शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

'आज रोकड़ा.... काले उधार।'


हम शांत सुखस्वरूप आत्मा हैं। तूफान से सरोवर में लहरें उठ रही थीं। तूफान शान्त हो गया। सरोवर निस्तरंग हो गया। अब जल अपने स्वभाव में शान्त स्थित है। इसी प्रकार अहंकार और इच्छाओं का तूफान शान्त हो गया। मेरा चित्तरूपी सरोवर अहंकार और इच्छाओं से रहित शान्त हो गया। अब हम बिल्कुल निःस्पंद अपनी महिमा में मस्त हैं।
मन की मनसा मिट गई भरम गया सब दूर।
गगन मण्डल में घर किया काल रहा सिर कूट।।

इच्छा मात्र, चाहे वह राजसिक हो या सात्त्विक हो, हमको अपने स्वरूप से दूर ले जाती है। ज्ञानवान इच्छारहित पद में स्थित होते हैं। चिन्ताओं और कामनाओं के शान्त होने पर ही स्वतंत्र वायुमण्डल का जन्म होता है।

हम वासी उस देश के जहाँ पार ब्रह्म का खेल।
दीया जले अगम का बिन बाती बिन तेल।।

आनन्द का सागर मेरे पास था मुझे पता न था। अनन्त प्रेम का दरिया मेरे भीतर लहरा रहा था और मैं भटक रहा था संसार के तुच्छ सुखों में।
ऐ दुनियाँदारों ! ऐ बोतल की शराब के प्यारों ! बोतल की शराब तुम्हें मुबारक है। हमने तो अब फकीरों की प्यालियाँ पी ली हैं..... हमने अब रामनाम की शराब पी ली है।
दूर हटो दुनियाँ की झंझटों ! दूर हटो रिश्तेनातों की जालों ! हमने राम से रिश्ता अपना बना लिया है।
हम उसी परम प्यारे को प्यार किये जा रहे हैं जो वास्तव में हमारा है।
'आत्मज्ञान में प्रीति, निरन्तर आत्मविचार और सत्पुरूषों का सान्निध्य' – यही आत्म-साक्षात्कार की कुँजियाँ हैं।
हम निःसंकल्प आत्म-प्रसाद में प्रवेश कर रहे हैं। जिस प्रसाद में योगेश्वरों का चित्त प्रसाद पाता है, जिस प्रसाद में मुनियों का चित्त मननशील होता है उस प्रसाद में हम आराम पाये जा रहे हैं।
तुम्हें मृत्युदण्ड की सजा मिलने की तैयारी हो, न्यायाधीश सजा देने के लिए कलम उठा रहा हो, उस एक क्षण के लिए भी यदि तुम अपने आत्मा में स्थित हो जाओ तो न्यायाधीश से वही लिखा जायेगा जो परमात्मा के साथ तुम्हारी नूतन स्थिति के अनुकूल होगा, तुम्हारे कल्याण के अनुकूल होगा।
दुःख का पहाड़ गिरता हो और तुम परमात्मा में डट जाओ तो वह पहाड़ रास्ता बदले बिना नहीं रह सकता। दुःख का पहाड़ प्रकृति की चीज है। तुम परमात्मा में स्थित हो तो प्रकृति परमात्मा के खिलाफ कभी कदम नहीं उठाती। ध्यान में जब परमात्म-स्वरूप में गोता मारो तो भय, चिन्ता, शोक, मुसीबत ये सब काफूर हो जाते हैं। जैसे टॉर्च का प्रकाश पड़ते ही ठूँठे में दिखता हुआ चोर भाग जाता है वैसे ही आत्मविचार करने से, आत्म-भाव में आने मात्र से भय, शोक, चिन्ता, मुसीबत, पापरूपी चोर पलायन हो जाते हैं। आत्म-ध्यान में गोता लगाने से कई जन्मों के कर्म कटने लगते हैं। अभी तो लगेगा कि थोड़ी शान्ति मिली, मन पवित्र हुआ लेकिन कितना अमाप लाभ हुआ, कितना कल्याण हुआ इसकी तुम कल्पना तक नहीं कर सकते। आत्म ध्यान की युक्ति आ गयी तो कभी भी विकट परिस्थितियों के समय ध्यान में गोता मार सकते हो।
मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध और जालंधर बन्ध, यह तीन बन्ध करके प्राणायाम करें, ध्यान करें तो थोड़े ही दिनों में अदभुत चमत्कारिक लाभ हो जायगा। जीवन में बल आ जायगा। डरपोक होना, भयभीत होना, छोटी-छोटी बातों में रो पड़ना, जरा-जरा बातों में चिन्तातुर हो जाना यह सब मन की दुर्बलताएँ हैं, जीवन के दोष हैं। इन दोषों की निकालने के लिए ॐ का जप करना चाहिए। प्राणायाम करना चाहिए। सत्पुरूषों का संग करना चाहिए।
जो तुम्हें शरीर से, मन से, बुद्धि से दुर्बल बनाये वह पाप है। पुण्य हमेशा बलप्रद होता है। सत्य हमेशा बलप्रद होता है। तन से, मन से, बुद्धि से और धन से जो तुम्हें खोखला करे वह राक्षस है। जो तुम्हें तन-मन-बुद्धि से महान् बनायें वे संत हैं।
जो आदमी डरता है उसे डराने वाले मिलते हैं।
त्रिबन्ध के साथ प्राणायाम करने से चित्त के दोष दूर होने लगते हैं, पाप पलायन होने लगते हैं, हृदय में शान्ति और आनन्द आने लगता है, बुद्धि में निर्मलता आने लगती है। विघ्न, बाधाएँ, मुसीबतें किनारा करने लगती हैं।
तुम ईश्वर में डट जाओ। तुम्हारा दुश्मन वही करेगा जो तुम्हारे हित में होगा। ॐ का जप करने से और सच्चे आत्मवेत्ता संतों की शरण में जाने से कुदरत ऐसा रंग बदल देती है कि भविष्य ऊँचा उठ जाता है।
अचल संकल्प-शक्ति, दृढ़ निश्चय और निर्भयता होनी चाहिए। इससे बाधाएँ ऐसी भागती हैं जैसे आँधी से बादल। आँधी चली तो बादल क्या टिकेंगे ?
मुँह पर बैठी मक्खी जरा-से हाथ के इशारे से उड़ जाती है ऐसे ही चिन्ता, क्लेश, दुःख हृदय में आयें तब जरा सा ध्यान का इशारा करो तो वे भाग जायेंगे। यह तो अनुभव की बात है। डरपोक होने से तो मर जाना अच्छा है। डरपोक होकर जिये तो क्या जिये ? मूर्ख होकर जिये तो क्या जिये ? भोगी होकर जिये तो क्या खाक जिये ? योगी होकर जियो। ब्रह्मवेत्ता होकर जियो। ईश्वर के साथ खेलते हुए जियो।
कंजूस होकर जिये तो क्या जिये ? शिशुपाल होकर जिये तो क्या जिये ? शिशुपाल यानी जो शिशुओं को, अपने बच्चों को पालने-पोसने में ही अपना जीवन पूरा कर दे। भले चार दिन की जिन्दगी हो, चार पल की जिन्दगी हो लेकिन हो आत्मभाव की। चार सौ साल जिया लेकिन अज्ञानी होकर जिया तो क्या खाक जिया ? मजदूरी की और मरा। जिन्दगी जीना तो आत्मज्ञान की।
भूतकाल जो गुजर गया उसके लिये उदास मत हो। भविष्य की चिन्ता मत करो। जो बीत गया उसे भुला दो। जो आता है उसे हँसते हुए गुजारो। जो आयेगा उसके लिए विमोहित न हो। आज के दिन मजे में रहो। आज का दिन ईश्वर के लिए। आज खुश रहो। आज निर्भय रहो। यह पक्का कर दो। 'आज रोकड़ा.... काले उधार।' इसी प्रकार आज निर्भय....। आज नहीं डरते। कल तो आयेगी नहीं। जब कल नहीं आयेगी तो परसों कहाँ से आयेगी ? जब आयेगी तो आज होकर ही आयेगी।
आदमी पहले भीतर से गिरता है फिर बाहर से गिरता है। भीतर से उठता है तब बाहर से उठता है। बाहर कुछ भी हो जाय लेकिन भीतर से नहीं गिरो तो बाहर की परिस्थितियाँ तुम्हारे अनुकूल हो जायेंगी।
विघ्न, बाधाएँ, दुःख, संघर्ष, विरोध आते हैं वे तुम्हारी भीतर की शक्ति जगाने कि लिए आते है। जिस पेड़ ने आँधी-तूफान नहीं सहे उस पेड़ की जड़ें जमीन के भीतर मजबूत नहीं होंगी। जिस पेड़ ने जितने अधिक आँधी तूफान सहे और खड़ा रहा है उतनी ही उसकी नींव मजबूत है। ऐसे ही दुःख, अपमान, विरोध आयें तो ईश्वर का सहारा लेकर अपने ज्ञान की नींव मजबूत करते जाना चाहिए। दुःख, विघ्न, बाधाएँ इसलिए आती हैं कि तुम्हारे ज्ञान की जड़ें गहरी जायें। लेकिन हम लोग डर जाते है। ज्ञान के मूल को उखाड़ देते हैं।

लेबल: , , , , , , ,

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ