मिलारेपा का गुरु आज्ञापालन
मिलारेपा का गुरु आज्ञापालन
तिब्बत में करीब 850 वर्ष पहले एक बालक का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया मिलारेपा। जब वह सात वर्ष का था, तब उसके पिता का देहांत हो गया। चाचा और बुआ ने उनकी सारी मिल्कियत हड़प ली। अपनी छोटी बहन और माता सहित मिलारेपा को खूब दुःख सहने पड़े। अपनी मिल्कियत पुनः पाने के लिए उसकी माता ने कई प्रयत्न किये लेकिन चाचा और बुआ ने उसके सारे प्रयत्न निष्फल कर दिये। वह तिलमिला उठी। उसके मन से किसी भी तरह से इस बात का रंज नहीं जा रहा था।
एक दिन की बात है। तब मिलारेपा की उम्र करीब 15 वर्ष थी। वह कोई गीत गुनगुनाते हुए घर लौटा। गाने की आवाज सुनकर उसकी माँ एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में राख लेकर बाहर आयी और मिलारेपा के मुँह पर राख फेंककर लाठी से उसे बुरी तरह पीटते हुए बोलीः "कैसा कुपुत्र जन्मा है तू ! अपने बाप का नाम लजा दिया।"
उसे पीटते-पीटते माँ बेहोश हो गयी। होश आने पर उसे फटकारते हुए मिलारेपा से बोलीः "धिक्कार है तुझे ! दुश्मनों से वैर लेना भूलकर गाना सीखा? सीखना हो तो कुछ ऐसा सीख, जिससे उनका वंश ही खत्म हो जाय।"
बस... मिलारेपा के हृदय में चोट लग गयी। घर छोड़कर उसने तंत्रविद्या सिखानेवाले गुरु को खोज निकाला और पूरी निष्ठा एवं भाव से सेवा करके उनको प्रसन्न किया। उनसे दुश्मनों को खत्म करने एवं हिमवर्षा करने की विद्या सीख ली। इनका प्रयोग कर उसने अपने चाचा और बुआ की खेती एवं उनके कुटुम्बियों को नष्ट कर डाला। चाचा और बुआ को उसने जिंदा रखा, ताकि वे तड़प-तड़पकर दुःख भोगते हुए मरें। यह देखकर लोग मिलारेपा से खूब भयभीत हो गये। समय बीता। मिलारेपा के हृदय की आग थोड़ी शांत हुई। अब उसने बदला लेने की वृत्ति पर पश्चाताप होने लगा। ऐसे में उसकी एक लामा (तिब्बत के बौद्ध आचार्य) के साथ भेंट हुई। उसने सलाह दीः "तुझे अगर विद्या ही सीखनी है तो एकमात्र योगविद्या ही सीख। भारत से यह योगविद्या सीखकर आय हुए एकमात्र गुरु हैं – मारपा।"
योगविद्या जानने वाले गुरु के बारे में सुनते ही उसका मन उनके दर्शन के लिए अधीर हो गया। मिलारेपा में लगन तो थी ही, साथ में दृढ़ता भी थी और तंत्रविद्या सीखकर उसने गुरु के प्रति निष्ठा भी साबित कर दिखायी थी। एक बार हाथ में लिया हुआ काम पूरा करने में वह दृढ़ निश्चयी था। उसमें भरपूर आत्मविश्वास था। वह तो सीधा चल पड़ा मारपा को मिलने।
रास्ता पूछते-पूछते, निराश हुए बिना मिलारेपा आगे-ही-आगे बढ़ता गया। रास्ते में एक गाँव के पास खेत में उसने किसी किसान को देखा, उसके पास जाकर मारपा के बारे में पूछा। किसान ने कहाः "मेरे बदले में तू खेती कर तो मैं तुझे मारपा के पास ले जाऊँगा।"
मिलारेपा उत्साह से सहमत हो गया। थोड़े दिनों के बाद किसान ने रहस्योदघाटन किया कि वह खुद ही मारपा है। मिलारेपा ने गुरुदेव को भावपूर्वक प्रणाम किया और अपनी आपबीती कह सुनायी। उसने स्वयं के द्वारा हुए मानव-संहार की बात भी कही। बदले की भावना से किये हुए पाप के बारे में बताकर पश्चाताप किया। मिलारेपा की निखालिस स्वीकारोक्ति स गुरु का मन प्रसन्न हुआ, लेकिन उन्होंने अपनी प्रसन्नता को गुप्त ही रखा। अब मिलारेपा की परीक्षा शुरु हुई। गुरु के प्रति, श्रद्धा, निष्ठा एवं दृढ़ता की कसौटियाँ प्रारम्भ हुईं। गुरु मारपा मिलारेपा के साथ खूब कड़ा व्यवहार करते, जैसे उनमें दया की एक बूँद भी न हो। लेकिन मिलारेपा अपनी गुरुनिष्ठा में पक्का था। वह गुरु के बताये प्रत्येक कार्य को खूब तत्परता एवं निष्ठा से करने लगा।
कुछ महीने बीते, फिर भी गुरु ने मिलारेपा को कुछ ज्ञान नहीं दिया। मिलारेपा ने काफी नम्रता से गुरुजी के समक्ष ज्ञान के लिए प्रार्थना की। गुरुजी भड़क उठेः "मैं अपना सर्वस्व देकर भारत से यह योगविद्या सीखकर आया हूँ। यह तेरे जैसे दुष्ट के लिए है क्या? तूने जो पाप किये हैं वे जला दे, तो मैं तुझे यह विद्या सिखाऊँ। जो खेती तूने नष्ट की है वह उनको वापस दे दे, जिनको तूने मारा डाला है उन सबको जीवित कर दे...."
यह सुनकर मिलारेपा खूब रोया। फिर भी वह हिम्मत नहीं हारा, उसने गुरु की शरण नहीं छोड़ी।
कुछ समय और बीता। मारपा ने एक दिन मिलारेपा से कहाः "मेरे पुत्र के लिए एक पूर्वमुखी गोलाकार मकान बना दे, लेकिन याद रखना उसे बनाने में तुझे किसी की मदद नहीं लेनी है। मकान में लगने वाली लकड़ी भी तुझे ही काटनी है, गढ़नी है और मकान में लगानी है।"
मिलारेपा खुश हो गया कि 'चलो, गुरुजी की सेवा करने का मौका तो मिल रहा है न !' उसने बड़े उत्साह से कार्य शुरु कर दिया। वह स्वयं ही लकड़ियाँ काटता और उन्हें तथा पत्थरों को अपनी पीठ पर उठा-उठाकर लाता। वह स्वयं ही दूर से पानी भरकर लाता। किसी की भी मदद लेने की मनाई थी न! गुरु की आज्ञा पालने में वह पक्का था। मकान का आधा काम तो हो गया। एक दिन गुरुजी मकान देखने आये। वे गुस्से में बोलेः "धत् तेरे की ! ऐसा मकान नहीं चलेगा। तोड़ डाल इसको और याद रखना, जो चीज जहाँ से लाया है, उसे वहीं रखना।"
मिलारेपा ने बिना किसी फरियाद के गुरुजी की आज्ञा का पालन किया। फरियाद का 'फ' तक मुँह में नहीं आने दिया। कार्य पूरा किया। फिर गुरुजी ने दूसरी जगह बताते हुए कहाः "हाँ, यह जगह ठीक है। यहाँ पश्चिम की ओर द्वारवाला अर्धचन्द्राकार मकान बना दे।"
मिलारेपा पुनः काम में लग गया। काफी मेहनत के बाद आधा मकान पूरा हुआ। तब गुरुजी फिर से फटकारते हुए बोलेः "कैसा भद्दा लगता है यह ! तोड़ डाल इसे और एक-एक पत्थर उसकी मूल जगह पर वापस रख आ।"
बिल्कुल न चिढ़ते हुए उसने गुरु के शब्द झेल लिये। मिलारेपा की गुरुभक्ति गजब की थी!
थोड़े दिन बाद गुरुजी ने फिर से नयी जगह बताते हुए हुक्म कियाः "यहाँ त्रिकोणाकार मकान बना दे।"
मिलारेपा ने पुनः काम चालू कर दिया। पत्थर उठाते-उठाते उसकी पीठ एवं कंधे छिल गये थे। फिर भी उसने अपनी पीड़ा के बारे में किसी को भी नहीं बताया। त्रिकोणाकार मकान बँधकर मकान बँधकर पूरा होने आया, तब गुरुजी ने फिर से नाराजगी व्यक्त करते हुए कहाः "यह ठीक नहीं लग रहा। इसे तोड़ डाल और सभी पत्थरों को उनकी मूल जगह पर रख दे।"
इस स्थिति में भी मिलारेपा के चेहरे पर असंतोष की एक भी रेखा नहीं दिखी। गुरु के आदेश को प्रसन्न चित्त से शिरोधार्य कर उसने सभी पत्थरों को अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित रख दिया। इस बार एक टेकरी पर जगह बताते हुए गुरु ने कहाः "यहाँ नौ खंभे वाला चौरस मकान बना दे।"
गुरुजी ने तीन-तीन बार मकान बनवाकर तुड़वा डाले थे। मिलारेपा के हाथ एवं पीठ पर छाले पड़ गये थे। शरीर की रग-रग में पीड़ा हो रही थी। फिर भी मिलारेपा गुरु से फरियाद नहीं करता कि 'गुरुजी ! आपकी आज्ञा के मुताबिक ही तो मकान बनाता हूँ। फिर भी आप मकान पसंद नहीं करते, तुड़वा डालते हो और फिर से दूसरा बनाने को कहते हो। मेरा परिश्रम एवं समय व्यर्थ जा रहा है।'
मिलारेपा तो फिर से नये उत्साह के साथ काम में लग गया। जब मकान आधा तैयार हो गया, तब मारपा ने फिर से कहाः "इसके पास में ही बारह खंभे वाला दूसरा मकान बनाओ।" कैसे भी करके बारह खंभे वाला मकान भी पूरा होने को आया, तब मिलारेपा ने गुरुजी से ज्ञान के लिए प्रार्थना की गुरुजी ने मिलारेपा के सिर के बाल पकड़कर उसको घसीटा और लात मारते हुए यह कहकर निकाल दिया कि 'मुफ्त में ज्ञान लेना है?'
दयालु गुरुमाता (मारपा की पत्नी) से मिलारेपा की यह हालत देखी नहीं गयी। उसने मारपा से दया करने की विनती की लेकिन मारपा ने कठोरता न छोड़ी। इस तरह मिलारेपा गुरुजी के ताने भी सुन लेता व मार भी सह लेता और अकेले में रो लेता लेकिन उसकी ज्ञानप्राप्ति की जिज्ञासा के सामने ये सब दुःख कुछ मायना नहीं रखते थे। एक दिन तो उसके गुरु ने उसे खूब मारा। अब मिलारेपा के धैर्य का अंत आ गया। बारह-बारह साल तक अकेले अपने हाथों से मकान बनाये, फिर भी गुरुजी की ओर से कुछ नहीं मिला। अब मिलारेपा थक गया और घर की खिड़की से कूदकर बाहर भाग गया। गुरुपत्नी यह सब देख रही थी। उसका हृदय कोमल था। मिलारेपा की सहनशक्ति के कारण उसके प्रति उसे सहानुभूति थी। वह मिलारेपा के पास गयी और उसे समझाकर चोरी-छिपे दूसरे गुरु के पास भेज दिया। साथ में बनावटी संदेश-पत्र भी लिख दिया कि 'आनेवाले युवक को ज्ञान दिया जाय।' यह दूसरा गुरु मारपा का ही शिष्य था। उसने मिलारेपा को एकांत में साधना का मार्ग सिखाया। फिर भी मिलारेपा की प्रगति नहीं हो पायी। मिलारेपा के नये गुरु को लगा कि जरूर कहीं-न-कहीं गड़बड़ है। उसने मिलारेपा को उसकी भूतकाल की साधना एवं अन्य कोई गुरु किये हों तो उनके बारे में बताने को कहा। मिलारेपा ने सब बातें निखालिसता से कह दीं।
नये गुरु ने डाँटते हुए कहाः "एक बात ध्यान में रख-गुरु एक ही होते हैं और एक ही बार किये जाते हैं। यह कोई सांसारिक सौदा नहीं है कि एक जगह नहीं जँचा तो चले दूसरी जगह। आध्यात्मिक मार्ग में इस तरह गुरु बदलनेवाला धोबी के कुत्ते की नाईं न तो घर का रहता है न ही घाट का। ऐसा करने से गुरुभक्ति का घात होता है। जिसकी गुरुभक्ति खंडित होती है, उसे अपना लक्ष्य प्राप्त करने में बहुत लम्बा समय लग जाता है। तेरी प्रामाणिकता मुझे जँची। चल, हम दोनों चलते हैं गुरु मारपा के पास और उनसे माफी माँग लेते हैं।" ऐसा कहकर दूसरे गुरु ने अपनी सारी संपत्ति अपने गुरु मारपा को अर्पण करने के लिए साथ में ले ली। सिर्फ एक लंगड़ी बकरी को ही घर पर छोड़ दिया।
दोनों पहुँचे मारपा के पास। शिष्य द्वारा अर्पित की हुई सारी संपत्ति मारपा ने स्वीकार कर ली, फिर पूछाः "वह लंगड़ी बकरी क्यों नहीं लाये?" तब वह शिष्य फिर से उतनी दूरी तय करके वापस घर गया। बकरी को कंधे पर उठाकर लाया और गुरुजी को अर्पित की। यह देखकर गुरुजी बहुत खुश हुए। मिलारेपा के सामने देखते हुए बोलेः "मिलारेपा ! मुझे ऐसी गुरुभक्ति चाहिए। मुझे बकरी की जरूरत नहीं थी लेकिन मुझे तुम्हें पाठ सिखाना था" मिलारेपा ने भी अपने पास जो कुछ था उसे गुरुचरणों में अर्पित कर दिया। मिलारेपा के द्वारा अर्पित की हुई चीजें देखकर मारपा ने कहाः "ये सब चीजें तो मेरी पत्नी की हैं। दूसरे की चीजें तू कैसे भेंट में दे सकता है?" ऐसा कहकर उन्होंने मिलारेपा को धमकाया।
मिलारेपा फिर से खूब हताश हो गया। उसने सोचा कि "मैं कहाँ कच्चा साबित हो रहा हूँ, जो मेरे गुरुजी मुझ पर प्रसन्न नहीं होते?" उसने मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना की और निश्चय किया कि 'इस जीवन में गुरुजी प्रसन्न हों ऐसा नहीं लगता। अतः इस जीवन का ही गुरुजी के चरणों में बलिदान कर देना चाहिए।' ऐसा सोचकर जैसे ही वह गुरुजी के चरणों में प्राणत्याग करने को उद्यत हुआ, तुरंत ही गुरु मारपा समझ गये, 'हाँ, अब चेला तैयार हुआ है।'
मारपा ने खड़े होकर मिलारेपा को गले लगा लिया। मारपा की अमीदृष्टि मिलारेपा पर बरसी। प्यारभरे स्वर में गुरुदेव बोलेः "पुत्र ! मैंने जो तेरी सख्त कसौटियाँ लीं, उनके पीछे एक ही कारण था – तूने आवेश में आकर जो पाप किये थे, वे सब मुझे इसी जन्म में भस्मीभूत करने थे, तेरी कई जन्मों की साधना को मुझे इसी जन्म में फलीभूत करना था। तेरे गुरु को न तो तेरी भेंट की आवश्यकता है न मकान की। तेरे कर्मों की शुद्धि के लिए ही यह मकार बँधवाने की सेवा खूब महत्त्वपूर्ण थी। स्वर्ण को शुद्ध करने के लिए तपाना ही पड़ता है न ! तू मेरा ही शिष्य है। मेरे प्यारे शिष्य ! तेरी कसौटी पूरी हुई। चल, अब तेरी साधना शुरु करें।" मिलारेपा दिन-रात सिर पर दीया रखकर आसन जमाये ध्यान में बैठता। इस तरह ग्यारह महीने तक गुरु के सतत सान्निध्य में उसने साधना की। प्रसन्न हुए गुरु ने देने में कुछ बाकी न रखा। मिलारेपा को साधना के दौरान ऐसे-ऐसे अनुभव हुए, जो उसके गुरु मारपा को भी नहीं हुए थे। शिष्य गुरु से सवाया निकला। अंत में गुरु ने उसे हिमालय की गहन कंदराओं में जाकर ध्यान-साधना करने को कहा।
अपनी गुरुभक्ति, दृढ़ता एवं गुरु के आशीर्वाद से मिलारेपा ने तिब्बत में सबसे बड़े योगी के रूप में ख्याति पायी। बौद्ध धर्म की सभी शाखायें मिलारेपा की मानती हैं। कहा जाता है कि कई देवताओं ने भी मिलारेपा का शिष्यत्व स्वीकार करके अपने को धन्य माना। तिब्बत में आज भी मिलारेपा के भजन एवं स्तोत्र घर-घर में गाये जाते हैं। मिलारेपा ने सच ही कहा हैः
"गुरु ईश्वरीय शक्ति के मूर्तिमंत स्वरूप होते हैं। उनमें शिष्य के पापों को जलाकर भस्म करने की क्षमता होती है।"
शिष्य की दृढ़ता, गुरुनिष्ठा, तत्परता एवं समर्पण की भावना उसे अवश्य ही सतशिष्य बनाती है, इसका ज्वलंत प्रमाण हैं मिलारेपा। आज के कहलानेवाले शिष्यों को ईश्वरप्राप्ति के लिए, योगविद्या सीखने के लिए आत्मानुभवी सत्पुरुषों के चरणों में कैसी दृढ़ श्रद्धा रखनी चाहिए इसकी समझ देते हैं योगी मिलारेपा।
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