बुधवार, जून 02, 2010

आत्‍मज्ञान कैसे हो ?

आत्मा और परमात्मा की एकता का ज्ञान ही मुक्ति है। वास्तव में आप शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवं प्राण इन पाँचों से पृथक, सबको सत्ता देने वाले हो। आप ईश्वर से अभिन्न हो परंतु हृदय में काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं मत्सररूपी चूहों ने बिल बनाकर कचरा भर दिया है। विषयों की तृष्णा ने आत्मानंदरूपी दीपक को बुझाकर अज्ञान का अंधकार फैला दिया है।


अब प्रश्न है कि कचरा कैसे निकाला जाये ? झाड़ू लगाने से। बिल कैसे बंद हों ? पत्थर तथा कंकरीट भरने से। अंधकार कैसे दूर हो ? प्रकाश करने से।

संकल्प विकल्प कम करना, यह झाड़ू लगाना है। काम, क्रोध, लोभ, मोह व मत्सर इन पाँचों चोरों से अपने को बचान, यह बिलों को बंद करना है तथा आत्मज्ञान का विचार करना, यह प्रकाश करना है। ज्ञान का प्रकाश करके अविद्यारूपी अंधकार को हटाना है। आपकी हृदय गुफा में तो पहले से ही ऐसा दीपक विद्यमान है, जिसका तल और बाती कभी समाप्त ही नहीं होती। आवश्यकता है तो बस, ऐसे सदगुरू की जो अपनी ज्ञानरूपी ज्योत से आपकी ज्योत को जला दें।

जैसे सूर्य के ताप से उत्पन्न बादल कुछ समय के लिए सूर्य को ही ढँक लेते हैं, ऐसे ही आप भी अज्ञान का पर्दा चढ़ गया है। जैसे जल में उत्पन्न बुदबुदा जल ही है, परंतु वह जल तब होगा जब अपना परिच्छिन्न अस्तित्व छोड़ेगा।

बुदबुदे एवं लहरें सागर से प्रार्थना करने लगीं- "हे सागर देवता ! हमें अपना दर्शन कराइये।" सागर ने कहाः "ऐ मूर्खो ! तुम लोग मुझसे भिन्न हो क्या ? तुम स्वयं सागर हो, अपना स्वतंत्र अस्तित्व मानकर तुमने स्वयं को मुझसे भिन्न समझ लिया है।" इसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा दो भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं। अज्ञानतावश द्वैत का भ्रम हो गया है।

एक संत ने अपने शिष्य से कहाः "बेटा ! एक लोटे में गंगाजल भरकर ले आओ।" शिष्य दौड़कर पास ही में बह रही गंगा नदी से लोटे में जल भरके ले आया। गुरू जी ने लोटे के जल को देखकर शिष्य से कहाः "बेटा ! यह गंगाजल कहाँ है ? गंगा में तो नावें चल रही हैं, बड़े-बड़े मगरमच्छ और मछलियाँ क्रीड़ा कर रही हैं, लोग स्नान पूजन कर रहे हैं। इसमें वे सब कहाँ हैं ?"

शिष्य घबरा गया। उसने कहाः "गुरूजी ! मैं तो गंगाजल ही भरकर लाया हूँ।" शिष्य को घबराया हुआ देख संतश्री ने कहाः "वत्स ! दुःखी न हो। तुमने आज्ञा का ठीक से पालन किया है। यह जल कल्पना के कारण गंगाजल से भिन्न भासता है, परंतु वास्तव में है वही। फिर से जाकर इसे गंगाजी में डालोगे तो वही हो जायेगा। रत्तीभर भी भेद नहीं देख पाओगे। इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा, भ्रांति के कारण अलग-अलग भासित होते हैं। वास्तव में हैं एक ही। मन की कल्पना से जगत की भिन्नता भासती है, परंतु वास्तव में एक ईश्वर ही सर्वत्र विद्यमान है।

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