"गुरू महाराज !....."
इब्राहीम के हृदय में भाव उमड़ रहा है लेकिन वाणी उठती नहीं। आँखों से भावविभोर होकर गुरू महाराज को निहार रहा है। विचार स्फुरता नहीं। आखिर बाबाजी ने उसकी बहिर्गति कराई। फिर बोलेः
"लाओ, कहाँ है अहं ?"
"महाराज ! अहं जैसी कोई चीज है ही नहीं। बस वही वह है। वाणी वहाँ जाती नहीं। यह तो आरोप करके बोल रहा हूँ।"
बाबाजी ने इब्राहीम को गले लगा लिया। "इब्राहीम ! तू गैर नहीं। तू इब्राहीम नहीं। तू मैं है, मैं तू हूँ।"
जब तक अहं को नहीं खोजा था तब तक परेशान कर रहा था। खोजो तो उसका वास्तव में अस्तित्व ही नहीं रहता। आँख देखती है, हम जुड़ जाते हैं- "मैंने देखा।"
मनःवृत्ति शरीर के तरफ बहती है तो अहं बना देती है और अपने मूल के तरफ जाती है तो मन रहता ही नहीं। जैसे तरंग उछलती है तो अलग बनी रहती है और पानी को खोजती है तो शान्त होकर पानी बनकर रह जाती है, अलग अस्तित्व मिट जाता है। ऐसे ही 'मैं.... मैं..... मैं.... मैं....' परेशान करता है। वह 'मैं' अगर अपने मूल को खोजता है तो उसका परिच्छिन्न अहं मिलता ही नहीं।
तीन प्रकार का अहं होता हैः स्थूल अहं, सदगुरू की शरण से विलीन होता है। सूक्ष्म अहं वेदान्त के प्रतिपादित साधन की तरकीब से बाधित होता है। तीसरा है वास्तविक अहं, वह ब्रह्म है, परम सुख-स्वरूप है। उसी में अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्ड फुरफुरा के लीन हो रहे हैं।
वास्तविक हमारा जो 'मैं' है उसमें अनन्त अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, स्थित रहती हैं और लय हो जाती हैं। फिर भी हमारा बाल भी बाँका नहीं होता। हमारा वास्तविक अहं वह है। अपनी वास्तविकता का बोध नहीं है तो वहाँ की एक तरंग, एक धारा, एक वृत्ति को 'मैं' मानकर उलझ रहे हैं। उलझते-उलझते सदियाँ बीत गईं लेकिन विश्रांति नहीं मिली।
बिना सत्संग के साधन-भजन भीतर व्यक्तित्व को सजाये रखता है। 'पहले मैं संन्यासी था, अब मैं साधक हूँ। पहले मैं भोगी था, अब मैं त्यागी हूँ। पहले बहुत बोलनेवाला था, अब मौनी हूँ। पहले स्त्री-पुत्र-परिवार के चक्कर में था, अब अकेला शांत हूँ। कमरा बन्द कर देता हूँ बस, मौज है। न किसी से लेना न किसी को देना।'
खतरा पैदा करोगे। जो अकेले कमरे में नहीं बैठते, एकान्त में नहीं रहते उनकी अपेक्षा आप ठीक हो। लेकिन जब कमरा न होगा, एकान्त न होगा तब परेशानी चालू हो जायेगी। ....और मौत तुम्हें कमरे से भी तो पकड़कर ले जायेगी।
जीते जी मौत के सिर पर पैर रखने की कला आ जाना-इसी का नाम आत्म-साक्षात्कार है। साक्षात्कार होने से राग-द्वेष और अभिनिवेश का अत्यंत अभाव हो जाता है। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से लगाव नहीं, किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से लगाव नहीं, किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से घृणा नहीं, द्वेष नहीं। अभिनिवेश यानी मृत्यु का भय, जीने की आस्था। आत्म-साक्षात्कार हो जाता है तो जीने की आकांक्षा हट जाती है। जिसको अपने आपका बोध हो जाता है वह जान लेता है कि मेरी मौत तो कभी होती नहीं। एक शरीर तो क्या, हजारों शरीर लीन हो जायें, पैदा हो जायें, ब्रह्माण्डों की उथल-पुथल हो जाय फिर भी मुझ चिदाकाश स्वरूप को कोई आँच नहीं आती, ऐसा अपनी असली 'मैं' का साक्षात्कार हो जाता है।
देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत।
ते ज्ञानीना चरणमां हो वन्दन अगणित।
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1 टिप्पणियाँ:
ज्ञान की गंगा बहा दी है………………सारा सार यही तो है।
कल के चर्चा मंच पर आपकी पोस्ट होगी।
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