दृश्यों को गुजर जाने दो
आप संसारी वस्तुएँ पाने की इच्छा करें तो इच्छामात्र से संसार की चीजें आपको नहीं मिल सकतीं। उनकी प्राप्ति के लिए आपका प्रारब्ध और पुरुषार्थ चाहिए। किन्तु आप ईश्वर को पाना चाहते हैं तो केवल ईश्वर को पाने की तीव्र इच्छा रखें। इससे अंतर्यामी ईश्वर आपके भाव को समझ जाता है कि आप उनसे मिलना चाहते हो।
जैसे-चींटी गरुड़ से मिलने की इच्छा रखे और गरुड़ को भी पता चल जाये तो चींटी अपनी चाल से गरुड़ की ओर चलेगी लेकिन गरुड़ चींटी से मिलने के लिए अपनी गति से भागेगा। ऐसे ही जीवात्मा अपनी गति से ईश्वर को पाने का प्रयत्न करेगा तो ईश्वर भी अपनी उदारता से उसे उपयुक्त वातावरण दे देगा, जल्दी साधना के जहाज में बिठा देगा। यही कारण है कि आप अभी यहाँ बैठे हैं।
आपकी केवल तीव्र इच्छा थी ईश्वर के रास्ते जाने की… मंडप बनाने वालों ने मंडप बनाया, माईक लगाने वालों ने माईक लगाया, सजावट करने वालों ने सजावट की, कथा करने वालों ने कथा की, आपकी तो केवल इच्छा थी कि सत्संग मिल जाय और आपको सब कुछ तैयार मिल रहा है….
परन्तु शादी की इच्छामात्र से सब तैयार नहीं मिलेगा…. सब तैयार करना पड़ेगा और बारातियों के आगे नाक रगड़ने पड़ेगी। उसके बाद भी कोई राज़ी तो कोई नाराज तथा शादी के बाद भी लांछन सहने के लिए तैयार रहना पड़ेगा और कभी कुछ तो कभी कुछ, खटपट चलती ही रहेगी… कभी साला बीमार तो कभी साली बीमार, कभी साले का साला बीमार तो वहाँ भी सलामी भरने जाना पड़ेगा। यहाँ तो ईश्वरप्राप्ति की इच्छामात्र से सब तैयार मिल रहा है !
ईश्वर को पाने की इच्छामात्र से हृदय में पवित्र भाव आने लगते हैं तथा संसार के भोग पाने की इच्छामात्र से हृदय में खटपट चालू हो जाती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए चलते हो और जब ईश्वर मिलता है तब पूरे-का-पूरा मिलता है किन्तु संसार आज तक किसी को पूरे-का-पूरा नहीं मिला। संसार का एक छोटा सा टुकड़ा भारत है, वह भी किसी को पूरे का पूरा नहीं मिला। उसमें भी लगभग एक अरब लोग हैं।
संसार मिलेगा भी तो आंशिक ही मिलेगा और कब छूट जाय इसका कोई पता नहीं लेकिन परमात्मा मिलेगा तो पूरे-का-पूरा मिलेगा और उसे छीनने की ताकत किसी में नहीं है !
परमात्मा मिलता कैसे है ? साधना से…. पंचसकारी साधना से जन्म-मरण का, भवरोग का मूल दूर हो जाता है। ईश्वरत्व का अनुभव करने में, अंतर्यामी राम का दीदार करने में यह पंचसकारी साधना सहयोग करती है। कोई किसी भी जाति, संप्रदाय अथवा मजहब का क्यों न हो, सबके जीवन में यह साधना चार चाँद लगा देती है।
इस साधना के पाँच अंग हैं तथा पाँचों अंगों के नाम ‘स’ कार से आरम्भ होते हैं, इसलिए इसे पंचसकारी संज्ञा दी गयी है।
सहिष्णुताः अपने जीवन में सहिष्णुता (सहनशीलता) लायें। जरा-जरा सी बात में डरें नहीं, जरा-जरा सी बात में उद्विग्न न हों, जरा-जरा सी बात में बहक न जायें, जरा-जरा सी बात में सिकुड़ न जायें। थोड़ी सहनशक्ति रखें। तटस्थ रहें। विचार करें कि यह भी बीत जायेगा।
यह विश्व जो है दीखता, आभास अपना जान रे।
आभास कुछ देता नहीं, सब विश्व मिथ्या मान रे।।
होता वहाँ ही दुःख है, कुछ मानना होता जहाँ।
कुछ मानकर हो न दुःखी, कुछ भी नहीं तेरा यहाँ।।
चाहे कितना भी कठिन वक्त हो चाहे कितना भी बढ़िया वक्त हो – दोनों बीतने वाले हैं और आपका चैतन्य रहने वाला है। ये परिस्थितियाँ आपके साथ नहीं रहेंगी किन्तु आपका परमेश्वर तो मौत के बाद भी आपके साथ रहेगा। इस प्रकार की समझ बनाये रखें।
पिछले जन्म के प्रमाणपत्र आपके साथ नहीं हैं, पिछले जन्म के दोस्त आपके साथ नहीं हैं, पिछले जन्म के माता-पिता भी आपके साथ नहीं हैं और इस जन्म के भी बचपन के मित्र अभी नहीं हैं, बचपन की तोतली भाषा अभी नहीं है लेकिन बचपन में जो दिलबर आपके दिल की धड़कन चला रहा था, वह अभी भी है और बाद में भी रहेगा। इसीलिए सिख धर्म के आदिगुरु नानकदेव ने कहाः
आद सत् जुगाद सत् है भी सत् नानक होसे भी सत्।।
आप सत्य का, ईश्वर का आश्रय लीजिए और परिस्थितियों के प्रभाव से बचिये। जो लोग परिस्थितियों को सत्य मानते हैं वे इनसे घबराकर कभी आत्महत्या की बात भी बोल देते हैं – यह बहुत बड़ा अपराध है। अन्वेषणकर्त्ताओं के आँकड़े बताते हैं कि विश्व में हर रोज 12000 मनुष्य आत्महत्या का संकल्प करते हैं, प्रयास करते हैं तथा उनमें से कुछ सफल हो जाते हैं। 9 में से 8 मनुष्य आत्महत्या करते-करते चिल्ला पड़ते हैं और बच जाते हैं, नौवां सफल हो जाता है। सफल तो क्या होता है, आत्महत्या करके प्रेत हो जाता है। आत्महत्या जैसा घोर पातक दूसरा नहीं है।
एक मनोविज्ञान के प्रोफेसर कुछ विद्यार्थियों को ऊँची छत पर ले गये और उनसे कहाः “नीचे झाँकों।’ फिर पूछाः “नीचे झाँकने से डर क्यों लगता है ?”
अंत में प्रोफेसर ने कहाः “ऊँची छत से नीचे झाँकते हैं तो डर लगता है। इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में कभी-न-कभी एकाध बार मर जाने का सोच लेता है। मर जाने का जो विचार है वही उसे ऊँची छत पर से नीचे देखने पर डराता है कि कहीं मर न जाऊँ।”
किसी भी परिस्थिति में मरने का विचार नहीं करना चाहिए तथा अपने चित्त को दुःखी होने से बचाना चाहिए। अगर जीवन में सहिष्णुता का गुण होगा तभी आप बच पायेंगे।
टी.वी. में विज्ञापन देखो तो जरा सह लो। पेप्सी देखी, लाये और पी ली आप बिखर जाओगे। उन दृश्यों को गुजर जाने दो। आप किस-किस विज्ञापन का कौन-कौन सा माल खरीदोगे ? विज्ञापन देने वाले लाखों रुपये विज्ञापन में खर्च करते हैं उससे कई गुना आपसे नोचते हैं, इसीलिए जरा सावधान रहो।
इसी प्रकार दूसरे की उन्नति के तेज को भी सह लीजिये और अपने अपमान को भी सह लीजिए। पड़ोसी के सुख को भी पचा लीजिये और अपने दुःख को भी सह लीजिये। अपने दुःखों में परेशान मत होइये। आज वहाँ फूल खिला है तो कल यहाँ भी खिलेगा। आज
उस पेड़ ने फल दिये हैं तो कल इस पेड़ में भी फल लगेंगे। ऐसा करने से ईर्ष्या के दुर्गुण से भी बचने में मदद मिलेगी और सहिष्णुता का गुण हमारे चित्त को पावन करने में भी मदद करेगा।
सेवाः आपके जीवन में सेवा का सदगुण हो। ईश्वर की सृष्टि को सँवारने के भाव से आप पुत्र-पौत्र, पति-पत्नी आदि की सेवा कर लो। ‘पत्नी मुझे सुख दे।’ अगर इस भाव से सेवा की तो पति पत्नी में झगड़ा रहेगा। ‘पति मुझे सुख दें।’ इस भाव से की तो स्वार्थ हो जायेगा और स्वार्थ लंबे समय तक शांति नहीं दे सकता। ‘पति की गति पति जानें मैं तो सेवा करके अपना फर्ज निभा लूँ….. पत्नी की गति पत्नी जाने मैं तो अपना उत्तरदियत्व निभा लूँ…..।’ ऐसे विचारों से सेवा कर लें।
पत्नी लाली-लिपस्टिक लगाये कोई जरूरी नहीं है, डिस्को करे कोई जरूरी नहीं है। जो लोग अपनी पत्नी को कठपुतली बनाकर, डिस्को करवाकर दूसरे के हवाले करते हैं और पत्नियाँ बदलते हैं वे नारी जाति का घोर अपमान करते हैं। वे नारी को भोग्या बना देते हैं। भारत की नारी भोग्या, कठपुतली नहीं है, वह तो भगवान की सुपुत्री है। नारी तो नारायणी है।
सम्मानदानः तीसरा सदगुण है सम्मानदान। छोटे-से-छोटा प्राणी और बड़े-से-बड़ा व्यक्ति भी सम्मान चाहता है। सम्मान देने में रुपया-पैसा नहीं लगता है और सम्मान देते समय आपका हृदय भी पवित्र होता है। अगर आप किसी से निर्दोष प्यार करते हैं तो खुशामद से हजारगुना ज्यादा प्रभाव उस पर पड़ता है। अतः स्वयं मान पाने की इच्छा न रखें वरन् औरों को सम्मान दें।
स्वार्थ-त्यागः चौथा सदगुण है स्वार्थ-त्याग। कर्म निःस्वार्थ होकर करें, स्वार्थ-भाव से नहीं। स्वार्थत्याग की भावना अन्य गुणों को भी विकसित करती है।
समताः पाँचवीं बात है कि आपमें समता का सदगुण आ जाय। चित्त सम रहेगा तो आपकी आत्मिक शक्ति बढ़ेगी, आपका योग सिद्ध होगा और आप आत्मज्ञान पाने में सफल हो जायेंगे।
यह ‘पंचसकारी साधना’ ज्ञानयोग की साधना है। इसका आश्रय लेने से आप भी ज्ञानयोग में स्थिति पा सकते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 113
लेबल: आत्महत्या महापाप, पंचसकारी साधना, समता
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