मंगलवार, फ़रवरी 01, 2011

पुरुषार्थ क्या है?

ऐ मनुष्यदेह में सोये हुए चैतन्यदेव ! अब जाग जा। अपने को जान और स्वावलम्बी हो जा। आत्म-निर्भरता ही सच्चा पुरुषार्थ है।
जब तुम अपनी सहायता करते हो तो ईश्वर भी तुम्हारी सहायता करता ही है। फिर दैव (भाग्य) तुम्हारी सेवा करने को बाध्य हो जाता है।
विश्व में यदि कोई महान् से भी महान् कार्य है तो वह है जीव को जगाकर उसे उसके शिवत्व में स्थापित करना, प्रकृति की पराधीनता से छुड़ाकर उसको मुक्त बनाना। ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों के सान्निध्य में यह कार्य स्वाभाविक रूप से हुआ करता है।
जैसे प्रकाश के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना कोई सिद्धि नहीं होती। जिस पुरुष ने अपना पुरुषार्थ त्याग दिया है और दैव के आश्रय होकर समझता है कि "दैव हमारा कल्याण करेगा" वह कभी सिद्ध नहीं होगा।
पुरुषार्थ यही है कि संतजनों का संग करना और बोधरूपी कलम और विचाररूपी स्याही से सत्शास्त्रों के अर्थ को हृदयरूपी पत्र पर लिखना।
जैसे कोई अमृत के निकट बैठा है तो पान किये बिना अमर नहीं होता वैसे ही अमृत के भी अमृत अन्तर्यामी के पास बैठकर भी जब तक विवेक-वैराग्य जगाकर हम आत्मरस का पान नहीं करते तब तक अमर आनन्द की प्राप्ति नहीं होती।
जो 'भाग्य में होगा वही मिलेगा' ऐसा जो कहता है वह मूर्ख है। पुरुषार्थ का नाम ही भाग्य है। भाग्य शब्द मूर्खों का प्रचार किया हुआ है।
अपने मन को मजबूत बना लो तुम पूर्णरूपेण मजबूत हो। हिम्मत, दृढ़ संकल्प और प्रबल पुरुषार्थ से ऐसा कोई ध्येय नहीं है जो सिद्ध न हो सके।
साधक भी यदि पूर्ण उत्साह के साथ अपनी पूरी चेतना आत्मस्वरूप के पहचानने में लगा दे तो जिसमें हजारों संत उत्पन्न होकर विलीन हो गये उस परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है।
जीवन गढ़ने के लिए ही है। उसको आकार देने वाला कोई सदगुरु मिल जाय ! बस, फिर तुम्हें सिर्फ मोम जैसा नर्म बनना है। सदगुरु अपना कार्य करके ही रहेंगे। उनकी कृपा किसी से बाधित नहीं होती। उनके द्वारा अनुशासित होने का उत्साह हममें होना चाहिए।

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