सोमवार, अप्रैल 05, 2010

आत्मबल ही जीवन है


आत्मबल ही जीवन है

(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

रोग प्रतिकारक शक्ति कमजोर होती है तभी रोग पकड़ते हैं, विकार-प्रतिकारक शक्ति कमजोर होती है तभी विकार हावी होते हैं, चिंता को कुचलने के शक्ति कमजोर होती है तभी चिंता हावी हो जाती है। जैसे दुर्बल शरीर को बीमारियाँ घेर लेती हैं, ऐसे ही दुर्बल विचारशक्तिवाले को तरह-तरह के लोफर आ-आकर घेर लेते हैं। सबल जो भी करता है और उसके द्वारा जो भी होता है, उसके लिए तो ढोल-नगारे बजते हैं और दुर्बल जो करता है उसके लिए वह स्वयं तो असफल होता है, ऊपर से लानत भी पाता है। सबल वे हैं जिन्होंने काम-क्रोध आदि लोफरों को जीतकर अपने-आप में स्थिति पा ली है और निर्बल वे हैं जो इन लोफरों से पराजित होते रहते हैं।

भगवान ने कहा हैः नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः। बलहीन को आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। बलवान बनो, वीर्यवान बनो। परिस्थिति चाहे कितनी ही विषम क्यों न आ जाय, निर्भयता के साथ अपने कर्तव्य-मार्ग पर आगे बढ़ते जाओ। न गुंडे बनो, न गुंडागर्दी चलने दो। न दुष्ट बनो, न दुष्टों के आगे घुटने टेको। दुर्बलता छोड़ो, हीन विचारों को तिलांजली दो। उठो.... जागो...

परमदेव परमात्मा कहीं आकाश में, किसी जंगल, गुफा या मंदिर-मस्जिद-चर्च में नहीं बैठा है। वह चैतन्यदेव आपके हृदय में ही स्थित है। वह कहीं को नहीं गया है कि उसे खोजने जाना पड़े। केवल उसको जान लेना है। परमात्मा को जानने के लिए किसी भी अनुकूलता की आस मत करो। संसारी तुच्छ विषयों की माँग मत करो। विषयों की माँग कोई भी हो, तुम्हें दीन हीन बना देगी। विषयों की दीनतावालों को भगवान नहीं मिलते। इसलिए भगवान की पूजा करनी हो तो भगवान बन कर करो। देवो भूत्वा यजेद् देवम्। जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनंदस्वरूप है, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनंद, शांति तथा पूर्ण आत्मबल के साथ उनकी उपासना करो कि 'मैं जैसा-तैसा भी हूँ भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं और वे सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं तथा दयालु भी हैं तो मुझे भय किस बात का !' ऐसा करके निश्चिंत नारायण में विश्रांति पाते जाओ।

बल ही जीवन है, निर्बलता ही मौत है। शरीर का स्वास्थ्यबल यह है कि बीमारी जल्दी न लगे। मन का स्वास्थ्य बल यह है कि विकार हमें जल्दी न गिरायें। बुद्धि का स्वास्थ्य बल है कि इस जगत के माया जाल को, सपने को हम सच्चा मानकर आत्मा का अनादर न करें। 'आत्मा सच्चा है, 'मैं' जहाँ से स्फुरित होता है वह चैतन्य सत्य है। भय, चिंता, दुःख, शोक ये सब मिथ्या हैं, जाने वाले हैं लेकिन सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा 'मैं' सत्य हूँ सदा रहने वाला हूँ' – इस तरह अपने 'मैं' स्वभाव की उपासना करो। श्वासोच्छवास की गिनती करो और यह पक्का करो कि 'मैं चैतन्य आत्मा हूँ।' इससे आपका आत्मबल बढ़ेगा, एक एक करके सारी मुसीबतें दूर होती जायेंगी।

घर का आदमी भी अगर यह साधना करेगा तो पूरे परिवार में बरकत आयेगी। अगर एक भी बंदा यह साधना करता है तो दूसरे लोगों को भी फायदा होता है और यहाँ का फायदा तो बहुत छोटी बात है, परमात्मप्राप्ति का, मोक्षप्राप्ति का फायदा बहुत ऊँची बात है, वह भी सुलभ हो जाता है।

आत्मा तो सभी का बहुत महान है लेकिन भिखारियों की दोस्ती ने आदमी को भिखारी बना दिया है। जैसे राजाधिराज सम्राट घर में आया है तो उसका अपमान किया और भिखारियों के पास जाकर जश्न मनाता है तो वह व्यक्ति अपनी ही इज्जत गँवाता है। ऐसे ही ये विकार भिखमंगे हैं। नाक से, आँख से मजा लिया, जीभ से स्वाद लेकर मजा लिया, ये सारे मजे जो हैं वे मनुष्य को आत्मा से नीचे गिरा देते हैं।

शरीर में 22 मुख्य नाड़ियाँ हैं। ऐसे तो करोड़ों हैं। उनमें 22वीं नाड़ी है 'ब्रह्मनाड़ी'। ब्रह्मचर्य का पालन करने से वह मजबूत होती है और उसी में ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार होता है, ध्यान होता है। संयम आदि करके एक बार ब्रह्म परमात्मा का स्वाद ले लिया, जैसे एक बार दही मथकर मक्खन निकाल लिया फिर मक्खन को छाछ में फेंको तो भी तैरेगा। शादी हो जाये फिर भी संयम करके ब्रह्मनाड़ी को मजबूत बना के एक बार ईश्वरप्राप्ति कर ले, फिर उसको लेप नहीं चाहे वह कहीं भी रहे – ब्रह्मज्ञानी सदा निर्लेपा।

एक बार अमृत चख लिया फिर लफंगों के साथ रहे तो भी कोई फर्क नहीं। लफंगे सुधरेंगे, उसको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। राष्ट्रपति चपरासियों के पास बैठे तो क्या है, चपरासी थोड़े ही हो जायेगा ! ऐसे ही ब्रह्मज्ञान हो गया, ईश्वरप्राप्ति हो गयी फिर चाहे कहीं रहे।

समर्थ को नहीं दोष गुसाईं।

एक बार समर्थ हो जाओ, ईश्वरप्राप्ति कर लो बस। उसके पहले अगर संसार में गिरे तो फिर तौबा है। नास्तिक तो दुःखी है लेकिन आस्तिक भी वास्तविक ज्ञान के अभाव में चक्कर काटते हैं। आत्मा में चित्त लगाया तो आत्मा तो परमात्मा है, आपकी शक्ति बढ़ जायेगी और लोफरों से चित्त लगाया तो आपकी शक्ति कम हो जायेगी।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, चिंता, शोक ये लोफर हैं, आने जाने वाले हैं लेकिन आप सदा रहने वाले हैं। तो आप शुद्ध हैं ये अशुद्ध हैं, आप नित्य हैं ये अनित्य हैं। नित्य नित्य से प्रीति करे। बेईमानी अनित्य है, आत्मा नित्य है। तो बेईमानी करके आत्मा के ऊपर पर्दा क्यों डालें !

सत्य समान तप नहीं, झूठ समान नहीं पाप।

कपट-बेईमानी करके, विकारों को महत्त्व देकर जीव तुच्छ हो जाता है। सच्चाई से साधन-भजन करे। एकलव्य की नाईं गुरुमूर्ति या भगवान को एकटक देखते हुए कम से कम दस मिनट 'हरि ॐ' का लम्बा उच्चारण करे। फिर गुरुमंत्र का जप करते हुए त्रिबन्धयुक्त प्राणायाम करे तो तुच्छ से तुच्छ आदमी भी महान हो जायेगा। गुरु की प्रतिमा से प्रकाश आने लगता है, गुरु प्रकट हो जाते हैं। सपने में बातचीत होने लगती है, प्रेरणा देने लगते हैं। लोफरों से छुटकारा मिलने लगता है। अंतर्यात्रा शुरु हो जाती है, जीवन रसमय होने लगता है। साधक का हृदय प्रभु के प्रसाद से, आत्मबल से सम्पन्न हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 207

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