रविवार, मई 27, 2018

आरुणि की गुरुनिष्ठा


प्राचीन काल में आयोद धौम्य नाम के एक ऋषि थे। उनके सुरम्य पवित्र आश्रम में बहुत शिष्य रहते थे। उनमें आरूणि नाम का शिष्य बड़ा ही नम्र, सेवाभावी और आज्ञापालक था। एक बार खूब वर्षा हुई। गुरु ने आरूणी को आश्रम के खेतों की देखभाल के लिए भेजा। आरूणी ने खेत जाकर देखा कि खेत का सारा पानी तो सीमा तोड़कर बाहर निकला जा रहा है। थोड़ी देर में तो पानी का वेग सारी पाल तोड़ देगा और मिट्टी बह जायेगी।

आरूणी ने कमर कसी। जहाँ से पानी निकल रहा था वहाँ उसने मिट्टी डालना शुरु किया, परंतु पानी का वेग सब मिट्टी बहा ले जाता। आखिर आरूणी पानी रोकने के लिए स्वयं ही उस टूटी हुई सीमा में लेट गया। उसके शरीर के अवरोध के कारण बहता पानी तो रुक गया, परंतु इस तरह उसे सारी रात ठंडे पानी में लेटे रहना पड़ा। इस प्रकार उसने खेत की रक्षा की।

प्रातःकाल हुआ। आश्रम के सब शिष्य जब गुरुदेव को प्रणाम करने गये तब उनमें आरूणी दिखा नहीं। गुरु शिष्यों को साथ लेकर आरूणी को ढूँढने खेत की ओर गये और आवाज लगायीः

"आरूणी...! आरूणी...!!"

आरूणी ने गुरु की आवाज सुनी। उसका शरीर तो ठंड से ठिठुर गया था, आवाज दब गयी थी, फिर भी वह उठा और गुरुदेव को प्रणाण करके बोलाः "क्या आज्ञा है गुरुदेव?"

गुरु आयोद धौम्य का हृदय भर आया। शिष्य की सेवा देखकर उनका गुरुत्व छलक उठा। आरूणी के अंतर में शास्त्रों का ज्ञान अपने-आप प्रकट होने लगा। गुरु ने उसका नाम उद्दालक रखा। धन्य है गुरुभक्त आरूणी !

तू मुझे उर आँगन दे दे, मैं अमृत की वर्षा कर दूँ।

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