बिना विवेक और वैराग्य के तुम्हें ब्रह्माजी का उपदेश भी काम न आयेगा !
जो मौत की यात्रा के साक्षी बन जाते हैं उनके लिये यात्रा यात्रा रह जाती है, साक्षी उससे परे हो जाता है ।
मौत के बाद अपने सब पराये हो गये । तुम्हारा शरीर भी पराया हो गया । लेकिन तुम्हारी आत्मा आज तक परायी नहीं हुई ।
हजारों मित्रों ने तुमको छोड़ दिया, लाखों कुटुम्बियों ने तुमको छोड़ दिया, करोड़ों-करोड़ों शरीरों ने तुमको छोड़ दिया, अरबों-अरबों कर्मों ने तुमको छोड़ दिया लेकिन तुम्हारा आत्मदेव तुमको कभी नहीं छोड़ता ।
शरीर की स्मशानयात्रा हो गयी लेकिन तुम उससे अलग साक्षी चैतन्य हो । तुमने अब जान लिया कि:‘मैं इस शरीर की अंतिम यात्रा के बाद भी बचता हूँ, अर्थी के बाद भी बचता हूँ, जन्म से पहले भी बचता हूँ और मौत के बाद भी बचता हूँ । मैं चिदाकाश … ज्ञानस्वरुप आत्मा हूँ । मैंने छोड़ दिया मोह ममता को । तोड़ दिया सब प्रपंच ।’
इस अभ्यास को बढ़ाते रहना । शरीर की अहंता और ममता, जो आखिरी विघ्न है, उसे इस प्रकार तोड़ते रहना । मौका मिले तो स्मशान में जाना । दिखाना अपने को वह दृश्य ।
मैं भी जब घर में था, तब स्मशान में जाया करता था । कभी-कभी दिखाता था अपने मन को कि, ‘देख ! तेरी हालत भी ऐसी होगी ।’
स्मशान में विवेक और वैराग्य होता है । बिना विवेक और वैराग्य के तुम्हें ब्रह्माजी का उपदेश भी काम न आयेगा । बिना विवेक और वैराग्य के तुम्हें साक्षात्कारी पूर्ण सदगुरु मिल जायँ फिर भी तुम्हें इतनी गति न करवा पायेंगे । तुम्हारा विवेक और वैराग्य न जगा हो तो गुरु भी क्या करें ?
विवेक और वैराग्य जगाने के लिए कभी कभी स्मशान में जाते रहना । कभी घर में बैठे ही मन को स्मशान की यात्रा करवा लेना ।
मरो मरो सब कोई कहे मरना न जाने कोय ।
एक बार ऐसा मरो कि फिर मरना न होय ॥
ज्ञान की ज्योति जगने दो । इस शरीर की ममता को टूटने दो । शरीर की ममता टूटेगी तो अन्य नाते रिश्ते सब भीतर से ढीले हो जायेंगे । अहंता ममता टूटने पर तुम्हारा व्यवहार प्रभु का व्यवहार हो जाएगा । तुम्हारा बोलना प्रभु का बोलना हो जाएगा । तुम्हारा देखना प्रभु का देखना हो जाएगा । तुम्हारा जीना प्रभु का जीना हो जाएगा ।
केवल भीतर की अहंता तोड़ देना । बाहर की ममता में तो रखा भी क्या है ?
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधय: ॥
देह छ्तां जेनी दशा वर्ते देहातीत ।
ते ज्ञानीना चरणमां हो वन्दन अगणित ॥
भीतर ही भीतर अपने आपसे पूछो कि:
‘मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि देह होते हुए भी मैं अपने को देह से पृथक् अनुभव करुँगा ? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि एकांत में बैठा बैठा मैं अपने मन बुद्धि को पृथक् देखते-देखते अपनी आत्मा में तृप्त होऊँगा ? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं आत्मानन्द में मस्त रहकर संसार के व्यवहार में निश्चिन्त रहूँगा ? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि शत्रु और मित्र के व्यवहार को मैं खेल समझूँगा ?’
ऐसा न सोचो कि वे दिन कब आयेंगे कि मेरा प्रमोशन हो जाएगा… मैं प्रेसिडेन्ट हो जाऊँगा … मैं प्राइम मिनिस्टर हो जाऊँगा ?
अमेरिका के प्रेसिडेन्ट मि कूलिज व्हाइट हाउस में रहते थे । एक बार वे बगीचे में घूम रहे थे । किसी आगन्तुक ने पूछा : ‘यहाँ कौन रहता है ?’
कूलिज ने कहा : ‘यहाँ कोई रहता नहीं है। यह सराय है, धर्मशाला है। यहाँ कई आ आकर चले गये, कोई रहता नहीं ।’
रहने को तुम थोड़े ही आये हो ! तुम यहाँ से गुजरने को आये हो, पसार होने को आये हो । यह जगत तुम्हारा घर नहीं है । घर तो तुम्हारा आत्मदेव है । फकीरों का जो घर है वही तुम्हारा घर है। जहाँ फकीरों ने डेरा डाला है वहीं तुम्हारा डेरा सदा के लिए टिक सकता है, अन्यत्र नहीं । अन्य कोई भी महल, चाहे कैसा भी मजबूत हो, तुम्हें सदा के लिए रख नहीं सकता ।
संसार तेरा घर नहीं, दो चार दिन रहना यहाँ ।
कर याद अपने राज्य की, स्वराज्य निष्कंटक जहाँ ॥
कूलिज से पूछा गया : ‘ I have come to know that Mr. Coolidge, President of America lives here.’ (‘मुझे पता चला है कि अमेरिका के राष्ट्रपति श्री कूलिज यहाँ रहते हैं ।’) कूलिज ने कहा : ‘No, Coolidge doesnot live here. Nobody lives here. Everybody is passing through.’ (‘नहीं, कूलिज यहाँ नहीं रहता । कोई भी नहीं रहता । सब यहाँ से गुजर रहे हैं। ’)
चार साल पूरे हुए । मित्रों ने कहा : ‘फिर से चुनाव लड़ो । समाज में बड़ा प्रभाव है आपका । फिर से चुने जाओगे ।’
कूलिज बोला : ‘चार साल मैंने व्हाइट हाउस में रहकर देख लिया । प्रेसिडेन्ट का पद सँभालकर देख लिया । कोई सार नहीं । अपने आपसे धोखा करना है, समय बरबाद करना है। I have no time to waste. अब मेरे पास बरबाद करने के लिए समय नहीं है ।’
ये सारे पद और प्रतिष्ठा समय बरबाद कर रहे हैं तुम्हारा । बड़े बड़े नाते रिश्ते तुम्हारा समय बरबाद कर रहे हैं । स्वामी रामतीर्थ प्रार्थना किया करते थे :
‘हे प्रभु ! मुझे मित्रों से बचाओ, मुझे सुखों से बचाओ’
सरदार पूरनसिंह ने पूछा : ‘क्या कह रहे हैं स्वामीजी ? शत्रुओं से बचना होगा, मित्रों से क्या बचना है ?’
रामतीर्थ : ‘नहीं, शत्रुओं से मैं निपट लूँगा, दु:खों से मैं निपट लूँगा । दु:ख में कभी आसक्ति नहीं होती, ममता नहीं होती । ममता, आसक्ति जब हुई है तब सुख में हुई है, मित्रों में हुई है, स्नेहियों में हुई है ।’
मित्र हमारा समय खा जाते हैं, सुख हमारा समय खा जाता है । वे हमें बेहोशी में रखते हैं । जो करना है वह रह जाता है । जो नहीं करना है उसे सँभालने में ही जीवन खप जाता है ।
तथाकथित मित्रों से हमारा समय बच जाए, तथाकथित सुखों से हमारी आसक्ति हट जाए । सुख में होते हुए भी परमात्मा में रह सको, मित्रों के बीच रहते हुए भी ईश्वर में रह सको - ऐसी समझ की एक आँख रखना अपने पास ।
ॐ शांति : शांति : शांति : ! ॐ … ॐ … ॐ … !!
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