रविवार, मई 27, 2018

समर्थ की लीला : शिवाजी की गुरुनिष्ठा


"भाई ! तुझे नहीं लगता कि गुरुदेव हम सबसे ज्यादा शिवाजी को चाहते हैं? शिवाजी के कारण हमारे प्रति उनका यह पक्षपात मेरे अंतर में शूल की नाई चुभ रहा है।"

समर्थ रामदास स्वामी का एक शिष्य दूसरे शिष्य से इस तरह की गुफ्तगू कर रहा था। "हाँ, बंधु ! तेरी बात शत-प्रतिशत सही है। शिवाजी राजा है, छत्रपति हैं इसीलिए समर्थ हम सबसे ज्यादा उन पर प्रेम बरसाते हैं। इसमें हमको कुछ गलत नहीं लगना चाहिए।"

शिष्य तो इस तरह की बातें करके अपने-अपने काम में लग गये, लेकिन इन दोनों का यह वार्तालाप अनायास ही समर्थ रामदास स्वामी के कानों में पड़ गया था। समर्थ ने सोचा कि 'उपदेश से काम नहीं चलेगा, इनको प्रयोगसहित समझाना पड़ेगा।'

एक दिन समर्थ ने लीला की। वे शिष्यों को साथ लेकर जंगल में घूमने गये। चलते-चलते समर्थ पूर्वनियोजन के अनुसार राह भूलकर घोर जंगल में इधर-उधर भटकने लगे। सब जंगल से बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ रहे थे, तभी अचानक समर्थ को उदर-शूल उठा। पीड़ा असह्य होने से उन्होंने शिष्यों को आस-पास में कोई आश्रय-स्थान ढूँढने को कहा। ढूँढने पर थोड़ी दूरी पर एक गुफा मिला गयी। शिष्यों के कन्धों के सहारे चलते हुए किसी तरह समर्थ उस गुफा तक पहुँच गये। गुफा में प्रवेश करते ही वे जमीन पर लेट गये एवं पीड़ा से कराहने लगे। शिष्य उनकी पीड़ा मिटाने का उपाय खोजने की उलझन में खोयी-सी स्थिति में उनकी सेवा-शुश्रूषा करने लगे। सभी ने मिलकर गुरुदेव से इस पीड़ा का इलाज पूछा।

समर्थ ने कहाः "इस रोग की एक ही औषधि है – बाघनी का दूध ! लेकिन उसे लाना माने मौत को निमंत्रण देना !" अब उदर शूल मिटाने के लिए बाघनी का दूध कहाँ से लायें और लाये कौन? सब एक दूसरे का मुँह ताकते हुए सिर पकड़कर बैठ गये।

उसी समय शिवाजी को अपने गुरुदेव के दर्शन करने की इच्छा हुई। आश्रम पहुँचने पर उन्हें पता चला कि गुरुदेव तो शिष्यों को साथ लेकर बहुत देर से जंगल में गये हैं। गुरुदर्शन के लिए शिवाजी का तड़प तीव्र हो उठी। अंततः शिवाजी ने समर्थ के दर्शन होने तक बिना अन्न-जल के रहने का निश्चय किया और उनकी तलाश में सैनिकों की एक टोली के साथ जंगल की ओर चल पड़े।

खोजते-खोजते शाम हो गयी किंतु उन्हें समर्थ के दर्शन नहीं हुए। देखते-ही-देखते अँधेरा छा गया। जंगली जानवरों की डरावनी आवाजें सुनायी पड़ने लगीं, फिर भी शिवाजी 'गुरुदेव! गुरुदेव!!' ऐसा पुकारते हुए आगे बढ़ते गये। अब तो सैनिक भी मन-ही-मन खिन्न हो गये परंतु शिवाजी की गुरु-मिलन की व्याकुलता के आगे वे कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं कर सके। आखिर सैनिक भी पीछे रह गये परंतु शिवा को इस बात की चिंता नहीं थी, उन्हें तो गुरुदर्शन की तड़प थी। घोड़े पर सवार शिवा में हाथ में मशाल लिये आगे बढ़ते ही रहे।

मध्यरात्रि हो गयी। कृष्णपक्ष की अँधेरी रात्रि में जंगली जानवरों के चलने फिरने की आवाज सुनायी पड़ने लगी। इतने में शिवाजी ने बाघ की दहाड़ सुनी। वे रुक गये। कुछ समय तक जंगल में दहाड़ की प्रतिध्वनि गूँजती रही और फिर सन्नाटा छा गया। इतने में एक करुण स्वर वन में गूँजाः 'अरे भगवान ! हे रामरायाऽऽऽ.... मुझे इस पीड़ा से बचाओ।'

'यह क्या ! यह तो गुरु समर्थ की वाणी है ! शिवाजी आवाज तो पहचान गये, परंतु सोच में पड़ गये कि 'समर्थ जैसे महापुरुष ऐसा करुण क्रंदन कैसे कर सकते हैं? वे तो शरीर के सम्बन्ध से पार पहुँचे हुए समर्थ योगी हैं।'

शिवाजी को संशय ने घेर लिया। इतने में फिर उसी ध्वनि का पुनरावर्तन हुआ। शिवाजी ने ध्यानपूर्वक सुना तो पता चला कि वे जिस पहाड़ी के नीचे हैं, उसी के शिखर से यह करुण ध्वनि आ रही है। पहाड़ी पर चढ़ने के लिए कहीं से भी कोई रास्ता न दिखा। शिवाजी घोड़े से उतरे और अपनी तलवार से कँटीली झाड़ियों को काटकर रास्ता बनाते हुए आखिर गुफा तक पहुँच ही गये। शिवाजी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, जब उन्होंने समर्थ की पीड़ा से कराहते और लोट-पोट होते देखा। शिवा की आँखें आँसुओं से छलक उठीं। वे मशाल को एक तरफ रखकर समर्थ के चरणों में गिर पड़े। समर्थ के शरीर को सहलाते हुए शिवाजी ने पूछाः "गुरुदेव ! आपको यह कैसी पीड़ा हो रही है? आप इस घने जंगल में कैसे? गुरुदेव ! कृपा करके बताइये।"

समर्थ कराहते हुए बोलेः "शिवा ! तू आ गया? मेरे पेट में जैसे शूल चुभ रहे हों ऐसी असह्य वेदना हो रही है रे..."

"गुरुदेव ! आपको तो धन्वंतरि महाराज भी हाजरा-हजूर हैं। अतः आप इस उदर शूल की औषधि तो जानते ही होंगे। मुझे औषधि का नाम कहिये। शिवा आकाश-पाताल एक करके भी वह औषधि ले आयेगा।"

"शिवा ! यह तो असाध्य रोग है। इसकी कोई औषधि नहीं है। हाँ, एक औषधि से राहत जरूर मिल सकती है लेकिन जाने दे। इस बीमारी का एक ही इलाज है और वह भी अति दुर्लभ है। मैं उस दवा के लिए ही यहाँ आया था, लेकिन अब तो चला भी नहीं जाता.... दर्द बढ़ता ही जा रहा है..."

शिवा को अपने-आपसे ग्लानि होने लगी कि 'गुरुदेव लम्बे समय से ऐसी पीड़ा सहन कर रहे हैं और मैं राजमहल में बैठा था। धिक्कार है मुझे ! धिक्कार है !!' अब शिवा से रहा न गया। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहाः "नहीं गुरुदेव ! शिवा आपकी यातना नहीं देख सकता। आपको स्वस्थ किये बिना मेरी अंतरात्मा शांति से नहीं बैठेगी। मन में जरा भी संकोच रखे बिना मुझे इस रोग की औषधि के बारे में बतायें। गुरुदेव ! मैं लेकर आता हूँ वह दवा।"

समर्थ ने कहाः "शिवा ! इस रोग की एक ही औषधि है – बाघनी का दूध ! लेकिन उसे लाना माने मौत का निमंत्रण देना है। शिवा ! हम तो ठहरे अरण्यवासी। आज यहाँ कल वहाँ होंगे, कुछ पता नहीं। परंतु तुम तो राजा हो। लाख गये तो चलेगा, परंतु लाखों का रक्षक जिन्दा रहना चाहिए।"

"गुरुदेव ! जिनकी कृपादृष्टि मात्र से हजारों शिवा तैयार हो सकते हैं, ऐसे समर्थ सदगुरु की सेवा में एक शिवा की कुर्बानी हो भी जाये तो कोई बात नहीं। मुगलों के साथ लड़ते-लड़ते मौत के साथ सदैव जूझता आया हूँ, गुरुसेवा करते-करते मौत आ जायेगी तो मृत्यु भी महोत्सव बन जायेगी। गुरुदेव आपने ही तो सिखाया है कि आत्मा कभी मरती नहीं और नश्वर देह को एक दिन जला ही देना है। ऐसी देह का मोह कैसा? गुरुदेव ! मैं अभी बाघनी का दूध लेकर आता हूँ।"

'क्या होगा? कैसे मिलेगा?' अथवा 'ला सकूँगा या नहीं?' – ऐसा  सोचे बिना शिवाजी गुरु को प्रणाम करके पास में पड़ा हुआ कमंडलु लेकर चल पड़े। सतशिष्य की कसौटी करने के लिए प्रकृति ने भी मानों, कमर कसी और आँधी-तुफान के साथ जोरदार बारिश शुरु हुई। बरसते पानी में शिवाजी दृढ़ विश्वास के साथ चल पड़े बाघनी को ढूँढने। लेकिन क्या यह इतना आसान था? मौत के पंजे में प्रवेश कर वहाँ से वापस आना कैसे संभव हो सकता है? परंतु शिवाजी को तो गुरुसेवा की धुन लगी थी। उन्हें इन सब बातों से क्या लेना-देना? प्रतिकूल संयोगों का सामना करते हुए नरवीर शिवाजी आगे बढ़ रहे थे। जंगल में बहुत दूर जाने पर शिवा को अँधेरे में चमकती हुई चार आँखें दिखीं। शिवा उनकी ओर आगे बढ़ने लगे। उनको अपना लक्ष्य दिख गया। वे समझ गये कि ये बाघनी के बच्चे हैं, अतः बाघनी भी कहीं पास में ही होगी। शिवाजी प्रसन्न थे। मौत के पास जाने में प्रसन्न ! एक सतशिष्य के लिए उसके सदगुरु की प्रसन्नता से बड़ी चीज संसार में और क्या हो सकती है? इसलिए शिवाजी प्रसन्न थे।

शिवाजी के कदमों की आवाज सुनकर बाघनी के बच्चों ने समझा कि उनकी माँ है, परंतु शिवाजी को अपने बच्चों के पास चुपके-चुपके जाते देखकर पास में बैठी बाघनी क्रोधित हो उठी। उसने शिवाजी पर छलाँग लगायी परंतु कुशल योद्धा शिवाजी ने अपने को बाघनी के पंजे से बचा लिया। फिर भी उनकी गर्दन पर बाघनी के दाँत अपना निशान छोड़ चुके थे। परिस्थितियाँ विपरीत थीं। बाघनी क्रोध से जल रही थी। उसका रोम-रोम शिवा के रक्त का प्यासा बना हुआ था, परंतु शिवा का निश्चय अटल था। वे अब भी हार मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि समर्थ सदगुरु के सतशिष्य जो ठहरे !

शिवाजी बाघनी से प्रार्थना करने लगे कि 'हे माता ! मैं तेरे बच्चों का अथवा तेरा कुछ बिगाड़ने नहीं आया हूँ। मेरे गुरुदेव को रहे उदर-शूल में तेरा दूध ही एकमात्र इलाज है। मेरे लिए गुरुसेवा से बढ़कर इस संसार में दूसरी कोई वस्तु नहीं। हे माता ! मुझे मेरे सदगुरु की सेवा करने दे। तेरा दूध दुहने दे।' पशु भी प्रेम की भाषा समझते हैं। शिवाजी की प्रार्थना से एक महान आश्चर्य घटित हुआ – शिवाजी के रक्त की प्यासी बाघनी उनके आगे गौमाता बन गयी ! शिवाजी ने बाघनी के शरीर पर प्रेमपूर्वक हाथ फेरा और अवसर पाकर वे उसका दूध निकालने लगे। शिवाजी की प्रेमपूर्वक प्रार्थना का कितना प्रभाव ! दूध लेकर शिवा गुफा में आये।

समर्थ ने कहाः "आखिर तू बाघनी का दूध भी ले आया, शिवा ! जिसका शिष्य गुरुसेवा में अपने जीवन की बाजी लगा दे, प्राणों को हथेली पर रखकर मौत से जूझे, उसके गुरु को उदर-शूल कैसे रह सकता है? मेरा उदर-शूल तो जब तू बाघनी का दूध लेने गया, तभी अपने-आप शांत हो गया था। शिवा तू धन्य है ! धन्य है तेरी गुरुभक्ति ! तेरे जैसा एकनिष्ठ शिष्य पाकर मैं गौरव का अनुभव करता हूँ।" ऐसा कहकर समर्थ ने शिवाजी के प्रति ईर्ष्या रखनेवाले उन दो शिष्यों के सामने अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा। 'गुरुदेव शिवाजी को अधिक क्यों चाहते हैं?' – इसका रहस्य उनको समझ में आ गया। उनको इस बात की प्रतीति कराने के लिए ही गुरुदेव ने उदर-शूल की लीला की थी, इसका उन्हें ज्ञान हो गया।

अपने सदगुरु की प्रसन्नता के लिए अपने प्राणों तक बलिदान करने का सामर्थ्य रखनेवाले शिवाजी धन्य हैं ! धन्य हैं ऐसे सतशिष्य ! जो सदगुरु के हृदय में अपना स्थान बनाकर अमर पद प्राप्त कर लेते हैं.... धन्य है भारतमाता ! जहाँ ऐसे सदगुरु और सतशिष्य पाये जाते हैं।

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