सोमवार, अप्रैल 11, 2011

संयम की शक्ति : पांच सौ अप्सरा और आयुष्मान नन्द ....


बुद्ध के मौसेरे भाई आयुष्यमान नंद ने बुद्ध से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने के बाद प्रव्रज्या लेने की ठान ली। जब वह घर छोड़कर जाने लगा तो अपनी पत्नी से कहाः "मैं अपने भोगी जीवन का त्याग करके चिंता और द्वेष, मोह और ममता को सदा के लिए छोड़कर प्रव्रज्या लेने जा रहा हूँ।"
आयुष्यमान नंद को इस प्रकार वैराग्यवान देखकर पत्नी ने उसे विदाई देते समय कहाः "जाते हो तो भले जाओ अपने जीवन का उद्धार करने। प्रव्रज्या ले लो। कोई बात नहीं। लेकिन कर्मभाव से इस कर्मपतिता को कभी-कभी जरा याद तो कर लेना।"
पत्नी ने इतना ही कह दियाः 'कर्मपतिता को कभी-कभी जरा याद कर लेना।' बस यही शब्द। प्रव्रज्या लेने के बाद ये शब्द आयुष्यमान नंद के मन में कभी-कभी गूँजते थे। जब तक एक भी बात मन में गूँजती हो तब तक चित्त की विश्रांति का मार्ग नहीं मिल सकता है। अतः आयुष्यमान ने अपनी पत्नी के अंतिम शब्द को भूलने का बहुत प्रयास किया, अनेक उपाय किया, संयम साधा। लेकिन मन कहाँ मानता है ? पत्नी के वही शब्द अभी भी मन में गूँज रहे हैं- 'कर्मपतिता को कभी-कभी जरा याद कर लेना !'
उसके सारे उपाय व्यर्थ हो गये। अंततः उसने अपने एक गुरुभाई भिक्षुक को कह दियाः "मुझे घर जाना होगा। मैं इस संन्यस्त जीवन का परित्याग कर गृहस्थी जीवन जिऊँगा।" उस बुद्धिमान गुरुभाई ने, सत्शिष्य ने बुद्ध को कहाः "आयुष्यमान नंद ऊँचाई का रास्ता छोड़कर पतित प्रवाह की तरफ जा रहा है, सरकने वाले संसार-सुख की ओर जा रहा है जिसने हजारों-हजारों जन्मों तक भोग भोगे थे। भन्ते ! उसे बचाने की करूणा हो।"
करूणावान हृदय ने स्वीकृति दी। बुद्ध ने आयुष्यमान नंद को बुलाकर पूछाः "तुम घर जाना चाहते हो ? क्या करना है ?"
आयुष्यमान नंदः "प्रव्रज्या करते समय मेरी पत्नी ने विदाई तो दी लेकिन जाते-जाते उसने कहा किः "कर्मपतिता को कभी-कभी जरा याद कर लेना।" ये करूणापूर्वक शब्द यदा-कदा मेरे कानों में गूँजते रहते हैं। भन्ते ! मुझे उसकी याद आती है। याद उसकी और वेश भिक्षुक का ! मुझे अच्छा नहीं लगता है। घर में रहकर भजन करूँगा।"
बुद्ध ने कहाः "अगर घर में रहकर कोई भजन करके सफल हो जाता तो कई लोग ऊँचे अनुभव के धनी होते। कोई-कोई अवतारी पुरुष घर में रहते हुए दिखते हैं लेकिन वे घर में नहीं, ईश्वर में रहते हैं। ऐसा कोई महापुरुष ही संसार में रहते हुए संसारी वातावरण से अप्रभावित रह सकता है। बाकी साधक को तो साधना के लिए विषय-विकारों में गिराने वाला वातावरण नहीं बल्कि विषय विकारों से बचाने वाला साधु-संतों का संग, एकांत एवं ध्यान-भजन का वातावरण ही चाहिए।"
आयुष्यामान नंद ने खुले हृदय से कहाः "मैं प्रव्रज्या के नियम नहीं निभा सकता। मुझे उसकी याद आती है।"
"त्यागकर आये विषयभोग, पत्नी और घर, फिर उधर जाते हो ? तुम वमन किया हुआ विषय अब चाटने हेतु जाना चाहते हो ?" कैसी चोट मार दी !
आयुष्यमानः "भन्ते ! मैं दगाखोर जीवन जीना नहीं चाहता। उसकी याद आती है।"
बुद्धः "ठीक है। आओ, मेरे साथ चलो।"
बुद्ध ले गये आयुष्यमान नंद को एकांत में और उन्होंने उसे ध्यान करने को कहाः। ध्यान के दरम्यान बुद्ध ने अपनी योगशक्ति का उपयोग करके तावतिंस लोक में उसकी यात्रा करा दी। तावतिंस लोक में वह क्या देखता है कि वहाँ गजब की सुंदरियाँ हैं। अप्सराओं का सौंदर्य तो वह देखता ही रह गया।

बुद्ध ने पूछाः "क्या इनका सौन्दर्य और तुम्हारी पत्नी का सौंदर्य बराबर का है ?"
आयुष्यमानः "नहीं नहीं भन्ते ! क्या कहते हैं ? इन अप्सराओं के रूप-लावण्य और सौंदर्य के आगे मेरी पत्नी का चेहरा भी भद्दा लगता है। क्या सौंदर्य का अंबार है ! इनके पैरों के नाखून कितने चमकीले हैं ! इनके पैर देखता हूँ तो इतने सुंदर, सुहावने और आकर्षक हैं कि सौंदर्य के प्रसाधनों का उपयोग करके मेरी पत्नी शादी के दिनों में जो दुल्हन बनकर दिखती थी उसका मुख मंडल भी इनके पैरों के आगे कोई मायना नहीं रखता है, अति तुच्छ दिखता है। भन्ते यह मैं क्या देख रहा हूँ !"
बुद्धः "आयुष्यमान ! मैं तुझे ये अप्सराएँ प्राप्त करा सकता हूँ।"
आयुष्यमानः "भन्ते ! मैं आपकी सभी बातें मानूँगा, सभी शर्तें मानूँगा। बस मुझे ये मिल जायें।"
बुद्धः "चलो, अब हम अपने लोक में चलते हैं।"
बुद्ध उसके चित्त को भूलोक में ले आये। उन्होंने उसके सामने यह शर्त रखीः 'तू केवल एक वर्ष के लिए ब्रह्मचर्य का पालन कर। तेरे चित्त में जिस किसी भी विषय के प्रति आकर्षण पैदा हो, उसको हटाते जाना और विश्रान्ति पाते जाना।'
बुद्ध ने कुछ प्रयोग बताये और आयुष्यमान नंद उन प्रयोगों के अनुसार बड़ी ईमानदारी और तत्परता से साधना में लग गया। उसने अपने खान-पान में संयम किया, लोगों से मिलने-जुलने में सावधानी बरती और ब्रह्मचर्य का सख्ती से पालन किया।
ब्रह्मचर्य-पालन से बुद्धि सूक्ष्म और तेजस्वी होती है, प्रज्ञा निखरती है, शरीर में ओज-तेज का विकास होता है। इससे व्यक्तित्व निर्भीक बनता है। ब्रह्मचर्य सारी सफलताओं का महान कुंजी है। हमारे खान-पान से शरीर में जो सप्तधातुएँ बनती हैं उनमें वीर्य एक धातु है। अगर इसका संयम किया जाय तो यह ओज में परिणत हो जाता है जिसके प्रभाव से एक गुप्त नाड़ी जागृत होती है। इस नाड़ी का आत्म-साक्षात्कार से सीधा संबंध है। श्रीरामकृष्णपरमहंस ने भी यही बात कही है।
एक उच्च कोटि के संत ने पूछा किः 'गृहस्थ होते हुए भी आपने इतनी ऊँचाइयों को पाया जबकि अन्य गृहस्थी लोग भी भजन करते हैं किन्तु वे ऐसी ऊँचाई पर नहीं पहुँच पाते, ऐसा क्यों ?'
'गृहस्थी लोग भजन करते हैं तो भजन करने से जो ऊर्जा, तेजोवलय या जो योग्यता बनती है उसे वे विषय विकारों को भोगने में खत्म कर देते हैं और ठनठनपाल रह जाते है। लेकिन मैं शादी-शुदा होते हुए भी शक्ति का ह्रास नहीं होने देता हूँ। मैं गृहस्थ दिखता हूँ, गृहस्थी के व्यवहार करता हूँ लेकिन विकारी जीवन नहीं जीता। मैं बाजार से गुजरता हूँ लेकिन खरीददार बन कर नहीं। रामकृष्ण ठाकुर ऐसे ही थे तभी तो भगवान रामकृष्ण होकर पूजे जा रहे हैं। ऐसा कोई पुरष विरला ही होता है।'
आयुष्यमान नंद क्या खाना, कब खाना, कितना खाना, कैसे खाना यह सब विवेकपूर्वक विचारकर खाता-पीता। अब वह स्वाद का गुलाम नहीं रहा। पंद्रह दिन में एक बार कड़ा उपवास करता जिससे वीर्य, ओज के रूप में परिणत हो जाय। उसने एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने का दृढ़ संकल्प लिया था ताकि बाद में पाँच सौ अप्सरायें उसे सदा के लिए भोग में मिलेंगी और ऊँचे लोक में रहने को मिलेगा।
शुरूआत तो हुई थी भोग की लालच से। भोग की लालच से ही सही उसने खूब संयम किया, ब्रह्मचर्य पाला। वर्ष पूरा हुआ तो बुद्ध ने आयुष्यमान नंद से कहाः "मैं अपना वचन पालने को तैयार हूँ। मैं तुझे उसी लोक में भेज सकता हूँ। मेरे लोकपाल और पाँच सौ अप्सराएँ तेरी चाकरी में रहेंगे। तू तैयार हो जा।"
आयुष्यमान नंद फूट-फूट कर रोया किः "भन्ते !  भोग में सामर्थ्य का क्षय होता है जबकि योग में सामर्थ्य बढ़ता है। भोग में शांति अशांति के रूप में बदलती जबकि योग में शांति महाशांति का द्वार खोलती है। अब आप मुझे अपने श्रीचरणों में ही रहने दें। मेरे गृहस्थी के सुख से तो अप्सराओं के संग का सुख बहुत ऊँचा है लेकिन विश्रान्ति के सुख के आगे वह सुख भी अति तुच्छ है और दुःखों से भरा है। भन्ते ! परमात्म-विश्रान्ति से चित्त शुद्ध होता है, स्वास्थ्य मे लाभ होता है, मन में सदभावना पनपती है, बुद्धि में सात्त्विक सामर्थ्य और हृदय में सच्ची स्वाधीनता का प्रागट्य होता है।"
आयुष्यमान नंद संयम का महत्त्व समझ में आ चुका था। फिर तो वह दृढ़ता से लग गया बुद्ध के उपदेशों का पालन करने में.....
जिसने अपने जीवन में संयम का महत्त्व जान लिया एवं तदनुसार आचरण में लग गया यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अवश्य सफल होता है। संयमित जीवन से समर्थ व्यक्तित्व एवं सुदृढ़ एवं संगठित समाज से शक्तिशाली, स्वावलंबी एवं गौरवशाली राष्ट्र का निर्माण होता है। हमारा प्राचीन भारत समकालीन विश्व में सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र के रूप में उभरा था तो उसके पीछे समाज में संयम, सच्चारित्र्य एवं कर्मनिष्ठा ही कारणभूत थी। अतः आप यदि अपने राष्ट्र की गौरवशाली परंपरा को पुनर्जीवित कर उसे विश्वगुरु के पद पर आसीन होते देखना चाहते हैं तो संयम सदाचार एवं ब्रह्मचर्य का सावधान होकर पालन करें।
मेरे भारतवासियो ! अब उठो ! जागो ! विलासिता का त्याग करो... विषय-विकार बढ़ाकर जीवन को नष्ट-भ्रष्ट करने वाली पाश्चात्य संस्कृति के कुप्रभाव से अपने को बचाओ... संयम का महत्त्व समझो एवं औरों को समझाओ।
       आश्रम व समितियों की तरफ से चलाये जा रहे 'युवाधन सुरक्षा अभियान' के तहत आश्रम से प्रकाशित 'युवाधन सुरक्षा' पुस्तक देश के भावी कर्णधारों तक पहुँचाने के लिए व्यापक स्तर पर सेवाकार्य किये जा रहे हैं। आप भी इस पुण्य कर्म में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान कर शिक्षणशालाओं, घरों एवं विभिन्न संस्थानों में संयम-सदाचार की अमर ज्योत जला दो ताकि वर्तमान पीढ़ी तो उससे लाभान्वित हो ही, भावी पीढ़ी भी उसके दिव्य-आलोक में अपना पथ प्रशस्त कर सके। एक बार फिर भारत के गौरवमय अतीत को चरितार्थ होने दो.... उठो, यही वक्त है !
जग में शांति फिर आयेगी, 
फिर से खुशहाली छायेगी।
गुरु ज्ञान की बजेगी शहनाई रे....