गुरुवार, अप्रैल 15, 2010

प्राप्ति और प्रतीती में अंतर


अमरदास नाम के एक संत हो गये। वे जब तीन साल के थे, तब माँ की गोद में बैठे-बैठे कुछ प्रश्न पूछने लगेः
"माँ ! मैं कौन हूँ ?"
बेटा ! तू मेरा बेटा है ?
"तेरा बेटा कहाँ है?"
माँ ने उसके सिर पर हाथ रखकर, उसके बाल सहलाते हुए कहाः "यह रहा मेरा बेटा।"
"ये तो सिर और बाल है।"
माँ ने दोनों गालों को स्पर्श करते हुए कहाः "यह है मेरा गुलड़ू।"
"ये तो गाल हैं।"
हाथ को छूकर माँ ने कहाः "यह है मेरा बेटा।"
"ये तो हाथ है।"
अमरदास वास्तव में गत जन्म के प्राप्ति की ओर चलने वाले साधक रहे होंगे। इसीलिए तीन साल की उम्र में ऐसा प्रश्न उठा रहे थे। साधक का हृदय तो पावन होता है। जिसका हृदय पावन होता है, वह आदमी अच्छा लगता है। पापी चित्तवाला आदमी आता है, उसको देखकर चित्त उद्विग्न होता है। श्रेष्ठ आत्मा आता है, पुण्यात्मा आता है तो उसको देखकर हृदय पुलकित होता है। इसी बात को तुलसीदासजी ने इस प्रकार कहा हैः
एक मिलत दारूण दुःख देवहिं।
दूसर बिछुड़त प्राण हर लेवहिं।।

क्रूर आदमी आता है तो चित्त में दुःख होने लगता है। सदगुणी, सज्जन जब हमसे बिछुड़ता है, दूर होता है, तब मानो हमारे प्राण लिये जा रहा है। अमरदास ऐसा ही मधुर बालक था। माँ का इतना वात्सल्य और इतना समझदार बेटा ! तीन वर्ष की उम्र में ऐसे-ऐसे प्रश्न करे ! हृदय में पूर्ण निर्दोषता है। निर्दोष बच्चा प्यारा लगता ही है। माँ ने अमरदास को छाती से लगा लिया।
"यह है मेरा बेटा।"
"यह तो शरीर है। यह शरीर कब से तेरे पास है ?"
"यह तो शादी के बाद मेरे पास आया।"
"तो माँ उसके पहले मैं कहाँ था ? शादी के बाद तेरे पास मैं नहीं आया। तुम्हारे शरीर से मेरे शरीर का जन्म हुआ। तुम्हारी शादी के पहले भी कहीं था। इसका अर्थ है कि शरीर मैं नहीं हूँ। यह शरीर नहीं था, तब भी मैं था। शरीर नहीं रहेगा, तब भी मैं रहूँगा। तो वह मैं कौन हूँ ?"
'मैं कौन हूँ ?' इसकी खोज प्राप्ति में पहुँचा देती है। 'मैं आसाराम हूँ..... मैं गोविन्दभाई हूँ...' यह प्रतीति है। यह शरीर भी प्रतीति है, शरीर के सम्बन्ध भी प्रतीति हैं, शरीर से सम्बन्धित जड़ वस्तु या चेतन व्यक्ति आदि सब प्रतीति मात्र हैं। प्रतीति जिसकी सत्ता से हो रही है, वह है प्राप्ति।
शरीर भी प्रतीति, इन्द्रियाँ भी प्रतीति। हाथ भी प्रतीति, आँख भी प्रतीति, कान भी प्रतीति। आँख ठीक से देख रही है कि नहीं देख रही है, कान ठीक से सुन रहे हैं कि नहीं सुन रहे हैं, यह भी प्रतीति हो रही है। मन में शान्ति है कि अशान्ति, इसकी भी प्रतीति हो रही है। बुद्धि में याद रहता है कि नहीं रहता, इसकी भी प्रतीति हो रही है।
प्रतीति जिसको होती है, उसको अगर खोजोगे तो प्राप्ति हो जायेगी, बेड़ा पार हो जायेगा।
हम लोग गलती करते हैं कि प्रतीति के साथ अपने को जोड़ देते हैं। प्रतीति होने वाले शरीर को 'मैं' मान लेते हैं। हम क्या हैं ? हम प्राप्ति तत्त्व है, उधर ध्यान नहीं जाता।
मंदिर वाले मंदिर में जा जाकर आखिर यमपुरी पहुँच जाते हैं, स्वर्गादि में पहुँच जाते हैं। मस्जिदवाले भी अपने ढंग से कहीं न कहीं पहुँच जाते हैं। अपने-आप में, आत्म-परमात्मा में कोई विरले ही आते हैं। जो प्राप्ति में डट जाता है, वह परमात्मा में आता है और बाकी के लोग लोक-लोकान्तर में और जन्म-मरण के चक्कर में भटकते रहते हैं। धन्य तो वे हैं जो अपने आप में आये, परमात्मा में आये। वे तो धन्य होते ही हैं, उनकी मीठी दृष्टि झेलने वाले भी धनभागी हो जाते हैं।
दैत्यगुरू शुक्राचार्य राजा वृषपर्वा के गुरू थे। वे उसी के नगर में रहते थे। शुक्राचार्य की पुत्री थी देवयानी। उसकी सहेली थी वृषपर्वा राजा की पुत्री शर्मिष्ठा। शर्मिष्ठा कुछ अपने स्वभाव की थी, प्रतीति में उलझी हुई लड़की थी। शरीर के रूप लावण्य, टिप-टाप आदि में रूचि रखने वाली थी।
एक बार दोनों सहेलियाँ स्नान करने गई। शर्मिष्ठा ने भूल से देवयानी के कपड़े पहन लिये। देवयानी भी गुरू की पुत्री थी, वह भी कुछ कम नही थी। उसने शर्मिष्ठा को सुना दियाः
"इतनी भी अक्ल नहीं है ? राजकुमारी हुई है और दूसरो के कपड़े पहन लेती है ? भूल जाती है ?"
शर्मिष्ठा ने गुस्से में देवयानी को उठाकर कुएँ में डाल दिया और चली गई। देवयानी दैत्यगुरू की पुत्री थी। दैवयोग से कुएँ में पानी ज्यादा नहीं था। वहाँ से गुजरते हुए राजा ययाति ने देवयानी की रूदन-पुकार सुनी और उसे बाहर निकलवाया।
शुक्राचार्य ने सोचाः जिस राजा की पुत्री अपनी गुरू पुत्री को कुएँ में डाल देती है, ऐसे पापी राजा के राज्य ने हम नहीं रहेंगे। वे राज्य छोड़कर जाने लगे। राजा को पता चला की शुक्राचार्य कुपित होकर जा रहे हैं और यह राज्य के लिए शुभ नहीं है। अतः कैसे भी करके उनको रोकन चाहिए। राजा पहुँचा शुक्राचार्य के चरणों में और माफी माँगने लगा। उन्होंने कहाः
"मुझसे माफी क्या माँगते हो ? गुरूपुत्री का अपमान हुआ है तो उसी को राजी करो।"
राजा देवयानी के पास गया।
"आज्ञा करो देवी ! आप कैसे सन्तुष्ट होंगी ?"
"मैं शादी करके जहाँ जाऊँ, वहाँ तुम्हारी बेटी शर्मिष्ठा मेरी दासी होकर चले। तुम अपनी बेटी मुझे दहेज में दे दो, वह मेरी दासी होकर रहेगी।"
राजा के लिए यह था तो कठिन, लेकिन दूसरा कोई उपाय नहीं था। अतः राजा को यह शर्त कबूल करना पड़ा। ययाति राजा के साथ देवयानी की शादी हो गई। राजकुमारी शर्मिष्ठा को दासी के रूप में देवयानी के साथ भेजा गया। शर्मिष्ठा तो सुन्दर थी। उस दासी के साथ राजा ययाति पत्नी का व्यवहार न करे, इसलिए शुक्राचार्य ने ययाति को वचनबद्ध कर लिया। फिर भी विषय-विकार के तूफान में ययाति का मन फिसल गया। वह अपने वचन पर टिका नहीं। शुक्राचार्य को पता चला तो उन्होंने राजा ययाति को वृद्ध हो जाने का शाप दे दिया। युवान राजा ययाति तत्काल वृद्ध हो गया। शर्मिष्ठा को तो दुःख हुआ, लेकिन ययाति को उससे भी ज्यादा दुःख हुआ। 'त्राहिमाम्' पुकारते हुए राजा ययाति ने गिड़गिड़ाकर शुक्राचार्य से प्रार्थना की। शुक्राचार्य ने द्रवीभूत होकर कहाः
"तुम्हारा कोई युवान पुत्र अगर तुम्हारी वृद्धावस्था ले ले और अपनी जवानी तुम्हें दे दे त तुम संसार के भोग भोग सकते हो।"
राजा ययाति ने अपने पुत्रों से पूछा। सबसे छोटा पुत्र पुरूरवा राजी हो गया। पिता की मनोवांछा पूर्ण करने के लिए। उसका यौवन लेकर राजा ययाति ने हजार वर्ष तक भोग भोगे। फिर भी उसके चित्त में शान्ति नहीं हुई।
प्रतीति से कभी भी पूर्ण शांति मिल ही नहीं सकती। अगर प्रतीति का उपभोग करने से शान्ति मिली होती तो जिनके पास राजवैभव था, धन था, भोग-विलास था, वे अशान्त और दुःखी होकर क्यों मरे ? किसी सत्तावान को, धनवान को सत्ता और धन से, पुत्र-परिवार मिलने से मोक्ष मिल गया हो, ऐसा हमने नहीं सुना। जिसको ज्यादा विषय-विकार भोगने को मिले, वे बीमार रहे, दुःखी रहे, अशान्त रहे, आत्महत्या करके मरे – ऐसा आपने और हमने देखा सुना है। वे नर्कों में गये, मुक्त तो नहीं हुए। जिसको विषय विकार और संसार की चीजें ज्यादा मिलीं और ज्यादा भोगी उसकी मुक्ति हो गयी, ऐसा मैंने आज तक नहीं सुना। तुम लोगों ने भी नहीं सुना होगा और सुनोगे भी नहीं। रामतीर्थ बोलते थेः छाया चाहे बड़े पर्वत की हो, लेकिन छाया तो छायामात्र है।
ऐसे ही प्रतीति चाहे कितनी भी बड़ी हो, लेकिन प्रतीति तो केवल प्रतीति ही है।
आखिर राजा ययाति को लगा किः
न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।

अग्नि में घी डालने से आग और भड़कती है, ऐसे ही काम-विकार और संसार के भोग भोगने से तृष्णा, वासना, आशा, स्पृहा ये सब उद्वेग बढ़ाने वाले विकार अधिक भड़कते हैं।
राजा ययाति प्रतीति को प्रतीति समझकर, उसे तुच्छ जानकर ईश्वर की ओर लगने के लिए जंगल में चला गया, तप करने लगा।

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