गुरुवार, अप्रैल 22, 2010

आत्मचिंतन की महिमा


एक राजा था। रनवास में बहुत सुविधाएँ रखी थीं। ऐसी ऐसी रानियाँ थीं कि राजा को रनवास से बाहर ही न आने देतीं थीं। इत्र आदि चीजें ऐसी होती हैं कि आदमी को रजस् और तमस् में बाँधे रखती हैं, नीचे के केन्द्रों में ही ले जाती हैं।

राजा महल में ही रहने लगा।

राजा का वजीर विश्वासपात्र था। वह सब राजकाज सँभाल लेता था। प्रजा को तथा अमलदार वर्ग को पता चला कि राजा साहब आजकल सप्ताह-सप्ताह तक, पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक, महीने-महीने तक रनवास में ही रहते हैं। सब अमलदार मनमाना करने लगे।

दीवान ने देखा कि राजा साहब आते नहीं और मेरे नियंत्रण में अमलदार रहते नहीं। राज्य में अन्धाधुन्धी हो रही है। प्रजा का बुरी तरह शोषण हो रहा है। बदमाश लोग प्रजा का खून चूस रहे हैं।

वजीर ने जाकर महल का दरवाजा खटखटाया। रानियों ने सोचा कि मूँआ दीवान आया है, राजा साहब को कोई सूचना देगा, राजा साहब हमको छोड़कर दरबार में चले जाएँगे। रानियों ने दीवान को आँखें दिखायी।

दीवान बोलाः "अच्छा ! राजा साहब से मिलने नहीं देती तो कोई बात नहीं लेकिन यह चिट्ठी तो उन्हें पहुँचा देना।"

रानियों ने कहाः "तू चला जा। अगर दुबारा आया तो दासियों से पिटाई करवा देंगे।"

आठ-दस, बारह-पन्द्रह दिन हो गये लेकिन राजा बाहर नहीं आया। वजीर ने सोचा की अभी राजा साहब को चिट्ठी मिली नहीं। अरे राम ! राज्य लुटा जा रहा है। गुन्डों ने प्रजा को घेर लिया है। महीनों भर अपने महल से राजा साहब बाहर ही नहीं आते। दीवान को मुलाकात ही नहीं देते !

वजीर को वैराग्य हो आया। 'मेरे होते होते राज्य जल रहा है.... मुझसे देखा नहीं जाता। क्या करूँ ?' वजीर चुपचाप बैठ गया...... शान्त.....। भीतर से आवाज आयी किः 'एक दिन जलना है। उसको देखकर क्या जलता है ? जो बुझाना है उसको बुझा। अपनी पकड़ और आग्रह है उसको बुझा।'

वजीर चला गया जंगल में। महल के पीछे के इलाके में जाकर बैठ गया। प्रजा में हाहाकार मच गया। सूबेदारों ने राजा के महल के द्वार खटखटाये। राजा ने द्वार खोला तो सूबेदारों ने कहाः

"महाराज ! दीवान चले गये, कई दिन हो गये। अब तो बिल्कुल अन्धाधुधी हो गई है।"

"दीवान चला गया ? वह तो मेरा विश्वासपात्र था ! उसके भरोसे तो मैं निश्चिन्त था। वह चला गया ?"

"हाँ महाराज ! वे चिट्ठी लेकर महल में आये थे। दो-दो दिन, पाँच-पाँच दिन खड़े रहे लेकिन उनको आपकी मुलाकात नहीं हुई। आखिर थककर वे चले गये।"

"कहाँ गया ?"

"जंगल में। झोंपड़ी बाँधकर बैठ गये हैं ध्यानस्थ।"

राजा पहुँचा वजीर के पास और बोलाः

राजा पहुँचा वजीर के पास और बोलाः

"तू मेरा विश्वासपात्र दीवान है। सब छोड़कर जंगल में बैठा है। क्या फायदा हुआ ?"

"महाराज ! फायदा यह हुआ कि मैं कई दिनों तक कई बार आपके महल के द्वार पर खड़ा रहा। रानी साहेबाओं ने बुरी तरह डाँटा। आपकी मुलाकात नहीं हुई। अब सब कुछ छोड़कर झोंपड़े में परमात्मा-चिन्तन में रह रहा हूँ तो आप खुद चल कर मेरे पास आये। मुझे लाभ हुआ कि नहीं हुआ ?"

पर के चिन्तन से हमारी शक्ति क्षीण होती है। स्व (आत्म-परमात्मा) के चिन्तन से शक्ति जागृत होती है, बढ़ती है।

स्व क्य है ? पर क्या है ? हम निष्पाप कैसे हों ? हमारे कल्मष दूर कैसे हों ? जब तक कल्मष हैं तब तक ज्ञान नहीं होता। जब तक ज्ञान नहीं होता तब तक सब कल्मष नहीं जाते। जैसे नाविक नाव को ले जाता है, नाव नाविक को ले भागती है ऐसे ही ये भी एक दूसरे के पोषक हैं। कल्मष जाएँगे तो ज्ञान बढ़ेगा। ज्ञान बढ़ेगा तो कल्मष जाएँगे।

कल्मष होते क्या हैं ? कल्मष होते हैं पर का चिन्तन अधिक बढ़ जाने से। स्व का अज्ञान.... स्व की विस्मृति हो जाती है। चित्त मलिन होता है।

चित्त को शुद्ध करने का उत्तम से उत्तम एक तरीका है। वह आसान भी है। सब अवस्थाओं में कर सकते है। सब जगह समाधि नही कर सकते। सब जगह कीर्तन नहीं कर सकते। बस में बैठे कीर्तन करेंगे तो लोग भगतड़ा कहकर उपहास करेंगे। आप पर का चिन्तन छोड़कर स्व की स्मृति कहीं भी कर सकते हैं। बस में भी कर सकते हैं और बाजार में भी।

स्व की स्मृति करने के लिए प्रारंभ में थोड़ा एकान्त चाहिए लेकिन अभ्यास हो जाने पर वह कहीं भी कर सकते हैं।

स्व क्या है, पर क्या है यह समझ लें।

जिसको रखने से न रहे उसको बोलते हैं पर। जिसको छोड़ने से भी न छूटे उसको बोलते हैं स्व। जिसको आप कभी छोड़ नहीं सकते वह है स्व। जिसको आप सदा रख नहीं सकते वह है पर। मकान, दुकान, घर, गाड़ी यह जो कुछ भी है वह पर है। अपना शरीर भी पर है, स्व नही है। अगर शरीर स्व होता तो वह कहने में चलता। तुम नहीं चाहते कि बाल सफेद हों, तुम नहीं चाहते हो कि चेहरे पर झुर्रियाँ पड़े, तुम नहीं चाहते कि शरीर में कोई भी रोग हो। शरीर पर है।

उपनिषद में आता है कि जो स्वाभाविक होता है वह मिटता नहीं। जो आस्वाभाविक होता है उसको रखने की इच्छा नहीं होती। बर्फ की ठण्डक मिटाने के लिए आपकी इच्छा नहीं होगी। अग्नि की गर्मी मिटाने के लिए आपकी इच्छा नहीं होगी। ठण्डा होना बर्फ का स्वभाव है। गर्म होना अग्नि का स्वभाव है। मुँह में दाँत होना स्वाभाविक है लेकिन दाँत में तिनका होना अस्वाभाविक है इसलिए तिनका निकालकर ही चैन लेते हैं। आँखों के पोपचों में बाल स्वाभाविक हैं लेकिन बाल आँख में घुस जाता है तो वह खटकता है। उसे निकालना पड़ता है। खटकता वह है जो अस्वाभाविक है। जो स्वाभाविक होता है वह सुख देता है।

शान्ति पाना स्वाभाविक है। आपकी वह माँग है। घर-बार, पुत्र-परिवार छोड़कर शहर से बाहर आश्रम में सत्संग सुनने आ जाते है तो शान्ति पाना स्वाभाविक है। सत्संग के वातावरण में आकर कोई लफंगा फिल्मी गीत गाने लग जाए तो यह आपको अस्वाभाविक लगेगा। उसे आप तुरन्त चुप कर देंगे।

सदा रहना आपका स्वभाव है। आप नहीं चाहते कि मैं मर जाऊँ। जानना आपका स्वभाव है। आप अज्ञानी, मूर्ख नहीं रहना चाहते है। कोई आपको अज्ञानी कहकर पुकारे तो आपको खटकेगा। आप अज्ञान नहीं चाहते। आप मौत नहीं चाहते। आप दुःख नहीं चाहते। आप सदा रहना चाहते हैं, ज्ञान चाहते हैं और आनन्द चाहते हैं।

आप सत् हैं इसलिए सदा रहना चाहते हैं। आप चित् हैं इसलिए ज्ञान चाहते हैं। आप आनन्द स्वरूप हैं इसलिए आनन्द चाहते है। असत्, जड़ और दुःखरूप हो जाना यह अस्वाभाविकता है। आप यह अस्वाभाविकता त्यागकर अपनी असली स्वाभाविकता पाना चाहते हैं। सच्चिदानन्द आपका स्वभाव है। आप मृत्यु से बचना चाहते हैं, अज्ञान और दुःख मिटाना चाहते हैं। अज्ञान आपको अखरता है क्योंकि आप ज्ञानस्वरूप हैं, दुःख आपको अखरता है क्योंकि आप आनन्दस्वरूप हैं, दुःख आता है तो आप बेचैन होते हैं। सुख में वर्ष के वर्ष बीत जाते हैं तो कोई पता नहीं चलता लेकिन आपकी किसी मान्यता को ठेस पहुँची तो आप दुःखी हो गये। दुःख आता है तो आप दुःख मिटाने की कोशिश करते हैं। सुख आता है तो सुख मिटाने की कभी कोशिश की ? ऐसा कोई माई का लाल देखा जिसको आनन्द ही आनन्द मिला और उसे मिटाने की कोशिश की हो ? सुख और आनन्द मिटाने की कोशिश कोई नहीं करता फिर भी वह मिट तो जाता ही है। दुःख वापस आ ही जाता है। क्यों ? क्या कारण है ? सुख और आता रहे... आनन्द और आता रहे.... आता रहे... ऐसी चाह करते-करते पर का चिन्तन हुआ और आनन्द भाग गया।

स्व का माने हमारा स्वभाव है सत्, चित् और आनन्द। पर का स्वभाव है असत्, जड़ और दुःख।

असत् पहले था नहीं, बाद में रहेगा नहीं। जड़ को तो पता ही नहीं कि मैं हूँ। देह जड़ है, पाँच भूतों का पुतला है। सुबह से रात तक, जीवन से मौत तक इसको खिलाओ-पिलाओ, नहलाओ, घुमाओ लेकिन देखो तो कभी न कभी कोई न कोई शिकायत जरूर होगी।

तन धरिया कोई न सुखिया देखा।

जो देखा सो दुखिया रे।।


'डॉक्टर साब ! दवा कर दो, बहुत पीड़ा हो रही है....' लेकिन डाक्टर सा'ब को पूछो कि अपना क्या हाल है ? अपनी पत्नी का क्या हाल है ? सुबह इन्जेक्शन लेकर अस्पताल में जाता हूँ बाबाजी !'

मैं ऐसे डाक्टरों को जानता हूँ जिन्होंने अपने इलाके में नाम कमाया है। उनके बाप उनको मेरे पास ले आये और प्रार्थना करने लगे किः

"स्वामी जी ! आप इसको समझाइये। इसने नाम कमाया है, मरीजों को तो ठीक करता है लेकिन खुद इतना बेठीक है कि रोज नशे के इन्जेक्शन लेता है। M.B.B.S. की डिग्री भी है, कमाता भी है, प्रैक्टीस भी अच्छी चलती है लेकिन कभी नशे-नशे में किसी मरीज का बेड़ा गर्क कर देता है। यह हिन्दुस्तान है बाबा जी ! सब चल रहा है। परदेश में प्रैक्टीस करता तो वहाँ के लोग और सरकार इसको दिन के तारे दिखा देती। आप आशीर्वाद करो।"

स्थूल, सूक्ष्म या कारण शरीर में, किसी में भी, 'मैं' पना है तो अभी ज्ञान नहीं हुआ। ज्ञान हुआ नहीं तो असत्, जड़ और दुःख का सम्बन्ध छूटा नहीं। जब तक असत्, जड़ और दुःख का सम्बन्ध नहीं छूटा तब तक सत्, चित्, और आनन्द स्वरूप में प्रीति नहीं होती। ऐसा नहीं है कि सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप आयेगा, मिलेगा, हम वहाँ पहुँचेंगे। सत्-चित्-आनन्द यह आत्मा का स्वभाव है। आत्मा आपका स्व है। देह पर है। पर का स्वभाव है असत्-जड़-दुःख।

आत्मा और देह का परस्पर अध्यास हो गया। एक का स्वभाव दूसरे में दिखने लगा। आत्मा का अध्यास देह में होने लगा इसलिए आप देह से सदा रहना चाहते हैं। देह से सब जानना चाहते हैं। देह से सदा सुखी रहना चाहते हैं। ऐसे पर के चिन्तन की आदत पड़ गई। यह आदत पुरानी है इसीलिए अभ्यास की जरूरत पड़ती है।

तत्त्वज्ञान समझने में जो असमर्थ हैं उनके लिए योग सुगम उपाय है। प्राण-अपान की गति को सम करके भ्रूमध्य में प्रणव की धारणा करें। इससे पर का स्वभाव छूटेगा। स्व का आनन्द प्रकट होगा। सत् चित् आनन्द स्वभाव बढ़ेगा।

एकान्त में जाकर बैठो। चाँद सितारों को निहारो। निहारते निहारते सोचो कि वे दूर दिख रहे हैं, बाहर से दूर दिख रहे हैं। भीतर से देखा जाए कि मैं वहाँ तक व्यापक न होता तो वे मुझे नहीं दिखते। मेरी ही टिमटिमाहट उनमें चमक रही है। मैं ही चाँद में चमक रहा हूँ... सितारों में टिमटिमा रहा हूँ।

कीड़ी में तू नानो लागे हाथी में तूँ मोटो क्यूँ।

बन महावत ने माथे बेठो होंकणवाळो तूँ को तूँ।

ऐसो खेल रच्यो मेरे दाता जहाँ देखूँ वहाँ तूँ को तूँ।।

इस प्रकार स्व का चिनत्न करने से सामने दिखेगा पर लेकिन पर में छुपे हुए स्व की स्मृति आ जाए तो आपको खुली आँख समाधि लग सकती है और योग की कला आ जाए तो बन्द आँख भी समाधि लग सकती है।

सतत खुली आँख रखना भी संभव नहीं और सतत आँख बन्द करना भी संभव नही। जब आँख बन्द करने का मौका हो तब बन्द आँख के द्वारा यात्रा कर लें और आँख खोलने का मौका हो तो खुली आँख से यात्रा कर लें। यात्रा करने का मतलब ऐसा नहीं है कि कहीं जाना है। पर के चिन्तन से बचना है, बस। यह प्रयोग लगता तो इतना सा है लेकिन इससे बहुत लाभ होता है।


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