बुधवार, अप्रैल 07, 2010

अनन्य योग



मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।

विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि।।


"मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना (यह ज्ञान है)।"

(भगवद् गीताः 13.19)
अनन्य भक्ति और अव्यभिचारिणी भक्ति अगर भगवान में हो जाय, तो भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं है। भगवान प्राणिमात्र का अपना आपा है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति के सिवाय अन्य पुरूष में पतिभाव नहीं रखती, ऐसे ही जिसको भगवत्प्राप्ति के सिवाय और कोई सार वस्तु नही दिखती, ऐसा जिसका विवेक जाग गया है, उसके लिए भगवत्प्राप्ति सुगम हो जाती है। वास्तव में, भगवत्प्राप्ति ही सार है। माँ आनन्दमयी कहा करती थीं- "हरिकथा ही कथा...... बाकी सब जग की व्यथा।"

मेरे प्रति अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन समुदाय में प्रीति न होना.... इस प्रकार की जिसकी भक्ति होती है, उसे ज्ञान में रूचि होती है। ऐसा साधक अध्यात्मज्ञान में नित्य रमण करता है। तत्त्वज्ञान के अर्थस्वरूप परमात्मा को सब जगह देखता है। इस प्रकार जो है, वह ज्ञान है। इससे जो विपरीत है, वह अज्ञान है।

हरिरस को, हरिज्ञान को, हरिविश्रान्ति को पाये बिना जिसको बाकी सब व्यर्थ व्यथा लगती है, ऐसे साधक की अनन्य भक्ति जगती है। जिसकी अनन्य भक्ति है भगवान में, जिसका अनन्य योग हो गया है भगवान से, उसको जनसंपर्क में रूचि नहीं रहती। सामान्य इच्छाओं को पूर्ण करने में, सामान्य भोगों को भोगने में जीवन नष्ट करते है, ऐसे लोगों में सच्चे भक्त को रूचि नहीं होती। पहले रूचि हुई तब हुई, किन्तु जब अनन्य भक्ति मिली तो फिर उपरामता आ जायेगी। व्यवहार चलाने के लिए लोगों के साथ 'हूँ...हाँ...' कर लेगा, पर भीतर से महसूस करेगा कि यह सब जल्दी निपट जाय तो अच्छा।

अनन्य भक्ति जब हृदय में प्रकट होती है, तब पहले का जो कुछ किया होता है, वह बेगार सा लगता है। एकान्त देश में रहने की रूचि होती है। जनसंपर्क से वह दूर भागता है। आश्रम में सत्संग कार्यक्रम, साधना शिविरें आदि को जनसंसर्ग नहीं कहा जा सकता। जो लोग साधन भजन के विपरीत दिशा में जा रहे हैं, देहाध्यास बढ़ा रहे हैं, उनका संसर्ग साधक के लिए बाधक है। जिससे आत्मज्ञान मिलता है, वह जनसंपर्क तो साधन मार्ग का पोषक है। जनसाधारण के बीच साधक रहता है तो देह की याद आती है, देहाध्यास बढ़ता है, देहाभिमान बढ़ता है। देहाभिमान बढ़ने पर साधक परमार्थ तत्त्व से च्युत हो जाता है, परम तत्त्व में शीघ्र गति नहीं कर सकता। जितना देहाभिमान, देहाध्यास गलता है, उतना वह आत्मवैभव को पाता है। यही बात श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने कहीः

गलिते देहाध्यासे विज्ञाते परमात्मनि।

यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।

जब देहाध्यास गलित होता है, परमात्मा का ज्ञान हो जाता है, तब जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ समाधि का अनुभव होता है, समाधि का आनन्द आता है।

देहाध्यास गलाने के लिए ही सारी साधनाएँ हैं। परमात्मा-प्राप्ति के लिये जिसको तड़प होती है, जो अनन्य भाव से भगवान को भजता है, 'परमात्मा से हम परमात्मा ही चाहते हैं.... और कुछ नहीं चाहते.....' ऐसी अव्यभिचारिणी भक्ति जिसके हृदय में होती है, उसके हृदय में भगवान ज्ञान का प्रकाश भर देते हैं।

जो धन से सुख चाहते हैं, वैभव से सुख चाहते है, वे लोग साधना परिश्रम करके, साधना और परिश्रम के बल पर रहते हैं लेकिन जो भगवान के बल पर भी भगवान को पाना चाहते हैं, भगवान की कृपा से ही भगवान को पाना चाहते हैं, ऐसे भक्त अनन्य भक्त हैं।

गोरा कुम्हार भगवान का कीर्तन करते थे। कीर्तन करते-करते देहाध्यास भूल गये। मिट्टी रौंदते-रौंदते मिट्टी के साथ बालक भी रौंदा गया। पता नहीं चला। पत्नी की निगाह पड़ी। वह बोल उठीः

"आज के मुझे स्पर्श मत करना।"

"अच्छा ठीक है....।"

भगवान में अनन्य भाव था तो पत्नी नाराज हो गई, फिर भी दिल को ठेस नहीं पहुँची। स्पर्श नहीं करना... तो नहीं करेंगे। पत्नी को बड़ा पश्चाताप हुआ कि गलती हो गई। अब वंश कैसे चलेगा ? अपने पिता से कहकर अपनी बहन की शादी करवाई। सब विधि सम्पन्न करके जब वह-वधू विदा हो रहे थे, तब पिता ने अपने दामाद गोरा कुम्हार से कहाः

"मेरी पहली बेटी को जैसे रखा है, ऐसे ही इसको भी रखना।"

"हाँ.. जो आज्ञा।"

भगवान से जिसका अनन्य योग है, वह तो स्वीकार ही कर लेगा। गोरा कुम्हार दोनों पत्नियों को समान भाव से देखने लगे। दोनों पत्नियाँ दुःखी होने लगीं। अब इनको कैसे समझाएँ ? तर्क वितर्क देकर पति को संसार में लाना चाहती थीं लेकिन गोरा कुम्हार का अनन्य भाव भगवान में जुड़ चुका था।

आखिर दोनों बहनों ने एक रात्रि को अपने पति का हाथ पकड़कर जबरदस्ती अपने शरीर तक लाया। गोरा कुम्हार ने सोचा कि मेरा हाथ अपवित्र हो गया। उन्होंने हाथ को सजा कर दी।

भगवान ने अनन्य भाव होना चाहिए। अनन्य भाव माने जैसे पतिव्रता स्त्री और किसी पुरूष को पति भाव से नहीं देखती, ऐसे ही भक्त या साधक भी और किसी साधना से अपना कल्याण होगा और किसी व्यक्ति के बल से अपना मोक्ष होगा, ऐसा नहीं सोचता। 'हमें तो भगवान की कृपा से भगवान के स्वरूप का ज्ञान होगा, तभी हमारा कल्याण होगा। भगवान की कृपा ही एकमात्र सहारा है, इसके अलावा और किसी साधना में हम नहीं रूकेंगे.... हे प्रभु ! हमें तो केवल तेरी कृपा और तेरे स्वरूप की प्राप्ति चाहिए.... और कुछ नहीं चाहिए।' भगवान पर जब ऐसा अनन्य भाव होता है, तब भगवान कृपा करके भक्त के अन्तःकरण की पर्तें हटाने लगते हैं।

हमारा अपना आपा कोई गैर नहीं है, दूर नहीं है, पराया नहीं है और भविष्य में मिलेगा ऐसा भी नहीं है। वह अपना राम, अपना आपा अभी है, अपना ही है। इस प्रकार का बोध सुनने की और इस बोध में ठहरने की रूचि हो जायेगी। अनन्य भाव से भगवान का भजन यह परिणाम लाता है।

अनन्य भाव माने अन्य-अन्य को देखे, पर भीतर से समझे कि इन सबका अस्तित्त्व एक भगवान पर ही आधारित है। आँख अन्य को देखती है, कान अन्य को सुनते हैं, जिह्वा अन्य को चखती है, नासिका अन्य को सूँघती है, त्वचा अन्य को स्पर्श करती है। उसके साक्षी दृष्टा मन को जोड़ दो, तो मन एक है। मन के भी अन्य-अन्य विचार हैं। उनमें भी मन का अधिष्ठान, आधारभूत अनन्य चैतन्य आत्मा है। उसी आत्मा परमात्मा को पाना है। न मन की चाल में आना है, न इन्द्रियों के आकर्षण में आना है।

इस प्रकार की तरतीव्र जिज्ञासावाला भक्त, अनन्य योग करने वाला साधक हल्की रूचियों और हल्की आसक्तियोंवाले लोगों से अपनी तुलना नहीं करता।

चैतन्य महाप्रभु को किसी ने पूछाः "हरि का नाम एक बार लेने से क्या लाभ होता है ?"

"एक बार अनन्य भाव से हरि का नाम ले लेंगे तो सारे पातक नष्ट हो जायेंगे।"

"दूसरी बार लें तो ?"

"दूसरी बार लेंगे तो हरि का आनन्द प्रकट होने लगेगा। नाम लो तो अनन्य भाव से लो। वैसे तो भिखमंगे लोग सारा दिन हरि का नाम लेते हैं, ऐसों की बात नहीं है। अनन्य भाव से केवल एक बार भी हरि का नाम ले लिया जाये तो सारे पातक नष्ट हो जाएँ।

लोग सोचते हैं कि हम भगवान की भक्ति करते हैं, फिर भी हमारा बेटा ठीक नहीं होता है। अन्तर्यामी भगवान देख रहे हैं कि यह तो बेटे का भगत है।

'हे भगवान ! मेरे इतने लाख रूपये हो जायें तो उन्हें फिक्स करके आराम से भजन करूँगा.....' अथवा 'मेरा इतना पेन्शन हो जाय, फिर मैं भजन करूँगा...' तो आश्रय फिक्स डिपोजिट का हुआ अथवा पेन्शन का हुआ। भगवान पर तो आश्रित नहीं हुआ। यह अनन्य भक्ति नहीं है। नरसिंह मेहता ने कहाः

भोंय सुवाडुं भूखे मारूँ उपरथी मारूँ मार।

एटलु करतां हरि भजे तो करी नाखुं निहाल।।


जीवन में कुछ असुविधा आ जाती है तो भगवान से प्रार्थना करते हैं- 'यह दुःख दूर को दो प्रभु !' हम भगवान के नहीं सुविधा के भगत हैं। भगवान का उपयोग भी असुविधा हटाने के लिए करते हैं। असुविधा हट गई, सुविधा हो गई तो उसमें लेपायमान हो जाते हैं। सोचते हैं, बाद में भजन करेंगे। यह भगवान की अनन्य भक्ति नहीं है। भगवान की भक्ति अनन्य भाव से की जाय तो तत्त्वज्ञान का दर्शन होने लगे। आत्मज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा जाग उठे। जन-संसर्ग से विरक्ति होने लगे।

एकान्तवासो लघुभोजनादि। मौनं निराशा करणावरोधः।।

मुनेरसोः संयमनं षडेते। चित्तप्रसादं जनयन्ति शीघ्रम्।।


'एकान्त में रहना, अल्पाहार, मौन, कोई आशा न रखना, इन्द्रिय-संयम और प्राणायाम, ये छः मुनि को शीघ्र ही चित्तप्रसाद की प्राप्ति कराते हैं।'

एकान्तवास, इन्द्रियों को अल्प आहार, मौन, साधना में तत्परता, आत्मविचार में प्रवृत्ति... इससे कुछ ही दिनों में आत्मप्रसाद की प्राप्ति हो जाती है।

हमारी भक्ति अनन्य नहीं होती, इसलिए समय ज्यादा लग जाता है। कुछ यह कर लूँ... कुछ यह देख लूँ... कुछ यह पा लूँ.... इस प्रकार जीवन-शक्ति बिखर जाती है।

स्वामी रामतीर्थ एक कहानी सुनाया करते थेः

एटलान्टा नाम की एक विदेशी लड़की दौड़ लगाने में बड़ी तेज थी। उसने घोषणा की थी कि जो युवक मुझे दौड़ में हरा देगा, मैं अपनी संपत्ति के साथ उसकी हो जाऊँगी। उसके साथ स्पर्धा में कई युवक उतरे, लेकिन सब हार गये। सब लोग हारकर लौट जाते थे।

एक युवक ने अपने इष्टदेव जुपिटर को प्रार्थना की। इष्टदेव ने उसे युक्ति बता दी। दौड़ने का दिन निश्चित किया गया। एटलान्टा बड़ी तेजी से दौड़नेवाली लड़की थी। यह युवक स्वप्न में भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था, फिर भी देव ने कुछ युक्ति बता दी थी।

दौड़ का प्रारंभ हुआ। घड़ी भर में एटलान्टा कहीं दूर निकल गई। युवक पीछे रह गया। एटलान्टा कुछ आगे गई तो मार्ग में सुवर्णमुद्राएँ बिखरी हुई थीं। सोचा कि युवक पीछे रह गया है। वह आवे, तब तक मुद्राएँ बटोर लूँ। वह रूकी... मुद्राएँ इकट्ठी की। तब तक युवक नजदीक आ गया। वह झट से आगे दौड़ी। उसको पीछे कर दिया। कुछ आगे गई तो मार्ग में और सुवर्णमुद्राएँ देखी। वह भी ले ली। उसके पास वजन बढ़ गया। युवक भी तब तक नजदीक आ गया था। फिर लड़की ने तेज दौड़ लगाई। आगे गई तो और सुवर्णमुद्राएँ दिखी। उसने उसे भी ले ली। इस प्रकार एटलान्टा के पास बोझा बढ़ गया। दौड़ की रफ्तार कम हो गई। आखिर वह युवक उससे आगे निकल गया। सारी संपत्ति और रास्ते में बटोरी हुई सुवर्णमुद्राओं के साथ एटलान्टा को उसने जीत लिया।

एटलान्टा तेज दौड़ने वाली लड़की थी, पर उसका ध्यान सुवर्णमुद्राओं में अटकता रहा। विजेता होने की योग्यता होते हुए भी अनन्य भाव से नहीं दौड़ पायी, इससे वह हार गई।

ऐसे ही मनुष्य मात्र में परब्रह्म परमात्मा को पाने की योग्यता है। परमात्मा ने मनुष्य को ऐसी बुद्धि इसीलिए दे रखी है कि उसको आत्मा-परमात्मा के ज्ञान की जिज्ञासा जाग जाय, आत्मसाक्षात्कार हो जाय। रोटी कमाने की और बच्चों को पालने की बुद्धि तो पशु-पक्षियों को भी दी है। मनुष्य की बुद्धि सारे पशु-पक्षी-प्राणी जगत से विशेष है, ताकि वह बुद्धिदाता का साक्षात्कार कर सके। बुद्धि जहाँ से सत्ता-स्फूर्ति लाती है, उस परब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार करके जीव ब्रह्म हो जाय। केवल कुर्सी-टेबल पर बैठकर कलम चलाने के लिए ही बुद्धि नहीं मिली है। बुद्धिपूर्वक कलम तो भले चलाओ, परंतु बुद्धि का उपयोग केवल रोटी कमाकर पेट भरना ही नहीं है। कलम भी चलाओ तो परमात्मा को रिझाने के लिये और कुदाली चलाओ तो भी उसको रिझाने के लिए।

स्त्रोत - आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "अनन्य योग"

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