रूचि और आवश्यकता
ऐसा कोई मनुष्य नहीं मिलेगा, जिसके पास कुछ भी योग्यता न हो, जो किसी को मानता न हो। हर मनुष्य जरूर किसी न किसी को मानता है। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमें जानने की जिज्ञासा न हो। वह कुछ न कुछ जानने की कोशिश तो करता ही है। करने की, मानने की और जानने की यह स्वतः सिद्ध पूँजी है हम सबके पास। किसी के पास थोड़ी है तो किसी के पास ज्यादा है, लेकिन है जरूर। खाली कोई भी नहीं।
हम लोग जो कुछ करते हैं, अपनी रूचि के अनुसार करते हैं। गलती क्या होती है कि हम आवश्यकता के अनुसार नहीं करते। रूचि के अनुसार मानते हैं, आवश्यकता के अनुसार नहीं जानते। बस यही एक गलती करते हैं। इसे अगर हम सुधार लें तो किसी भी क्षेत्र में आराम से, बिल्कुल मजे से सफल हो सकते हैं। केवल यह एक बात कृपा करके जान लो।
एक होती है रूचि और दूसरी होती है आवश्यकता। शरीर को भोजन करने की आवश्यकता है। वह तन्दुरूस्त कैसे रहेगा, इसकी आवश्यकता समझकर आप भोजन करें तो आपकी बुद्धि शुद्ध रहेगी। रूचि के अनुसार भोजन करेंगे तो बीमारी होगी। अगर रूचि के अनुसार भोजन नहीं मिलेगा और यदि भोजन मिलेगा तो रूचि नहीं होगी। जिसको रूचि हो और वस्तु न हो तो कितना दुःख ! वस्तु हो और रूचि न हो तो कितनी व्यथा !
खूब ध्यान देना कि हमारे पास जानने की, मानने की और करने की शक्ति है। इसको आवश्यकता के अनुसार लगा दें तो हम आराम से मुक्त हो सकते हैं और रूचि के अनुसार लगा दें तो एक जन्म नहीं, करोड़ों जन्मों में भी काम नहीं बनता। कीट, पतंग, साधारण मनुष्यों में और महापुरूषों में इतना ही फर्क है कि महापुरूष माँग के अनुसार कर्म करते हैं जबकि साधारण मनुष्य रूचि के अनुसार कर्म करते हैं।
जीवन की माँग है योग। जीवन की माँग है शाश्वत सुख। जीवन की माँग है अखण्डता। जीवन की माँग है पूर्णता।
आप मरना नहीं चाहते, यह जीवन की माँग है। आप अपमान नहीं चाहते। भले सह लेते हैं, पर चाहते नहीं। यह जीवन की माँग है। तो अपमान जिसका न हो सके, वह ब्रह्म है। अतः वास्तव में आपको ब्रह्म होने की माँग है। आप मुक्ति चाहते हैं। जो मुक्तस्वरूप है, उसमें अड़चन आती है काम, क्रोध आदि विकारों से।
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुदभवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिहवैरिणम्।।'रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान।'
(भगवद् गीताः 3.37)
काम और क्रोध महाशत्रु हैं और इसमें स्मृतिभ्रम होता है, स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश होता है। बुद्धिनाश से सर्वनाश हो जाता है। अगर रूचि को पोसते हैं तो स्मृति क्षीण होती है। स्मृति क्षीण हुई तो सर्वनाश।
एक लड़के की निगाह पड़ोस की किसी लड़की पर गई और लड़की की निगाह लड़के पर गई। अब उनकी एक दूसरे के प्रति रूचि हुई। विवाह योग्य उम्र है तो माँग भी हुई शादी की। अगर हमने माँग की किन्तु कुल शिष्टाचार की ओर ध्यान नहीं दिया और लड़का लड़की को ले भागा अथवा लड़की लड़के को ले भागी तो मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहे। किसी होटल में रहे, कभी कहाँ रहे – अखबारों में नाम छपा गया, 'पुलिस पीछे पड़ेगी,' डर लग गया। इस प्रकार रूचि में अन्धे होकर कूदे तो परेशान हुए। अगर विवाह योग्य उम्र हो गई है, गृहस्थ जीवन की माँग है, एक दूसरे का स्वभाव मिलता है तो माँ-बाप से कह दिया और माँ-बाप ने खुशी से समझौता करके दोनों की शादी करा दी। यह हो गई माँग की पूर्ति और वह थी रूचि की पूर्ति। रूति की पूर्ति में जब अन्धी दौड़ लगती है तो परेशानी होती है, अपनी और अपने रिश्तेदारों की बदनामी होती है। ...तो शादी करने में बुद्धि चाहिए कि रूचि की पूर्ति के साथ माँग की पूर्ति हो।
माँग आसानी से पूरी हो सकती है और रूचि जल्दी पूरी होती नहीं। जब होती है तब निवृत्ति नहीं होती, अपितु और गहरी उतरती है अथवा उबान और विषाद में बदलती है। रूचि के अनुसार सदा सब चीजें होंगी नहीं, रूचि के अनुसार सब लोग तुम्हारी बात मानेंगी नहीं। रूचि के अनुसार सदा तुम्हारा शरीर टिकेगा नहीं। अन्त में रूचि बच जायेगी, शरीर चला जायगा। रूचि बच गई तो कामना बच गई। जातीय सुख की कामना, धन की कामना, सत्ता की कामना, सौन्दर्य की कामना, वाहवाही की कामना, इन कामनाओं से सम्मोह होता है। सम्मोह से बुद्धिभ्रम होता है, बुद्धिभ्रम से विनाश होता है।
करने की, मानने की और जानने की शक्ति को अगर रूचि के अनुसार लगाते हैं तो करने का अंत नहीं होगा, मानने का अंत नहीं होगा, जानने का अंत नहीं होगा। इन तीनों योग्यताओं को आप अगर यथायोग्य जगह पर लगा देंगे तो आपका जीवन सफल हो जायगा।
अतः यह बात सिद्ध है कि आवश्यकता पूरी करने में शास्त्र, गुरू समाज और भगवान आपका सहयोग करेंगे। आपकी आवश्यकता पूरी करने में प्रकृति भी सहयोग देती है। बेटा माँ की गोद में आता है, उसकी आवश्यकता होती है दूध की। प्रकृति सहयोग देकर दूध तैयार कर देती है। बेटा बड़ा होता है और उसकी आवश्यकता होती है दाँतों की तो दाँत आ जाते हैं।
मनुष्य की आवश्यकता है हवा की, जल की, अन्न की। यह आवश्यकता आसानी से यथायोग्य पूरी हो जाती है। आपको अगर रूचि है शराब की, अगर उस रूचि पूर्ति में लगे तो वह जीवन का विनाश करती है। शरीर के लिए शराब की आवश्यकता नहीं है। रूचि की पूर्ति कष्टसाध्य है और आवश्यकता की पूर्ति सहजसाध्य है।
आपके पास जो करने की शक्ति है, उसे रूचि के अनुसार न लगाकर समाज के लिए लगा दो। अर्थात् तन को, मन को, धन को, अन्न को, अथवा कुछ भी करने की शक्ति को 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' में लगा दो।
आपको होगा कि अगर हम अपना जो कुछ है, वह समाज के लिए लगा दें तो फिर हमारी आवश्यकताएँ कैसे पूरी होंगी?
आप समाज के काम में आओगे तो आपकी सेवा में सारा समाज तत्पर होकर लगा रहेगा। एक मोटरसाइकल काम में आती है तो उसको संभालने वाले होते हैं कि नहीं ? घोड़ा-गधा काम में आते हैं तो उसको भी खिलाने वाले होते हैं। आप तो मनुष्य हो। आप अगर लोगों के काम आओगे तो हजार-हजार लोग आपकी आवश्यकता पूरी करने के लिए लालायित हो जायेंगे। आप जितना-जितना अपनी रूचि को छोड़ोगे, उतनी उतनी उन्नति करते जाओगे।
जो लोग रूचि के अनुसार सेवा करना चाहते हैं, उनके जीवन मे बरकत नहीं आती। किन्तु जो आवश्यकता के अनुसार सेवा करते हैं, उनकी सेवा रूचि मिटाकर योग बन जाती है। पतिव्रता स्त्री जंगल में नहीं जाती, गुफा में नहीं बैठती। वह अपनी रूचि पति की सेवा में लगा देती है। उसकी अपनी रूचि बचती ही नहीं है। अतः उसका चित्त स्वयमेव योग में आ जाता है। वह जो बोलती है, ऐसा प्रकृति करने लगती है।
तोटकाचार्य, पूरणपोडा, सलूका-मलूका, बाला-मरदाना जैसे सत्शिष्यों ने गुरू की सेवा में, गुरू की दैवी कार्यों में अपने करने की, मानने की और जानने की शक्ति लगा दी तो उनको सहज में मुक्तिफल मिल गया। गुरूओं की भी ऐसा सहज में नहीं मिला था जैसे इन शिष्यों को मिल गया। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य को गुरूप्राप्ति के लिए कितना-कितना परिश्रम करना पड़ा ! कहाँ से पैदल यात्रा करनी पड़ी ! ज्ञानप्राप्ति के लिए भी कैसी-कैसी साधनाएँ करनी पड़ी ! जबकी उनके शिष्य तोटकाचार्य ने तो केवल अपने गुरूदेव के बर्तन माँजते-माँजते ही प्राप्तव्य पा लिया।
अपनी करने की शक्ति को स्वार्थ में नहीं अपितु परहित में लगाओ तो करना तुम्हारा योग हो जायेगा। मानने की शक्ति है तो विश्वनियंता को मानो। वह परमसुहृद है और सर्वत्र है, अपना आपा भी है और प्राणिमात्र का आधार भी है। जो लोग अपने को अनाथ मानते हैं, वह परमात्मा का अनादर करते हैं। जो बहन अपने को विधवा मानती है, वह परमात्मा का अनादर करती है। अरे ! जगतपति परमात्मा विद्यमान होते हुए तू विधवा कैसे हो सकती है ? विश्व का नाथ साथ में होते हुए तुम अनाथ कैसे हो सकते हो ? अगर तुम अपने को अनाथ, असहाय, विधवा इत्यादि मानते हो तो तुमने अपने मानने की शक्ति का दुरूपयोग किया। विश्वपति सदा मौजूद है और तुम आँसू बहाते हो ?
"मेरे पिता जी स्वर्गवास हो गये.... मैं अनाथ हो गया.........।"
"गुरुजी आप चले जायेंगे... हम अनाथ हो जाएँगे....।"
नहीं नहीं....। तू वीर पिता का पुत्र है। निर्भय गुरू का चेला है। तू तो वीरता से कह दे कि, 'आप आराम से अपनी यात्रा करो। हम आपकी उत्तरक्रिया करेंगे और आपके आदर्शों को, आपके विचारों को समाज की सेवा में लगाएँगे ताकि आपकी सेवा हो जाय।' यह सुपुत्र और सत्शिष्य का कर्त्तव्य होता है। अपने स्वार्थ के लिये रोना, यह न पत्नी के लिए ठीक है न पति के लिए ठीक है, न पुत्र के लिए ठीक है न शिष्य के लिए ठीक है और न मित्र के लिए ठीक है।
पैगंबर मुहम्मद परमात्मा को अपना दोस्त मानते थे, जीसस परमात्मा को अपना पिता मानते थे और मीरा परमात्मा को अपना पति मानती थी। परमात्मा को चाहे पति मानो चाहे दोस्त मानो, चाहे पिता मानो चाहे बेटा मानो, वह है मौजूद और तुम बोलते हो कि मेरे पास बेटा नहीं है.... मेरी गोद खाली है। तो तुम ईश्वर का अनादर करते हो। तुम्हारे हृदय की गोद में परमात्मा बैठा है, तुम्हारी इन्द्रियों की गोद में परमात्मा में बैठा है।
तुम मानते तो हो लेकिन अपनी रूचि के अनुसार मानते हो, इसलिए रोते रहते हो। माँग के अनुसार मानते हो तो आराम पाते हो। महिला आँसू बहा रही है कि रूचि के अनुसार बेटा अपने पास नहीं रहा। उसकी जहाँ आवश्यकता थी, परमात्मा ने उसको वहाँ रख लिया क्योंकि उसकी दृष्टि केवल उस महिला की गोद या उसका घर ही नहीं है। सारी सृष्टि, सारा ब्रह्माण्ड उस परमात्मा की गोद में है। तो वह बेटा कहीं भी हो, वह परमात्मा की गोद में ही है। अगर हम रूचि के अनुसार मन को बहने देते हैं तो दुःख बना रहता है।
रूचि के अनुसार तुम करते रहोगे तो समय बीत जायगा, रूचि नहीं मिटेगी। यह रूचि है कि जरा-सा पा लें..... जरा सा भोग लें तो रूचि पूरी हो जाय। किन्तु ऐसा नहीं है। भोगने से रूचि गहरी उतर जायगी। जगत का ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो रूचिकर हो और मिलता भी रहे। या तो पदार्थ नष्ट हो जाएगा या उसमें उबान आ जाएगी।
रूचि को पोसना नहीं है, निवृत्त करना है। रूचि निवृत्त हो गई तो काम बन गया, फिर ईश्वर दूर नहीं रहेगा। हम गलती यह करते हैं कि रूचि के अनुसार सब करते रहते हैं। पाँच-दस व्यक्ति ही नहीं, पूरा समाज इसी ढाँचे में चल रहा है। अपनी आवश्यकता को ठीक से समझते नहीं और रूचि पूरी करने में लगे रहते हैं। ईश्वर तो अपना आपा है, अपना स्वरूप है। वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-
"हे रामजी ! फूल, पत्ते और टहनी तोड़ने में तो परिश्रम है, किन्तु अपने आत्मा-परमात्मा को जानने में क्या परिश्रम है ? जो अविचार से चलते हैं, उनके लिए संसार सागर तरना महा कठिन है, अगम्य है। तुम सरीखे जो बुद्धिमान हैं उनके लिए संसार सागर गोपद की तरह तरना आसान है। शिष्य में जो सदगुण होने चाहिए वे तुम में हैं और गुरू में जो सामर्थ्य होना चाहिए वह हममें है। अब थोड़ा सा विचार करो, तुरन्त बेड़ा पार हो जायगा।"हमारी आवश्यकता है योग की और जीते हैं रूचि के अनुसार। कोई हमारी बात नहीं मानता तो हम गर्म हो जाते हैं, लड़ने-झगड़ने लगते हैं। हमारी रूचि है अहं पोसने की और आवश्यकता है अहं को विसर्जित करने की। रूचि है अनुशासन करने की, कुछ विशेष हुक्म चलाने की और आवश्यकता है सबमें छुपे हुए विशेष को पाने की।
आप अपनी आवश्यकताएँ पूरी करो, रूचि को पूरी मत करो। जब आवश्यकताएँ पूरी करने में लगोगे तो रूचि मिटने लगेगी। रूचि मिट जायगी तो शहंशाह हो जाओगे। आपमें करने की, मानने की, जानने की शक्ति है। रूचि के अनुसार उसका उपयोग करते हो तो सत्यानाश होता है। आवश्यकता के अनुसार उसका उपयोग करोगे तो बेड़ा पार होगा।
आवश्यकता है अपने को जानने की और रूचि है लंदन, न्यूयार्क, मास्को में क्या हुआ, यह जानने की।
'इसने क्या किया... उसने क्या किया.... फलाने की बारात में कितने लोग थे.... उसकी बहू कैसी आयी....' यह सब जानने की आवश्यकता नहीं है। यह तुम्हारी रूचि है। अगर रूचि के अनुसार मन को भटकाते रहोगे तो मन जीवित रहेगा और आवश्यकता के अनुसार मन का उपयोग करोगे तो मन अमनीभाव को प्राप्त होगा। उसके संकल्प-विकल्प कम होंगे। बुद्धि को परिश्रम कम होगा तो वह मेधावी होगी। रूचि है आलस्य में और आवश्यकता है स्फूर्ति की। रूचि है थोड़ा करके ज्यादा लाभ लेने में और आवश्यकता है ज्यादा करके कुछ भी न लेने की। जो भी मिलेगा वह नाशवान होगा, कुछ भी नहीं लोगे तो अपना आपा प्रकट हो जायगा।
कुछ पाने की, कुछ भोगने की जो रूचि है, वही हमें सर्वेश्वर की प्राप्ति से वंचित कर देती है। आवश्यकता है 'नेकी कर कुएँ में फेंक'। लेकिन रूचि होती है, 'नेकी थोड़ी करूँ और चमकूँ ज्यादा। बदी बहुत करूँ और छुपाकर रखूँ।' इसीलिए रास्ता कठिन हो गया है। वास्तव में ईश्वर-प्राप्ति का रास्ता रास्ता ही नहीं है, क्योंकि रास्ता तब होता है जब कोई चीज वहाँ और हम यहाँ हों, दोनों के बीच में दूरी हो। हकीकत में ईश्वर ऐसा नहीं है कि हम यहाँ हों और ईश्वर कहीं दूर हो। आपके और ईश्वर के बीच एक इंच का भी फासला नहीं, एक बाल जितना भी अंतर नहीं लेकिन अभागी रूचि ने आपको और ईश्वर को पराया कर दिया है। जो पराया संसार है, मिटने वाला शरीर है, उसको अपना महसूस कराया। यह शरीर पराया है, आपका नहीं है। पराया शरीर अपना लगता है। मकान है ईंच-चूने-लक्कड़-पत्थर का और पराया है लेकिन रूचि कहती है कि मकान मेरा है।
स्वामी रामतीर्थ कहते हैं-
"हे मूर्ख मनुष्यों ! अपना धन, बल व शक्ति बड़े-बड़े भवन बनाने में मत खर्चो, रूचि को पूर्ति में मत खर्चो। अपनी आवश्यकता के अनुसार सीधा सादा निवास स्थान बनाओ और बाकी का अमूल्य समय जो आपकी असली आवश्यकता है योग की, उसमें लगाओ। ढेर सारी डिजाइनों के वस्त्रों की कतारें अपनी अलमारी में मत रखो। अपने दिल की अलमारी में आने का समय बचा लो। जितनी आवश्यकता हो उतने ही वस्त्र रखो, बाकी का समय योग में लग जायगा। योग ही तुम्हारी आवश्यकता है। विश्रान्ति तुम्हारी आवश्यकता है। अपने आपको जानना तुम्हारी आवश्यकता है। जगत की सेवा करना तुम्हारी आवश्यकता है क्योंकि जगत से शरीर बना है तो जगत के लिए करोगे तो तुम्हारी आवश्यकता अपने आप पूरी हो जायगी।
ईश्वर को आवश्यकता है तुम्हारे प्यार की, जगत को आवश्यकता है तुम्हारी सेवा की और तुम्हें आवश्यकता है अपने आपको जानने की।
शरीर को जगत की सेवा में लगा दो, दिल में परमात्मा का प्यार भर दो और बुद्धि को अपना स्वरूप जानने में लगा दो। आपका बेड़ा पार हो जायगा। यह सीधा गणित है।
मानना, करना और जानना रूचि के अनुसार नहीं बल्कि, आवश्यकता के अनुसार ही हो जाना चाहिए। आवश्यकता पूरी करने में नहीं कोई पाप, नहीं कोई दोष। रूचि पूरी करने में तो हमें कई हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। जीवन खप जाता है किन्तु रूचि खत्म नहीं होती, बदलती रहती है। रूचिकर पदार्थ आप भोगते रहें तो भोगने का सामर्थ्य कम हो जायगा और रूचि रह जायगी। देखने की शक्ति खत्म हो जाय और देखने की इच्छा बनी रहे तो कितना दुःख होगा ! सुनने की शक्ति खत्म हो जाय और सुनने की इच्छा बनी रहे तो कितना दुर्भाग्य ! जीने की शक्ति क्षीण हो जाय और जीने की रूचि बनी रहे तो कितना दुःख होगा ! इसलिए मरते समय दुःख होता है। जिनकी रूचि नहीं होती उन आत्मरामी पुरूषों को क्या दुःख ? श्रीकृष्ण को देखते-देखते भीष्म पितामह ने प्राण ऊपर चढ़ा दिये। उन्हें मरने का कोई दुःख नहीं।
सूँघने की रूचि बनी रहे और नाक काम न करे तो ? यात्रा की रूचि बनी रहे और पैर जवाब दे दें तो ? पैसों की रूचि बनी रहे और पैसे न हों तो कितना दुःख ? वाहवाही की रूचि है और वाहवाही न मिली तो ?
अगर रूचि के अनुसार वाहवाही मिल भी जाय तो क्या रूचि पूरी हो जायगी ? नहीं, और ज्यादा वाहवाही की इच्छा होगी। हम जानते ही हैं कि जिसकी वाहवाही होती है उसकी निन्दा भी होती है। अतः वाहवाही से रूचिपूर्ति का सुख मिलता है तो निन्दा से उतना ही दुःख होगा। और इतने ही निन्दा करने वालों के प्रति अन्यायकारी विचार उठेंगे। अन्यायकारी विचार जिस हृदय में उठेंगे, उसी हृदय को पहले खराब करेंगे। अतः हम अपना ही नुकसान करेंगे।
एक होता है अनुशासन, दूसरा होता है क्रोध। जिन्हें अपने सुख की कोई रूचि नहीं, जो सुख देना चाहते हैं, जिन्हें अपने भोग की कोई इच्छा नहीं है, उनकी आवश्यकता सहज में पूरी होती है। जो दूसरों की आवश्यकता पूरी करने में लगे हैं, वे अगर डाँटते भी हैं तो वह अनुशासन हो जाता है। जो रूचिपूर्ति के लिए डाँटते हैं, वह क्रोध हो जाता है। आवश्यकतापूर्ति के लिए अगर पिटाई भी कर दी जाय तो भी प्रसाद बन जाता है।
माँ को आवश्यकता है बेटे को दवाई पिलाने की तो माँ थप्पड़ भी मारती है, झूठ भी बोलती है, गाली भी देती है फिर भी उसे कोई पाप नहीं लगता। दूसरा कोई आदमी अपनी रूचि पूर्ति के लिए ऐसा ही व्यवहार उसके बेटे से करे तो देखो, माँ या दूसरे लोग भी उसकी कैसी खबर ले लेते हैं ! किसी की आवश्यकतापूर्ति के लिए किया हुआ क्रोध भी अनुशासन बन जाता है। रूचि पूर्ति के लिए किया हुआ क्रोध कई मुसीबतें खड़ी कर देता है।
एक विनोदी बात है। किसी जाट ने एक सूदखोर बनिये से सौ रूपये उधार लिये थे। काफी समय बीत जाने पर भी जब उसने पैसे नहीं लौटाये तो बनिया अकुलाकर उसके पास वसूली के लिए गया।
"भाई ! तू ब्याज मत दे, मूल रकम सौ रूपये तो दे दे। कितना समय हो गया ?"
जाट गुर्राकर बोलाः "तुम मुझे जानते हो न ? मैं कौन हूँ?"
"इसीलिए तो कहता हूँ कि ब्याज मत दो। केवल सौ रूपये दे दो।"
"सौ वौ नहीं मिलेंगे। मेरा कहना मानो तो कुछ मिलेगा।"
बनिये ने सोचा कि खाली हाथ लौटने से बेहतर है, जो कुछ मिले वही ले लूँ।
जाट ने कहाः "देखो, मगर आपको पैसे लेने हो तो मेरी इतनी सी बात मानो। आपके सौ रूपयें हैं ?"
"हाँ"।
"तो सौ के कर दो साठ।"
"ठीक है, साठ दे दो।"
"ठहरो, मुझे बात पूरी कर लेने दो। सौ के कर दो साठ.... आधा कर दो काट.. दस देंगे... दस छुड़ायेंगे और दस के जोड़ेंगे हाथ। अभी दुकान पर पहुँच जाओ।"
मिला क्या ? बनिया खाली हाथ लौट गया।
ऐसे ही मन की जो इच्छाएँ होती हैं, उसको कहेंगे कि भाई ! इच्छाएँ पूरी करेंगे लेकिन अभी तो सौ की साठ कर दे, और उसमें से आधा काट कर दे। दस इच्छाएँ तेरी पूरी करेंगे धर्मानुसार, आवश्यकता के अनुसार। दस इच्छाओं की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है और शेष दस से जोड़ेंगे हाथ। अभी तो भजन में लगेंगे, औरों की आवश्यकता पूरी करने में लगेंगे।
जो दूसरों की आवश्यकता पूरी करने में लगता है, उसकी रूचि अपने आप मिटती है और आवश्यकता पूरी होने लगती है। आपको पता है कि जब सेठ का नौकर सेठ की आवश्यकताएँ पूरी करने लगता है तो उसके रहने की आवश्यकता की पूर्ति सेठ के घर में हो जाती है। उसकी अन्न-वस्त्रादि की आवश्यकताएँ पूरी होने लगती हैं। ड्रायवर अपने मालिक की आवश्यकता पूरी करता है तो उसकी घर चलाने की आवश्यकतापूर्ति मालिक करता ही है। फिर वह आवश्यकता बढ़ा दे और विलासी जीवन जीना चाहे तो गड़बड़ हो जायगी, अन्यथा उसकी आवश्यकता जो है उसकी पूर्ति तो हो ही जाती है। आवश्यकता पूर्ति में और रूचि की निवृत्ति में लग जाय तो ड्रायवर भी मुक्त हो सकता है, सेठ भी मुक्त हो सकता है, अनपढ़ भी मुक्त हो सकता है, शिक्षित भी मुक्त हो सकता, निर्धन भी मुक्त हो सकता है, धनवान भी मुक्त हो सकता है, देशी भी मुक्त हो सकता है, परदेशी भी मुक्त हो सकता है। अरे, डाकू भी मुक्त हो सकता है।
आपके पास ज्ञान है, उस ज्ञान का आदर करो। फिर चाहे गंगा के किनारे बैठकर आदर करो या यमुना के किनारे बैठकर आदर करो या समाज में रहकर आदर करो। ज्ञान का उपयोग करने की कला का नाम है सत्संग।
सबके पास ज्ञान है। वह ज्ञानस्वरूप चैतन्य ही सबका अपना आपा है। लेकिन बुद्धि के विकास का फर्क है। ज्ञान तो मच्छर के पास भी है। बुद्धि की मंदता के कारण रूचिपूर्ति में ही हम जीवन खर्च किये जाते हैं। जिसको हम जीवन कहते हैं, वह शरीर हमारा जीवन नहीं है। वास्तव में ज्ञान ही हमारा जीवन है, चैतन्य आत्मा ही हमारा जीवन है।
ॐकार का जप करने से आपकी आवश्यकतापूर्ति की योग्यता बढ़ती है और रूचि की निवृत्ति में मदद मिलती है। इसलिए ॐकार (प्रणव) मंत्र सर्वोपरि माना जाता है। हालाँकि संसारी दृष्टि से देखा जाय तो महिलाओं को एवं गृहस्थियों को अकेला ॐकार का जप नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन्होंने रूचियों को आवश्यकता का जामा पहनाकर ऐसा विस्तार कर रखा है कि एकाएक अगर वह सब टूटने लगेगा तो वे लोग घबरा उठेंगे। एक तरफ अपनी पुरानी रूचि खींचेगी और दूसरी तरफ अपनी मूलभूत आवश्यकता – एकांत की, आत्मसाक्षात्कार की इच्छा आकर्षित करेगी। प्रणव के अधिक जप से मुक्ति की इच्छा जोर मारेगी। इससे गृहस्थी के इर्द-गिर्द जो रूचि पूर्ति करने वाले मंडराते रहते हैं, उन सबको धक्का लगेगा। इसलिए गृहस्थियों को कहते हैं कि अकेले ॐ का जप मत करो। ऋषियों ने कितना सूक्ष्म अध्ययन किया है।
समाज को आपके प्रेम की, सान्तवना की, स्नेह की और निष्काम कर्म की आवश्यकता है। आपके पास करने की शक्ति है तो उसे समाज की आवश्यकतापूर्ति में लगा दो। आपकी आवश्यकता माँ, बाप, गुरू और भगवान पूरी कर देंगे। अन्न, जल और वस्त्र आसानी से मिल जायेंगे। पर टैरीकोटन कपड़ा चाहिए, पफ-पावडर चाहिए तो यह रूचि है। रूचि के अनुसार जो चीजें मिलती हैं, वे हमारी हानि करती हैं। आवश्यकतानुसार चीजें हमारी तन्दुरूस्ती की भी रक्षा करती है। जो आदमी ज्यादा बीमार है, उसकी बुद्धि सुमति नहीं है।
चरक-संहिता के रचयिता ने अपने शिष्य को कहा कि तंदरूस्ती के लिए भी बुद्धि चाहिए। सामाजिक जीवन जीने के लिए भी बुद्धि चाहिए और मरने के लिय भी बुद्धि चाहिए। मरते समय भी अगर बुद्धि का उपयोग किया जाय कि, 'मौत हो रही है इस देह की, मैं तो चैतन्य व्यापक आत्मा हूँ।' ॐकार का जप करके मौत का भी साक्षी बन जायें। जो मृत्यु को भी देखता है उसकी मृत्यु नहीं होती। क्रोध को देखने वाले हो जाओ तो क्रोध शांत हो जायेगा। यह बुद्धि का उपयोग है। जैसे आप गाड़ी चलाते हो और देखते हुए चलाते हो तो खड्डे में नहीं गिरती और आँख बन्द करके चलाते हो तो बचती भी नहीं। ऐसे ही क्रोध आया और हमने बुद्धि का उपयोग नहीं किया तो बह जायेंगे। काम, लोभ और मोहादि आयें और सतर्क रहकर बुद्धि से काम नहीं लिया तो ये विकार हमें बहा ले जायेंगे।
लोभ आये तो विचारों कि आखिर कब तक इन पद-पदार्थों को संभालते रहोगे। आवश्यकता तो यह है कि बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय इनका उपयोग किया जाये और रूचि है इनका अम्बार लगाने की। अगर रूचि के अनुसार किया तो मुसीबतें पैदा कर लोगे। ऐसे ही आवश्यकता है कहीं पर अनुशासन की और आपने क्रोध की फुफकार मार दी तो जाँच करो कि उस समय आपका हृदय तपता तो नहीं। सामने वाले का अहित हो जाये तो हो जाये किन्तु आपकी बात अडिग रहे – यह क्रोध है। सामने वाला का हित हो, अहित तनिक भी न हो, अगर यह भावना गहराई में हो तो फिर वह क्रोध नहीं, अनुशासन है। अगर जलन महसूस होती है तो क्रोध घुस गया। काम बुरा नहीं है, क्रोध बुरा नहीं है, लोभ-मोह और अहंकार बुरा नहीं है। धर्मानुकूल सबकी आवश्यकता है। अगर बुरा होता तो सृष्टिकर्ता बनाता ही क्यों ? जीवन-विकास के लिए इनकी आवश्यकता है। दुःख बुरा नहीं है। निन्दा, अपमान, रोग बुरा नहीं है। रोग आता है तो सावधान करता है कि रूचियाँ मत बढ़ाओ। बेपरवाही मत करो। अपमान भी सिखाता है कि मान की इच्छा है, इसलिए दुःख होता है। शुकदेव जी को मान में रूचि नहीं है, इसलिए कोई लोग अपमान कर रहे हैं फिर भी उन्हें दुःख नहीं होता। रहुगण राजा कितना अपमान करते हैं, किन्तु जड़भरत शांतचित्त रहते हैं।
अपमान का दुःख बताता है कि आपको मान में रूचि है। दुःख का भाव बताता है कि सुख में रूचि है। कृपा करके अपनी रूचि परमात्मा में ही रखो।
सुख, मान और यश में नहीं फँसोगे तो आप बिल्कुल स्वतंत्र हो जाओगे। योगी का योग सिद्ध हो जायगा, तपी का तप और भक्त की भक्ति सफल हो जायगी। बात अगर जँचती है तो इसे अपनी बना लेना। तुम दूसरा कुछ नहीं तो कम से कम अपने अनुभव का तो आदर करो। आपको रूचि अनुसार भोग मिलते हैं तो भोग भोगते-भोगते आप थक जाते हैं कि नहीं ? ऊबान है कि नहीं ? ... इस ज्ञान का आदर करो। 'बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय' काम करते हो तो आपको आनन्द आता है। आपका मन एवं बुद्धि विकसित होती है। यह भी आपका अनुभव है। सत्संग के बाद आपको यह महसूस होता है कि बढ़िया कार्य किया। शांति, सुख एवं सुमति मिली। ....तो अपने अनुभव की बात को आप पक्की करके हृदय की गहराई में उतार लो कि रूचि की निवृत्ति में ही आनन्द है और आवश्यकता तो स्वतः पूरी हो जायेगी।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
लेबल: Ananya Yog
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ