शुक्रवार, जुलाई 09, 2010

खुदाताला ज्यादा सिफारिश किसकी मानता है?


सिक्खों के सातवें गुरू हररायदासजी महाराज ज्ञान में इतने निपुण कि हँसते-हँसते भक्तों के चित्त को पढ़ लेते और हँसते-हँसते उनके प्रश्नों के उत्तर दे देते। बोलने की छटा ऐसी अदभुत कि सुनने वाला कभी ऊबता नहीं। सभा में आखिरी बुद्धि का आदमी और अव्वल बुद्धि का आदमी, दोनों रसपान कर सकें, समझ पायें ऐसा वक्तृत्व उनके पास था। वक्ता की कुशलता यह है कि सभा में जब वह बैठे तो उसकी वाणी के द्वारा, उसके आध्यात्मिक प्रभाव द्वारा सभाजनों का चित्त तदाकार हो जाय। सभा के छोटे से छोटे आदमी को भी कुछ घूँट मिलता जाय, मध्यम को भी मिलता जाय, ऊँचे को भी मिलता जाय और ऊँचे और नीचे, छोटे और मोटे से भी जो पार होने की योग्यता वाले हैं उनको भी रस मिल जाय, यह ब्रह्मवेत्ता वक्ता के वक्तृत्व की कुशलता है। हरराय साहब ऐसे कुशल थे।
एक बार वे भक्तों के बीच अपनी ज्ञानगंगा बहा रहे थे। किसी सूक्ष्म विषय की व्याख्या कर रहे थे, तत्त्वचर्चा कर रहे थे, किसी के प्रश्न का उत्तर दे रहे थे। इतने में तुर्कस्तान का बादशाह वहाँ आया जो उनकी ख्याति सुनकर अपने शंका-समाधान के लिए आया था। देखा कि हररायदासजी की वाणी में कुछ आकर्षण है, कुछ अनुभव है, कुछ सच्चाई है, कुछ रस है। प्रश्नोत्तर समाप्त हुए तो तुर्कनरेश ने हाथ जोड़कर प्रार्थना कीः
"हे संतप्रवर ! मैं आपका नाम सुनकर आया हूँ।" प्रश्नोत्तर होने का मौका पाकर मैं अपने को बड़ा भाग्यवान मानता हूँ। वर्षों से मेरे चित्त को एक प्रश्न सता रहा है। कई मुल्ला-मौलवियों से, उपदेशकों से उसका निराकरण पूछता आया हूँ। आज तक मुझे संतोष नहीं हुआ है। मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला है।
हे संतप्रवर ! हे भगवत्स्वरूप ! आप खुदाताला के खास इन्सान हैं। आप अगर इजाजत दें तो मैं अपना प्रश्न पूछकर अपना दिल हल्का करना चाहता हूँ।
"पूछो.... पूछो, निःसंकोच होकर पूछो।" हररायजी ने कहा।
बादशाह बोलाः "मुहम्मद पैगम्बर हो गये, जुन्नेद हो गये, कई अवतार हिन्दुओं में हो गये, कितने पीर हो गये, कितने फकीर हो गये, कितने पैगम्बर हो गये, कितने जति हो गये, कितने जोगी हो गये। मेरा प्रश्न यह है कि खुदाताला ज्यादा से ज्यादा सिफारिश किसकी मानता है, पीरों की सिफारिश मानता है कि पैगम्बरों की मानता है कि फकीरों की मानता है कि भक्तों की मानता है कि योगियों की मानता है ? अगर पैगम्बरों की मानता है तो उसमें कौन से पैगम्बर की मानता है ? जिसकी ज्यादा से ज्यादा सिफारिश चलती हो उसका नाम बताइये ताकि मैं उसको राजी कर लूँ और अपना काम बना लूँ।"
इस प्रश्न से सभा में सन्नाटा छा गया। हररायजी भी शांत हो गये घड़ीभर और जहाँ भगवान योगेश्वर आत्म-विश्रांति पाते हैं, जहाँ से सारा ज्ञान, सारा प्रकाश, सारा प्रेम और सारे दिव्य गुण स्फुरित होते हैं उस दिव्य स्वरूप में ध्यानस्थ हो गये। फिर कहाः
"भाई ! भगवान किसी पीर पैगम्बर, किसी जाति-सती की सिफारिश से ही मिलें ऐसा कोई जरूरी नहीं। भगवान का घट-घट वास है। हर व्यक्ति जितनी सच्चाई से, उत्साह से, ईमानदारी से उनको पुकारता है, प्यार करता है और उनके लिये जीता है उतना ही वे उसके रास्ते का प्रकाश बढ़ाते जाते हैं और उतना ही वे जल्दी मिलते हैं।
जिसकी जिज्ञासा तीव्र है, जिसकी साधना तीव्र है, जिसकी तत्परता तीव्र है उस साधक को तो संतों के द्वारा भी भगवान प्रकाश देते हैं। अंदर अंतर्यामी होकर भी प्रकाश देते हैं।
किसी की सिफारिश के इन्तजार की तुम्हें जरूरत नहीं। तुम जो व्यवहार करते हो, प्रजा का पालन करते हो तो 'प्रजा के अन्दर छुपे हुए अन्तर्यामी परमात्मा मुझे देख रहे हैं' ऐसा सोचकर काम करो और पुत्र-परिवार से मिलते हो तो....
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिन्तः स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः।।
'पुत्र और स्त्री आदिकों में स्नेहरहित और विषयों में कामनारहित और अपने शरीर में चिन्तारहित ज्ञानी निराश होकर ही शोभायमान होता है।' (अष्टावक्रगीताः 18.84)
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं अनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।

'इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना (यह ज्ञान है)।' (भगवद गीताः 13.8)
इन्द्रियों के अर्थ में वैराग्य करो। आँखों को बताओ कि अब कितना-कितना देखोगे ? क्या-क्या देखोगे ? आँखें कैंची जैसी घूमती रहती हैं। भर दिया सब खोपड़ी में, अब क्या देखना है ?
व्यर्थ का देखने से, व्यर्थ का सुनने से बुद्धि स्थूल हो जाती है। इधर-उधर के किस्से कहानियाँ मस्तिष्क में भरकर बुद्धि कूटकर भर जाता है। अगर संयम करेगा तो बुद्धि सूक्ष्म होगी और खुद ही रम रहा है उस खुदा के विषय में तुम्हारी रुक्मिणी (बुद्धि) सोचने लगी। खुदा के गुणों का ज्ञान होगा। फिर गुरूरूपी ब्राह्मण को पत्र देगी और वह अन्तर्यामी कृष्ण इस बुद्धि का हाथ पकड़कर अपनी भार्या बना लेंगे।
तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
बुद्धि फिर कृष्ण तत्त्व में, ब्रह्मतत्त्व में प्रतिष्ठित हो जायेगी। सिफारिश चलती है यह प्रश्न नहीं है। कौन से साधक की कितनी तीव्रता है, कितनी ईमानदारी है, कितनी बुद्धि की सूक्ष्मता है यह महत्त्वपूर्म है।
जितनी बुद्धि की सूक्ष्मता होगी, साधना में जितनी तत्परता होगी उतना ही साध्य जल्दी से प्रकट हो जायगा।
अपने प्रश्न का ऐसा युक्तियुक्त, शास्त्र-सम्मत और अनुभवसम्पन्न उत्तर सुनकर बादशाह का हृदय धन्यवाद से भर गया। महापुरूष के चरणों में झुक-झुककर प्रणाम किये।
वर्षों तक की मजदूरी से नहीं मिलता वह प्रकाश हँसते-हँसते मिलता है। धन्य है वह सत्संग ! ऐसा सत्संग पाने के लिए भीष्म ने तप किया था।
भीष्म के तप से सिद्ध होता है कि अगर तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म सत्संग न मिले तो ध्यान भजन, जप-तप करके भी आत्मज्ञान का सत्संग पाने का ही यत्न करो, क्योंकि सर्वोपरि आत्मज्ञान है।
आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।
आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते।।
यह अद्वैतज्ञान है। इससे सारे सदगुण पैदा होते हैं। विश्वभर की शंकाओं का समाधान केवल वेदान्त के ज्ञान से ही आता है। विश्वभर के भगवानों, अवतारों, पीर-पैगम्बरों का आधारभूत ज्ञान अद्वैत से ही प्रकाशित हुआ। इसलिए अद्वैतज्ञान, एकात्मवाद का जो प्रकाश है वह जीवन में सुख-शांति देता है। मरने के बाद मुक्ति नहीं, उधारी मुक्ति नहीं, जीते जी अपने शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वरूप का साक्षात्कार करा देता है। इसलिए भगवान यहाँ कहते हैं-
उदासीना वयं नूनं स्ञ्यापत्यार्थकामुकाः।
आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः।।
'निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, संतान और धन के लोलुप नहीं हैं। हम निष्क्रिय हैं अर्थात् आत्मा कुछ करता नहीं है, ऐसे हम आत्मा हैं। हम देह-गेह से सम्बन्धरहित हैं। देह और घर से तो ममता का सम्बन्ध है। ममता बढ़ी या कम हुई, उसको हम देखने वाले हैं।'
जैसे भगवान ममता को देखने वाले हैं ऐसे ही अन्तर्यामी रूप में आप भी तो ममता को देखने वाले हैं। आप नाहक ममता से जुड़ जाते हैं कि मेरा घर से सम्बन्ध है, मेरा फैक्ट्री से सम्बन्ध है। तुम्हारा घर से, फैक्ट्री से, ऑफिस से, दुकान से सम्बन्ध नहीं है। अगर तुम्हारा उनसे सच्चा सम्बन्ध होता तो तुम्हारे चले जाने से घर-फैक्ट्री-ऑफिस-दुकान को तुम्हारे साथ ही स्मशान में रवाना कर दिया जाता। तुम्हारा इन चीजों से सम्बन्ध माना हुआ है। परमात्मा के साथ तुम्हारा सम्बन्ध वास्तविक में है।
जो माना हुआ सम्बन्ध है उससे ममता हटाओ। व्यवहार चलाओ और जो सचमुच में सम्बन्ध है उसको जानकर तुम मुक्ति का अनुभव कर लो।
जैसे भागवत के इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी को अपना अनुभव बताते हैं ऐसे ही एक दिन आप भी अपनी रुक्मिणी को अपना अनुभव बता सकते हो और उसके पड़ोसियों को भी बता सकते हो किः "घर में, पुत्र में, परिवार में हमारी आसक्ति नहीं है, लोलुपता नहीं है। यह शरीर भी हमारा नहीं, उसके सम्बन्ध भी हमारे नहीं। ये माया मात्र हैं। हम तो दीपशिखावत् साक्षी हैं, दृष्टा हैं, असंग हैं, नित्य मुक्त हैं। पहले हमको पता नहीं था, अब सत्संग का प्रकाश हुआ तो पता चला कि हजारों-हजारों जन्म हुए शरीर के, हजारों-हजारों शरीर मर गये फिर भी हम नहीं मरे इसलिए यहाँ हैं। हजारों दुःख आये और गये, हम नहीं गये। हजारों सुख आये, चले गये हम नहीं गये। सैंकड़ों मान के प्रसंग आये, चले गये, अपमान के प्रसंग आये चले गये। इन सबको दीपशिखावत् प्रकाशते हुए हम चैतन्य, साक्षी, कृष्णतत्त्व, अंतर्यामी आत्मा हैं। 'सोऽहम्...' इस प्रकार का आपका अनुभव प्रकट हो जाय, आसाराम की ऐसी आशा है।

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