शुक्रवार, अप्रैल 23, 2010

निष्काम कर्म करो लेकिन कर्म निष्प्रयोजन तो नहीं होना चाहिए


एक आदमी नदी पर जाकर लाठी से पानी को कूटने लगा। कोई महात्मा वहाँ से गुजरे। उन्होंने पूछाः
"महाराज ! मैं निष्काम कर्म कर रहा हूँ। इसमें मेरा कोई स्वार्थ नहीं है।"
निष्काम कर्म करो लेकिन कर्म निष्प्रयोजन तो नहीं होना चाहिए। रागरहित होने के लिए स्वार्थरहित और सप्रयोजन, सार्थक कर्म होना चाहिए। तभी वह परहित का कार्य निष्काम सेवा बन सकेगा।
हम लोग जब सेवा करते हैं तब अपने राग को पोसने के चक्कर में चलते हैं इसलिए सेवा दुकानदारी बन जाती है। हम भक्ति करते हैं तो राग को पोसने के लिए करते हैं, योग करते हैं तो राग को पोसने के लिए करते हैं, भोजन करते हैं तो राग को पोसते हैं। ऐसा नहीं कि शरीर को पोसने के लिए भोजन करते हैं। जब शरीर को पोसने के लिए भोजन करेंगे तब वह भोजन भोजन नहीं रहेगा, भजन बन जाएगा। राग को पोसेंगे तो वह भोजन भोग हो जायेगा। रागरहित होकर भोजन करो तो भोजन योग हो जायगा। रागरहित होकर बात करो तो बात भक्ति हो जाएगी। रागरहित होकर संसार का व्यवहार करो तो वह कर्म योग हो जाएगा। हमारी तकलीफ यह है कि राग की पूँछ पकड़े बिना हमसे रहा नहीं जाता।
जब जब दुःख, मुसीबत, चिन्ता, भय घेर लें तब सावधान रहें और जान लें कि ये सब राग के ही परिवारजन हैं। उन चीजों में राग होने के कारण मुसीबत आयी है। राग तुम्हें कमजोर बना देता है। कमजोर आदमी को ही मुसीबत आती है। बलवान आदमी के पास मुसीबत आती है तो बलवान पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता। अगर प्रभाव पड़ गया तो वह मुसीबत की अपेक्षा कमजोर है।
जब दुःख मुसीबत आये तो क्या करें ?
जब दुःख आयें तब बड़ों की शरण लेनी चाहिए। किसी न किसी की शरण लिये बिना हम लोग जी नहीं सकते, टिक नहीं सकते। दुर्बल को बलवान की शरण लेनी चाहिए।
बलवान कौन है ? जो दण्ड-बैठक करता है वह बलवान है ? जिसके पास सारे विश्व की कुर्सियाँ अत्यंत छोटी पड़ जाती हैं वह सर्वेश्वर सर्वाधिक बलवान है। तुम उस बलवान की शरण चले जाओ। बलवान की शरण गाँधीनगर में नहीं, बलवान की शरण दिल्ली में नहीं, किसी नगर में नहीं बल्कि वह तुम्हारे दिल के नगर में सदा के लिए मौजूद है। सच्चे हृदय से उनकी शरण चले गये तो तुरन्त वहाँ से प्रेरणा, स्फूर्ति और सहारा मिल जाता है। वह सहारा कइयों को मिला है। हम लोग भी वह सहारा पाने के लिए तत्पर हैं इसीलिए सत्संग में आ पहुँचे हैं।
तुम कब तक बाहर के सहारे लेते रहोगे ? एक ही समर्थ का सहारा ले लो। वह परम समर्थ परमात्मा है। उससे प्रीति करने लग जाओ। उस पर तुम अपने जीवन की बागडोर छोड़ दो। तुम निश्चिन्त हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा अदभुत काम होने लगेंगे परन्तु राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने देगा। जब राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने दे तब सोचोः
'हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !
हम दुःखी कब होते हैं ?
जब हम अपनी बात को, अपने राग को ईश्वर के द्वारा पूर्ण करवाना चाहते हैं तब हम दुःखी होते हैं। अपने राग को जब ईश्वर के द्वारा पूरा करवाना न चाहें तब ईश्वर जो करेगा वह बिल्कुल पर्याप्त होगा।

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