गुरू के हृदय को ठेस पहुंचाने का परिणाम
लीलाराम नाम का एक व्यक्ति कहीं मुनीमी करता था (हमारे सदगुरूदेव की यह बात नहीं है।) वह कहीं फँस गया। पैसे के लेन देन में कुछ हेराफेरी के बारे में उस पर केस चला। ब्रिटिश शासन में सजाएँ भी कड़क होती थीं। जान-पहचान, लाँच-रिश्वत कम चलती थी। लीलाराम घबराया और विलायतराम के चरणों में आया। विनती की। विलायतराम ने कहाः
"तुमने जो किया है वह भोगना पड़ेगा, मैं क्या करूँ ?"
"महाराज ! मैं आपकी शरण हूँ। मुझे कैसे भी करके आप बचाओ। दुबारा गलती नहीं होगी। गलती हो गई है उसके लिए आप जो सजा करें, मैं भोग लूँगा। न्यायाधीश सजा करेगा, जेल में भेज देगा, इसकी अपेक्षा आपके श्रीचरणों में रहकर अपने पाप धोऊँगा।"
संत का हृदय पिघल गया। बोलेः
"अच्छा ! अब तू अपना केस रख दे उस शहंशाह परमात्मा पर। जिस ईश्वर के विधान का तूने उल्लंघन किया है उसी ईश्वर की शरण हो जा, उसी ईश्वर का चिन्तन कर। उसकी कृपा करूणा मिलेगी तो बेड़ा पार हो जाएगा।"
लीलाराम ने गुरू की बात मान ली। बस, जब देखो तब शहंशाह..... शहंशाह.... चलते-फिरते शाहंशाह..... शाहंशाह.....! शाहंशाह माने लक्ष्य यही जो सर्वोपरि सत्ता है। मन उसका तदाकार हो गया।
मुकद्दमे के दिन पहुँचा कोर्ट में। जज ने पूछाः
"इतने-इतने पैसे की तुमने हेराफेरी की, यह सच्ची बात है ?"
"शाहंशाह...."
"तेरा नाम क्या है?"
"शहंशाह..."
"यह क्यों किया ?"
"शहंशाह..."
सरकारी वकील उलट छानबीन करता है, प्रश्न पूछता है तो एक ही जवाबः "शहंशाह..."
"अरे ठीक बोल नहीं तो पिटाई होगी।"
"शंहशाह..."
"यह कोर्ट है।"
"शहंशाह..."
"तेरी खाल खिंचवाएँगे।"
"शहंशाह...."
लीलाराम का यह ढोंग नहीं था। गुरू के वचन में डट गया था। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्...। गुरू के वचन में लग गया। "शहंशाह.... शहंशाह.... शहंशाह...." उसके ऊपर डाँट-फटकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, प्रलोभन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसका शहंशाह का चिन्तन ऊपर-ऊपर से थोपा हुआ नहीं था अपितु गुरूवचन गहरा चला गया था उसके अंतर में। वह एकदम तदाकार हो गया था।
जब तुम अपने देह की चिन्ता छोड़कर, सुख-दुःख के परिणामों की चिन्ता छोड़कर परम तत्त्व में लग जाते हो तो प्रकृति तुम्हारे अनुकूल हो जाती है।
यह भी ईश्वरीय विधान है। बुद्ध सब भूल गये, ध्यानमग्न हो गये। ऊपर से चट्टान लुढ़कती हुई आई और वहाँ आते-आते दो हिस्सों में बँट गई, बुद्ध के दोनों ओर से चली गई। बुद्ध बाल-बाल बच गये।
जज के चित्त में हुआ कि यह कैसे पागल को पकड़कर लाये हैं। इतना अपमान करते हैं, इतना डाँटते हैं, भय दिखाते हैं, तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करते हैं तभी भी इस पागल को कुछ पता नहीं चलता है ! जज ने उसको बरी कर दिया।
लीलाराम विलायतराय के पास। गुरू बोलेः
"छूट गया केस से बेटा?"
तो लीलाराम बोलता हैः "शहंशाह.....।"
"भूख लगी है ?"
"शहंशाह....।"
"यह कोर्ट नहीं है। अब केस बरी हो गया। अब ठीक से बात करो।"
"शहंशाह....।"
गुरू ने देखा कि बिल्कुल सच्चाई से मेरे वचन लिये हैं..... वाह ! गुरू का हृदय प्रसन्न हो गया। प्रसन्न हो गया तो लीलाराम की शहंशाही पर गुरू का हस्ताक्षर हो गया। गुरू ने कहाः
"अच्छा...। जब जरूरत पड़े तब बोलना 'शहंशाह....' अभी तो मुझसे बात कर थोड़ी देर।" गुरू ने संकल्प करके उसके शहंशाह के भाव का थोड़ा नियंत्रण कर लिया। लीलाराम ने भोजन आदि किया और गुरू से प्रार्थना की किः
"अब तो मैं गुरू के आश्रम में ही रहूँगा। सच्चे शहंशाह के दरबार में रहूँगा।
लीलाराम गुरूआश्रम में रहने लगा। कोई दुःखी, रोगी आ जाता तो गुरू लीलाराम से बोलतेः
"इसको जरा देखो।"
देखना क्या है ? उसके सिर पर लीलाराम हाथ घुमा देताः 'शहंशाह....' तो दर्द ठीक हो जाता। पेट में पीड़ा है.... अपने हाथ से कुछ प्रसाद दे देता तो पीड़ा गायब। कमर दुःखती है, बुढ़ापा है। लीलाराम कमर पर हाथ घुमा देताः 'शहंशाह.....' तो कमर शहंशाह हो जाती। धन्धा नहीं चलता है। लीलाराम थप्पड़ मार देताः 'शहंशाह....' उसके धन्धे में नगद नारायण हो जाता।
लीलाराम हाथ घुमाकर 'शहंशाह.....' कह देता और लोगों के काम हो जाते। धीरे-धीरे कीर्ति फैलने लगी।
ईश्वरीय विधान से कीर्ति तो होगी लेकिन कीर्ति में फँसना उचित नहीं। मान तो मिलेगा लेकिन अहँकार करना उचित नहीं। हम अहंकार करने वाले कौन होते हैं ? हमारी योग्यता क्या है ? सृष्टिनियन्ता इतने सारे ब्रह्माण्ड बना देता है उसमें हमारा एक व्यक्तित्त्व, एक मकान, एक दुकान, एक गाड़ी.... इसमें अहंकार क्या करना ? अहंकार करके उस विश्वनियंता से अलग होकर अपनी विशेषता क्या बताओगे ? वह विशेषता कब तक रहेगी। आप उससे जुड़े रहो। कितना भी बड़ा कुण्ड हो पानी का लेकिन पानी के किसी मूल स्रोत से जुड़ा नहीं रहेगा तो पानी पड़ा-पड़ा गन्दा हो जायगा, आखिर सूख जायगा। छोटी-सी टंकी भी अगर मूल स्रोत से जुड़ी रहेगी तो पानी निरन्तर ताजा बना रहेगा और कभी खत्म नहीं होगा।
ऐसे ही आप ईश्वर से जुड़े रहोगे तो आपकी ताजगी बनी रहेगी। ईश्वर से अलग अपनी कुछ विशेषता बनाआगे तो वह विशेषता क्षीण हो जायगी। ब्रह्मज्ञान आपको ईश्वर से जोड़े रखता है। देहाध्यास आपको ईश्वर की विशालता से वंचित कर देता है।
लीलाराम ज्ञानी तो था नहीं। आ गया देहाध्यास में। फूल उठा कि गुरू जी जितना नहीं कर सकते उतना हम कर सकते हैं। गुरू जी तो इलाज बताते हैं, साधना बताते हैं, प्राणायाम बताते हैं, आशीर्वाद देते हैं। किसी की ज्यादा श्रद्धा होती है तो वह ठीक होता है। .....और हम तो जिसको कह देते हैं 'शहंशाह....' उसका काम हो जाता है।
गुरू को लगा कि शिष्य अहंकार में आ गया है।
गुरू की आज्ञा मानने से गुरू का चित्त प्रसन्न हुआ। गुरू के चित्त की प्रसन्नता से उसकी शक्ति विकसित हो गई। अनुचित आचरण करने से गुरू के चित्त में क्षोभ हुआ। गुरू के चित्त में शिष्य के लिए क्षोभ होता है तो शिष्य का अमंगल होता है। वह अमंगल कैसे होता है ? कोई दैत्य गला पकड़कर नर्क में नहीं ले जाता। हमारा व्यवहार अनुचित होता है तो अन्तर्यामी ईश्वर को या गुरू के हृदय को ठेस पहुँचती है तो हमारी मति हल्के निर्णय करती है। मति जब हल्के निर्णय करती है तो हल्के कर्मों में गिरती है, फिर हल्का परिणाम आता है और पतन हो जाता है। गुरू का चित्त प्रसन्न होता है तो हमारी मति ऊँची हो जाती है। ऊँची हो जाती है तो ऊँचे निर्णय करती है, ऊँचे कर्म करती है और ऊँचे पद को प्राप्त करती है। ऐसा नहीं कि देवता पकड़कर हमें स्वर्ग में ले जायगा या दैत्य पकड़कर हमें नर्क में ले जायगा। नहीं......। गुप्त रूप से हमारे सब संस्कारों के चित्र अन्तःकरण में अंकित होते रहते हैं। तुम उचित करते हो कि अनुचित करते हो, इसका चित्र भीतर ही भीतर लिया जा रहा है।
लीलाराम अहंकार प्रेरित कर्म करने लगा तो गुरू को पता चला, गुरू के हृदय को ठेस लगी। लीलाराम की मति बिगड़ी। लीलाराम के द्वारा किसी का काम बन गया तो कोई शराब की बोतल ले आया, कोई कुछ ले आया तो कोई कुछ। लीलाराम नशा करने लगा। बुद्धि नीचे गिरी। शराब-कबाब में वह गर्क हो गया। गुरू के दिल को और ठेस पहुँची।
एक दिन विलायतराय कहीं जा रहे थे। लीलाराम से बोलेः "चलो कहीं घूम आते हैं।" लीलाराम चला। दो-पाँच और शिष्य भी साथ हो लिए। रास्ते में नदी पड़ी। विलायतराय ने कहाः "यहाँ हम स्नान करेंगे।" सेवक ने साबुन दिया। लोटा भर-भर के पानी डाला। गुरूजी लीलाराम से बोलेः "तू भी गोता मार ले, जल्दी कर।"
लीलाराम गोता मारकर बाहर निकलता है तो लीलाबाई हो गया। उसने देखा तो वहाँ न कोई नदी है न गुरूजी हैं।
अकेली लीलाबाई.....! बिल्कुल सुन्दरी लीलाबाई....! अंग स्त्री के, वस्त्र स्त्री के, चूड़ियाँ और जेवर भी आ गये। वह शर्मिन्दा हो गया कि मैं तो लीलाराम था, 'शहंशाह....' करने वाला था। यह क्या हो गया ?
इतने में चार चाण्डाल आते हुए दिखे। उन्होंने पूछाः
"क्यों री ! इधर बैठी है अकेली ? कौन है ?"
अब कैसे बोले कि मैं लीलाराम हूँ ? वह तो शर्मिन्दा हो गया। चारों चाण्डाल झगड़ा करने लगे। एक बोलाः 'इससे मैं शादी करूँगा।' दूसरा बोलाः "मैं करूँगा।" आखिर चारों में जो बलवान था उसके साथ लीलाबाई का गंधर्व विवाह हो गया। गन्धर्व विवाह माने ले भागू शादी...... 'लव-मैरिज'। समय बीता। लीलाबाई को दो तीन बेटे हुए, दो-तीन बेटियाँ हुईं। बेटियों की शादियाँ हुईं चाण्डालों से। दामाद हुए.... परिवार बढ़ा। चाण्डालों में सांसारिक व्यवहार जैसे होता है वह सब हुआ। सुख-दुःख के कई प्रसंग आये और गये। लीलाबाई साठ साल की बूढ़ी हो गयी। बहुत सारे दुःख भोगे। पति मर गया। छोरे लोफर हो गये। लीलाबाई सिर कूटने लगीः "हे भगवान ! मैं क्या करूँ ? पति चला गया। मैं विधवा हो गई। मुझे भी तू उठा ले।"
'मुझे भी तू उठा ले....' करके आँख खोली तो वही नदी और वही स्नान। गुरूजी ने जो साबुन लगाया था सिर पर, उसकी झाग भी पूरी उतरी नहीं थी। लीलाराम चकित हो गया कि मैं लीलाबाई बन गया था, साठ साल की चाण्डाली का सारा संसार देखा, बेटे-बेटियाँ, दामाद और बहुएँ आदि का बड़ा परिवार बना... और यहाँ तो अभी स्नान भी पूरा नहीं हुआ है ! यह सब क्या है ?
विलायतराम मुस्कराते हुए बोलेः
"देख ! शूली में से काँटा हो गया। तेरा चाण्डाल होने का प्रारब्ध तो कट गया। पहले की की हुई भक्ति से, लेकिन अब पहले जैसी शक्ति तेरे पास नहीं रहेगी। वैद्य का धन्धा कर, परिश्रम करके गुजारा करते रहना, मुझे मुँह मत दिखाना।"
ईश्वरीय विधान का हम आदर करते हैं तो उन्नति होती है और अनादर करते हैं तो अवनति होती है। ईश्वरीय विधान का आदर यह है कि हमारे पास जो कुछ है वह हमारा व्यक्तिगत नहीं है। सब उस जगन्नियन्ता का है। हमारा जो कुछ भी है वह हमारा नहीं है। हमारा शरीर भी नहीं है। हवाएँ उसकी, प्रकाश उसका, पृथ्वी उसकी, सूर्य उसका, अन्न-जल उसका। उसी का अन्न-जल खा पीकर हमारे माता-पिता ने हमको जन्म दिया तो यह शरीर हमारा कैसे हुआ ? शरीर भी उसी का है और उसी की हवा लेकर हम जी रहे हैं। उसी का पानी पीकर हम जी रहे हैं। उसी की पृथ्वी पर हम चल रहे हैं।
जो कुछ उसी का है, जो कुछ है उसी के लिए है। हम सब अपना और अपने लिए मान लेते हैं तब ईश्वरीय विधान का अनादर करते हैं। इसी से परेशानी, मुसीबतें आ घेरती हैं। इसी से जन्म-मरण की सजा मिलती रहती है।
हम एक सेकेण्ड भी ईश्वर से अलग नहीं रह सकते, उसकी चीजों से अलग नहीं रह सकते। आपके शरीर में से पूरी हवा निकाल दें तो कुछ मिनटों के लिए कैसा रहेगा ? आप नहीं जी सकते।
आप ईश्वर से तनिक भी दूर नहीं हैं फिर भी उसके साथ आपकी सुरता नहीं मिली है तो दूरी का अनुभव करके आप दुःखी हो रहे हैं। ईश्वर के सान्निध्य का अनुभव हो जाता तो हमारी दुर्दशा थोड़े ही होती ! सदा साथ में रहने वाले अन्तर्यामी का अनुभव नहीं हो रहा है इसीलिए दुःख सह रहे हैं, पीड़ा सह रहे हैं, चिन्ताएँ कर रहे हैं, परेशानियाँ उठा रहे हैं।
हमारी बुद्धि का दुर्भाग्य तो यह है कि जो सदा साथ में है उसी साथी से मिलने के लिए तत्परता नहीं आती। जो हाजरा-हजूर है उससे मिलने की तत्परता नहीं आती। वह सदा हमारे साथ होने पर भी हम अपने को अकेला मानते हैं कि दुनियाँ में हमारा कोई नहीं। हम कितना अनादर करते हैं अपने ईश्वर का !
'हे धन ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे पति ! तू मेरी रक्षा कर। पत्नी ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे बेटे ! बुढ़ापे में तू मेरी रक्षा कर।' हम ईश्वरीय विधान का कितना अनादर कर रहे हैं !!
बेटा रक्षा करेगा ? पति रक्षा करेगा ? पत्नी रक्षा करेगी ? धन रक्षा करेगा ? लाखों-लाखों पति होते हुए भी पत्नियाँ मर गईं। लाखों-लाखों बेटे होते हुए भी बाप परेशान रहे। लाखों-लाखों बाप होते हुए भी बेटे परेशान रहे क्योंकि बापों में बाप, बेटों में बेटा, पतियों में पति, पत्नियों में पत्नी बन कर जो बैठा है उस प्यारे के तरफ हमारी निगाह नहीं जाती।
भूल्या जभी रबनू तभी व्यापा रोग।
जब उस सत्य को भूले हैं, ईश्वरीय विधान को भूले हैं तभी जन्म-मरण के रोग, भय, शोक, दुःख चिन्ता आदि सब घेरे रहते हैं। अतः बार-बार मन को इन विचारों से भरकर, अन्तर्यामी को साक्षी समझकर प्रार्थना करते जाएँ, प्रेरणा लेते जाएँ और जीवन की शाम होने से पहले तदाकार हो जाएँ।
ॐ शांति...... ॐ आनन्द...... ॐ....ॐ.....ॐ....।
शांति.... शांति.....। वाह प्रभु ! तेरी जय हो ! ईश्वरीय विधान। तुझे नमस्कार ! हे ईश्वर ! तू ही अपनी भक्ति दे और अपनी ओर शींच ले।
नारायण..... नारायण..... नारायण.....
विधान का स्मरण करके साधना करेंगे तो आपकी सहज साधना हो जायगी। गिरि गुफा में तप करने, समाधि लगाने नहीं जाना पड़ेगा। सतत सावधान रहें तो सहज साधना हो जाएगी। ईश्वरीय विधान को समझकर जीवन जिएं, उसके साथ जुड़े रहें तो सहज साधना हो जाएगी।
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