शनिवार, मई 26, 2018

सौराष्ट्र के महान गुरुभक्त रामू

रामू का गुरु-समर्पण

संत परम हितकारी होते हैं। वे जो कुछ कहें, उसका पालन करने के लिए डट जाना चाहिए। इसी में हमारा कल्याण निहित है। महापुरुष "हे रामजी ! त्रिभुवन में ऐसा कौन है जो संत की आज्ञा का उल्लंघन करके सुखी रह सके?" श्री गुरुगीता में भगवान शंकर कहते हैं-

गुरुणां सदसद्वापि यदुक्तं तन्न लंघयेत्। कुर्वन्नाज्ञां दिवारात्रौ दासवन्निवसेद् गुरौ।।

'गुरुओं की बात सच्ची हो या झूठी परंतु उसका उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिए। रात और दिन गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते हुए उनके सान्निध्य में दास बनकर रहना चाहिए।'

गुरुदेव की कही हुई बात चाहे झूठी दिखती हो फिर भी शिष्य को संदेह नहीं करना चाहिए, कूद पड़ना चाहिए उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए। सौराष्ट्र (गुज.) में रामू नाम के महान गुरुभक्त शिष्य हो गये। लालजी महाराज (सौराष्ट्र के एक संत) के नाम उनका पत्र आता रहता था। लालजी महाराज ने ही रामू के जीवन की यह घटना बतायी थी-

एक बार रामू के गुरु ने कहाः "रामू ! घोड़ागाड़ी ले आ। भगत के घर भोजन करने जाना है।"

रामू घोड़ागाड़ी ले आया। गुरु नाराज होकर बोलेः "अभी सुबह के सात बजे हैं, भोजन तो 11-12 बजे होगा। बेवकूफ कहीं का, 12 बजे भोजन करने जाना है और गाड़ी अभी ले आया? बेचारा ताँगेवाला तब तक बैठा रहेगा?"

रामू गया, ताँगेवाले को छुट्टी देकर आ गया। गुरु ने पूछाः "क्या किया?"

"ताँगा वापस कर दिया।" हाथ जोड़कर रामू बोला।

गुरुजीः "जब जाना ही था तो वापस क्यों किया? जा ले आ।"

रामू गया और ताँगेवाले को बुला लाया।

"गुरुजी ! ताँगा आ गया।"

गुरुजीः "अरे ! ताँगा ले आया? हमें जाना तो बारह बजे है न? पहले इतना समझाया अभी तक नहीं समझा? भगवान को क्या समझेगा? ताँगे की छोटी-सी बात को नहीं समझता, राम को क्या समझेगा?"

ताँगा वापस कर दिया गया। रामू आया तो गुरु गरज उठे।

"वापस कर दिया? फिर समय पर मिले-न-मिले, क्या पता? जा, ले आ।"

नौ बार ताँगा गया और वापस आया। रामू यह नहीं कहता कि गुरु महाराज ! आपने ही तो कहा था। वह सत्पात्र शिष्य जरा-भी चिढ़ता नहीं। गुरुजी तो चिढ़ने का व्यवस्थित संयोग खड़ा कर रहे थे। रामू को गुरुजी के सामने चिढ़ना तो आता ही नहीं था, कुछ भी हो, गुरुजी के आगे वह मुँह बिगाड़ता ही नहीं था। दसवीं बार ताँगा स्वीकृत हो गया। तब तक बारह बज गये थे। रामू और गुरुजी भक्त के घर गये। भोजन किया। भक्त था कुछ साधन सम्पन्न। विदाई के समय उसने गुरुजी के चरणों में वस्त्रादि रखे और साथ में, रूमाल में सौ-सौ के दस नोट भी रख दिये और हाथ जोड़कर विनम्रता से प्रार्थना कीः "गुरुजी ! कृपा करें, इतना स्वीकार कर लें। इनकार न करें।"

फिर वे ताँगे में बैठकर वापस आने लगे। रास्ते में गुरुजी ताँगवाले से बातचीत करने लगे। ताँगेवाले ने कहाः

"गुरुजी ! हजार रुपये में यह घोड़ागाडी बनी है, तीन सौ का घोड़ा लाया हूँ और सात सौ की गाड़ी। परंतु गुजारा नहीं होता। धन्धा चलता नहीं, बहुत ताँगेवाले हो गये हैं।"

"गुरुजीः "हजार रुपये में यह घोड़ागाड़ी बनी है तो हजार रुपये में बेचकर और कोई काम कर।"

ताँगेवालाः "गुरुजी ! अब इसका हजार रुपया कौन देगा? गाड़ी नयी थी तब कोई हजार दे भी देता, परंतु अब थोड़ी-बहुत चली है। हजार कहाँ मिलेंगे?"

गुरुजी ने उसे सौ-सौ के दस नोट पकड़ा दिये और बोलेः "जा बेटा ! और किसी अच्छे धन्धे में लग जा। रामू ! तू चला ताँगा।"

रामू यह नहीं कहता कि 'गुरुजी मुझे नहीं आता। मैंने ताँगा कभी नहीं चलाया'। गुरुजी कहते हैं तो बैठ गया कोचवान होकर।

रास्ते में एक विशाल वटवृक्ष आया। गुरुजी ने उसके पास ताँगा रुकवा दिया। उस समय पक्की सड़कें नहीं थीं, देहाती वातावरण था। गुरुजी सीधे आश्रम में जानेवाले नहीं थे। सरिता के किनारे टहलकर फिर शाम को जाना था। ताँगा रख दिया वटवृक्ष की छाया में। गुरुजी सो गये। सोये थे तब छाया थी, समय बीता तो ताँगे पर धूप आ गयी। घोड़ा जोतने के डण्डे थोड़े तप गये थे। गुरुजी उठे, डण्डे को छूकर देखा तो बोलेः

"अरे, रामू ! इस बेचारी गाड़ी को बुखार आ गया है। गर्म हो गयी है। जा पानी ले आ।"

रामू ने पानी लाकर गाड़ी पर छाँट दिया। गुरुजी ने फिर गाड़ी की नाड़ी देखी और रामू से पूछाः

रामूः "हाँ।"

गुरुजीः "तो यह गाड़ी मर गयी.... ठण्डी हो गयी है बिल्कुल।"

रामूः "जी, गुरुजी !"

गुरुजीः "मरे हुए आदमी का क्या करते हैं?"

रामूः "जला दिया जाता है।"

गुरुजीः "तो इसको भी जला दो। इसकी अंतिम क्रिया कर दो।"

गाड़ी जला दी गयी। रामू घोड़ा ले आया।

"अब घोड़े का क्या करेंगे?" रामू ने पूछा।

गुरुजीः "घोड़े को बेच दे और उन पैसों से गाड़ी का बारहवाँ करके पैसे खत्म कर दे।"

घोड़ा बेचकर गाड़ी का क्रिया-कर्म करवाया, पिण्डदान दिया और बारह ब्राह्मणों को भोजन कराया। मृतक आदमी के लिए जो कुछ किया जाता है वह सब गाड़ी के लिए किया गया।

गुरुजी देखते हैं कि रामू के चेहरे पर अभी तक फरियाद का कोई चिह्न नहीं ! अपनी अक्ल का कोई प्रदर्शन नहीं ! रामू की अदभुत श्रद्धा-भक्ति देखकर बोलेः "अच्छा, अब पैदल जा और भगवान काशी विश्वनाथ के दर्शन पैदल करके आ।"

कहाँ सौराष्ट्र (गुज.) और कहाँ काशी विश्वनाथ (उ.प्र.) !

रामू गया पैदल। भगवान काशी विश्वनाथ के दर्शन पैदल करके लौट आया।

गुरुजी ने पूछाः "काशी विश्वनाथ के दर्शन किये?"

रामूः "हाँ गुरुजी।"

गुरुजीः "गंगाजी में पानी कितना था?"

रामूः "मेरे गुरुदेव की आज्ञा थीः 'काशी विश्वनाथ के दर्शन करके आ' तो दर्शन करके आ गया।"

गुरुजीः "अरे ! फिर गंगा-किनारे नहीं गया? और वहाँ मठ-मंदिर कितने थे?"

रामूः "मैंने तो एक ही मठ देखा है – मेरे गुरुदेव का।"

गुरुजी का हृदय उमड़ पड़ा। रामू पर ईश्वरीय कृपा का प्रपात बरस पड़ा। गुरुजी ने रामू को छाती से लगा लियाः "चल आ जा.... तू मैं है.... मैं तू हूँ.... अब अहं कहाँ रहेगा !"

ईशकृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं गावहिं वेद पुरान।।

रामू का काम बन गया, परम कल्याण उसी क्षण हो गया। रामू अपने आनन्दस्वरूप आत्मा में जग गया, उसे आत्मसाक्षात्कार हो गया....

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