गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

चिन्ता से निश्चिन्तता की ओर



अन्तःकरण की दो धाराएँ होती हैं- एक होती है चिन्ता की धारा और दूसरी होती है चिन्तन की धारा, विचार की धारा।
जिसके जीवन में दिव्य विचार नहीं है, दिव्य चिन्तन नहीं है वह चिन्ता की खाई में गिरता है। चिन्ता से बुद्धि संकीर्ण होती है। चिन्ता से बुद्धि का विनाश होता है। चिन्ता से बुद्धि कुण्ठित होती है। चिन्ता से विकार पैदा होते हैं।
जो निश्चिन्त हैं वे दारू नहीं पीते। जो विचारवान हैं वे फिल्म की पट्टियों में अपना समय बरबाद नहीं करते। सौ वेश्याओं के पास जाना इतना बुरा नहीं जितना फिल्म में जाना बुरा है ऐसा स्वामी माधवतीर्थजी ने लालजी महाराज को कहा। लालजी महाराज पूर्व जीवन में नाटक के रसिया थे। नाटक देखने के लिए दो पाँच दस मील चलना पड़े तो भी चलकर नाटक देख लेते। जब कमाने लगे तब अपने पैसों से दूसरों को भी नाटक दिखाने की वृत्ति बनी रहती। लेकिन संत के दो वचन लग गये, सदविचार उत्पन्न हो गया तो जीवन परिवर्तन हो गया। अभी आपके सामने ऊँचे आसन पर आदर योग्य हो रहे हैं। यह विचार का ही तो प्रभाव है।
स्वामी माधवतीर्थ ने कहा कि सौ वेश्याओं के पास जाना उतना हानिकारक नहीं जितना फिल्म में जाना हानिकारक है। वेश्या दिखेगा कि हानि है लेकिन फिल्म के गहरे संस्कार में पता ही नहीं चलता कि हानि हो रही है। फिल्म में जो दिखता है वह वास्तव में सच्चा नहीं है फिर भी हृदय में जगत की सत्यता और आकर्षण पैदा कर देता है। फिर हृदय में अभाव खटकता रहेगा। अभाव खटकता रहेगा तो चिन्ता के शिकार बन जाएँगे। चलचित्र विचार करने नहीं देंगे, इच्छा बढ़ा देंगे। हल्की सांसारिक इच्छाओं से आदमी का विनाश होता है।
विचारवान पुरूष अपनी विचारशक्ति से विवेक-वैराग्य उत्पन्न करके वास्तव में जिसकी आवश्यकता है उसे पा लेगा। मूर्ख आदमी जिसकी आवश्यकता है उसे समझ नहीं पायेगा और जिसकी आवश्यकता नहीं है उसको आवश्यकता मानकर अपना जीवन खो देगा। उसे चिन्ता होती है कि रूपये नहीं होंगे तो कैसे चलेगा, गाड़ी नहीं होगी तो कैसे चलेगा, अमुक वस्तु नहीं होगी तो कैसे चलेगा। उसे लगता है कि अपने रूपये हैं, अपनी गाड़ी है, अपना साधन है, हम स्वतन्त्र हैं। आपके पास गाड़ी नहीं है तो परतन्त्र हो गये..... रूपये पैसे नहीं हैं तो परतनत्र हो गये।
उन बेचारे मन्द बुद्धिवाले लोगों को पता ही नहीं चलता कि रूपये पैसे से स्वतन्त्रता नहीं आती। रूपये पैसे हैं तो आप स्वतन्त्र हो गये तो क्या रूपये-पैसों की परतंत्रता नहीं हुई ? गाड़ी की, बंगले की, फ्लेट की, सुविधाओं की परतंत्रता हुई। इन चीजों की परतंत्रता पाकर कोई अपने को स्वतंत्र माने तो यह नादानी के सिवाय और क्या है ? वास्तव में रूपये-पैसे, गाड़ी, मकान आदि सब तुम्हारे शरीर रूपी साधन के लिए चाहिए। साधन के लिए साधन चाहिए। तुम्हारे लिये इन चीजों की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम वास्तविक स्वरूप में परम स्वतंत्र हो। तुमको अपने ज्ञान की आवश्यकता है। अपना ज्ञान जब तक नहीं होगा तब तक तुम अपने साधन (शरीर) की आवश्यकता को अपनी आवश्यकता मान लेते हो। साधन की आवश्यकता भी उतनी नहीं जितनी तुम मानते हो। आवश्यकताएँ मन के नखरे हैं। शरीर साधन है। साधन की जो नितान्त आवश्यकता है वह आसानी से पूरी होती है। जो बहुत जरूरी आवश्यकता है वह बहुत आसानी से पूरी होती है।
जैसे, पेट भरने के लिए रोटी की आवश्यकता है। उसमें ज्यादा परिश्रम नहीं है कमाने में और रोटी बनाने में। विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने में और पचाने में परिश्रम है।
अन्न से ज्यादा जरूरत है जल की। जल प्राप्त करने में उतना भी परिश्रम नहीं है जितना अन्न प्राप्त करने में होता है। जल से भी ज्यादा आवश्यकता है हवा की। जीने के लिए हवा के बिना नहीं रह सकते। ऐसी मूल्यवान हवा प्राप्त करने के लिए क्या परिश्रम करते हो ? कुछ नहीं। हवा तो सदा सर्वत्र मुफ्त में उपलब्ध है।
तुम्हारे शरीररूपी साधन को जो आवश्यकता है वह पूरी करने की व्यवस्था शरीर देने वाले दाता, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर ने की है।
तुलसीदास जी कहते हैं-
पहले रच्यो प्रारब्ध पीछे दियो शरीर।
तुलसी चिन्ता क्यों करे प्रेम से भजो रघुवीर।।

पहले इस देह का प्रारब्ध बना है, बाद में देह बनी है। तुम्हारे इस साधन की जो आवश्यकता है उसकी पहले व्यवस्था हुई है, बाद में देह बनी है। अगर ऐसा न होता तो जन्मते ही तैयार दूध नहीं मिलता। उस दूध के लिए तुमने-हमने कोई परिश्रम नहीं किया था। माँ के शरीर में तत्काल दूध बन गया और बिल्कुल बच्चे के अनुकूल। ऐसे ही हवाएँ हमने नहीं बनाईं, सूर्य के किरण हमने नहीं बनाये, प्राणवायु हमने नहीं बनाया लेकिन हमारे इस साधन को यह सब चाहिए तो सृष्टिकर्त्ता ने पहले बनाया। अतः इस शरीररूपी साधन की जो नितान्त आवश्यकता है उसके लिए चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। सृष्टिकर्त्ता की सृष्टि में आवश्यकता पूरी करने की व्यवस्था है। अज्ञानजनित इच्छा-वासनाओं का तो कोई अन्त ही नहीं है। वे ही भटकाती हैं सबको।
इच्छाएँ हमारी बेवकूफी से पैदा होती हैं और आवश्यकताँ सृष्टिकर्त्ता के संकल्प से पैदा होती हैं। शरीर बना कि उसकी आवश्यकताएँ खड़ी हुईं। सृष्टिकर्त्ता का संकल्प है कि तुम मनुष्य जन्म पाकर मुक्त हो जाओ। अगर तुम अपने को सृष्टिकर्त्ता के संकल्प से जोड़ दो तो तुम्हारी मुक्ति आसानी से हो जाएगी। तुम अपनी नई इच्छाएँ बनाकर चिन्ता करके अपने को कोसते हो तो तुम कर्म के भागी बन जाते हो।
जैसे, किसी ने गुनाह किया और जेल में है। चार साल की सजा हुई है। अब जेल का जैसा नियम है ऐसा वह चलता रहे तो चार साल कट जाएँगे, वह मुक्त हो जाएगा। अगर वह जेल में गड़बड़ी करे, तूफान करे, अपराध करे तो और सजा बढ़ जाएगी। ऐसे ही जीव इस संसाररूपी कारावास में आये हैं, कोई मनुष्य होकर आया है कोई पशु होकर आया है कोई पक्षी होकर। जो लोग समझते हैं कि हम संसार में चार दिन सुख भोगने के लिए आये हैं उन हतभागियों को पता ही नहीं कि संसार सुख लेने की जगह नहीं है। सुख लेगा कौन ? यह जरा खोजो। अपने शरीररूपी साधन को तुम सुखी करना चाहते हो ? साधन जड़ है। उसको कुछ ज्ञान नहीं होता। तुम सुखी होना चाहते हो तो तुम्हें अपना पता नहीं। तुम्हारी कल्पना ही है कि हम सुखी हो जाएँ। यही कारण है कि एक वस्तु पर किसी की कल्पना बन जाएः 'यह मिल जाए तो मैं सुखी....' तो उस कल्पनावाले को वह वस्तु सुखद भासती है। वही वस्तु दूसरे को सुखद नहीं भासती। शराबी, कबाबी, मांसाहारी को ये तुच्छ चीजें सुख देती हैं जबकि सदाचारी को ये सुख नहीं देती। तो मानना पड़ेगा कि वस्तुओं में सुख नहीं है, हमने कल्पना का सुख बनाया है।
कल्पना का सुख और कल्पना का दुःख बना बनाकर आदमी चिन्ता के घटीयंत्र में घूमता रहता है। इस प्रकार अपना सारा आयुष्य पूरा कर देता है।
चिन्ता उन्हीं की होती है जिनके पास ठीक चिन्तन नहीं है। शरीर की आवश्यकता पूरी करने के लिए पुरूषार्थ करना हाथ-पैर चलाना, काम करना, इसकी मनाही नहीं है। लेकिन इसके पीछे अन्धी दौड़ लगाकर अपनी चिन्तनशक्ति नष्ट कर देना यह बहुत हानिकारक है।
निश्चिन्त जीवन कैसे हो ?
निश्चिन्त जीवन तब होता है जब तुम ठीक उद्यम करते हो। चिन्तित जीवन तब होता है जब तुम गलत उद्यम करते हो। लोगों के पास है वह तुमको मिले इसमें तुम स्वतन्त्र नहीं हो। तुम्हारा यह शरीर अकेला जी नहीं सकता। वह कइयों पर आधारित रहता है। तुम्हारे पास जो है वह दूसरों तक पहुँचाने में स्वतन्त्र हो। तुम दूसरे का ले लेने में स्वतंत्र नहीं हो लेकिन दूसरों को अपना बाँट देने में स्वतंत्र हो। मजे की बात यह है कि जो अपना बाँटता है वह दूसरों का बहुत सारा ले सकता है। जो अपना नहीं देता और दूसरों का लेना चाहता है उसको ज्यादा चिन्ता रहती है।
लोग शिकायत करते हैं किः 'हमको कोई पूछता ही नहीं... हमको कोई प्रेम नहीं देता..... हमारा कोई मूल्य नहीं है...... हमारे पास कुछ नहीं है.....।'
तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो कम से कम शरीर तो है। तुम्हारे पास मन तो है। रूपये-पैसे नहीं हैं चलो, मान लिया। लेकिन तुम्हारे पास शरीर, मन और चिन्तन है। तुम औरों की भलाई का चिन्तन करो तो और लोग तुम्हारी भलाई का चिन्तन किए बिना नहीं रहेंगे। तुम्हारे पास जो तनबल है, मनबल है, बुद्धिबल है उनको परहित में खर्च डालो। औरों का लेने में तुम स्वतन्त्र नहीं हो लेकिन अपना औरों तक पहुँचाने में स्वतन्त्र हो। अपना औरों तक पहुँचाना शुरू किया तो औरों का तुम्हारे तक अपने आप आने लग जाएगा।
होता क्या है ? अपना कुछ देना नहीं, औरों का ले लेना है। काम करना नहीं और वेतन लेना है। मजदूर को काम कम करना है और मजदूरी ज्यादा लेना है। सेठ को माल कम देना है और मुनाफा ज्यादा करना है। नेता को सेवा कम करना है और कुर्सी पर ज्यादा बैठना है। सब भिखमंगे बन गये हैं। देने वाला दाता कोई बनता नहीं, सब भिखारी बन गये। इसलिए झगड़े, कलह, विरोध, अशान्ति बढ़ रही है।
परिवार में भी ऐसा होता है। सब सुख लेने वाले हो जाते हैं। सुख देने वाला कोई होता नहीं। मान लेने वाले हो जाते हैं, मान देने वाला कोई नहीं होता। खुद जो दे सकते हैं वह नहीं देना चाहते हैं और लेने के लालायित रहते हैं। सब भिखमंगों के ठीकरे टकराते हैं।
वास्तव में मान लेने की चीज नहीं, सुख लेने की चीज नहीं, देने की चीज है। जो तुम दे सकते हो वह अगर ईमानदारी से देने लग जाओ तो जो तुम पा सकते हो वह अपने आप आ जाएगा।
तुम प्रेम पा सकते हो, अमरता की अनुभूति पा सकते हो, शाश्वत जीवन पा सकते हो। तुम्हारे पास जो नश्वर है वह तुम दे सकते हो। नश्वर देने की आदत पड़ते ही नश्वर की आसक्ति मिट जाती है। नश्वर की आसक्ति मिटते ही शाश्वत की प्रीति जगती है। शाश्वत कोई पराई चीज नहीं है। तुम सब कुछ दे डालो फिर भी तुम इतने महान् हो कि तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ता। तुम बाहर की दुनियाँ से सब कुछ ले लो लेकिन तुम्हारा शरीर इतना तुच्छ है कि आखिर कुछ उसके पास रह नहीं सकता। यह बिल्कुल सनातन सत्य है।
अगर तुम भक्त हो तो भावना ऐसी करो कि सब भगवान का है। सबसे भगवान के नाते व्यवहार करो। अगर तुम ज्ञानमार्ग में हो तो विचार करो कि सब प्रकृति का है, सब परिवर्तनशील है। संसार और शरीर दोनों एक है। शरीर को संसार की सेवा में लगा दो।
शरीर संसार के लिए है। एकान्त अपने लिए है और प्रेम भगवान के लिए है। यह बात अगर समझ में आ जाय तो प्रेम से दिव्यता पैदा होगी, एकान्त से सामर्थ्य आयेगा और निष्कामता से बाह्य सफलताएँ तुम्हारे चरणों में रहेंगी।
शमा जलती है परवानों को आमंत्रण नहीं देती। परवाने अपने आप आ जाते हैं। ऐसे ही तुम्हारा जीवन अगर परहित के लिए खर्च होता है तो तुम्हारे शरीर रूपी साधन के लिए आवश्यकताएँ, सुविधाएँ अपने आप आ जाती हैं। लोग नहीं देंगे तो लोकेश्वर उनको प्रेरित करके तुम्हारी आवश्यकताएँ हाजिर कर देंगे।
जिसने बाँटा उसने पाया। जिसने सँभाला उसने गँवाया।
तालाब और नदी के बीच बात चली। तालाब कहता हैः
"पगली ! कलकल छलछल करती, गाती गुनगुनाती भागी जा रही है सागर के पास। तुझे वह क्या देगा ? तेरा सारा मीठा जल ले लेगा और खारा बना डालेगा। जरा सोच, समझ। अपना जल अपने पास रख। काम आयगा।"
नदी कहती हैः "मैं कल की चिन्ता नहीं करती। जीवन है बहती धारा। बहती धारा को बहने ही दो।"
तालाब ने खूब समझाया लेकिन सरिता ने माना नहीं। तालाब ने तो अपना पानी संग्रह करके रखा। ऐसे ऐसे मच्छों को, मगरों को रख दिये अपने भीतर कि कोई भीतर आ ही न सके, स्नान भी न कर सके, डर के मारे पानी पीने भी न आ सके।
कुछ समय के बाद तालाब का बँधियार पानी गंदा हुआ, उसमें सेवार हो गई, मच्छर बढ़ गये, गाँव में मलेरिया फैल गया। गाँव के लोगों ने और नगर पंचायत ने मिलकर तालाब को भर दिया।
उधर सरिता तो बहती रही। सागर में अपना नाम-रूप मिटाकर मिल गई। अपने को मैं सागर हूँ ऐसा एहसास करने लगी। उसी सागर से जल उठा, वाष्प बना, वर्षा हुई और नदी ताजी की ताजी बहती रही। 'गंगे हर.... यमुने हर.... नर्मदे हर...' जय घोष होता रहा।

गंगा ने कभी सोचा नहीं किः साधु पुरूष आयें तो उन्हें शीतल जल दूँ और सिंह आये तो उसे जहर डालकर दूँ। वह तो बहती जा रही है। सिंह आये तो भी शीतल जल पी जाए और साधु आये तो भी शीतल जल में नहा ले, जल पी ले।
जीवन भी एक ऐसी अमृतधारा हो कि कोई दुष्ट से दुष्ट हो, चाण्डाल से चाण्डाल हो और सज्जन से सज्जन हो, तुम्हारे द्वारा उन दोनों की कुछ न कुछ सेवा हो जाती है तो तुमने कर्जा चुका दिया। जरूरी नहीं है कि तुम्हारी सेवा का बदला वे लोग ही दें। क्या ईश्वर के हजार-हजार हाथ नहीं हैं देने के लिए ? लाखों-लाखों दिल उस परमात्मा के नहीं हैं क्या ?
त्याग से, प्रसन्नता से एकान्त से अदभुत विकास होता है। साधना काल में एकांतवास अत्यन्त आवश्यक है। भगवान बुद्ध ने छः साल तक उरणावलि अरण्य में एकान्तवास किया था। जिसस भारत में आकर सत्रह साल तक एकान्तवास में रहे थे। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने नर्मदा तट पर सदगुरू के सान्निध्य में एकान्तवास में रहकर ध्यानयोग, ज्ञानयोग इत्यादि के उत्तुंग शिखर सर किये थे। उनके दादागुरू एवं सदगुरू गौड़पादाचार्य ने एवं गोविन्दपादाचार्य ने एकान्त-सेवन किया था। अपनी वृत्तियों को इन्द्रियों से हटाकर अन्तर्मुख की थी।
कभी कभी अपने को बन्द कमरे में कुछ दिन तक रखो। प्रारंभ में तुम्हें अकेले रहने में सुविधा न होगी। पहले दो चार घण्टे ही रहो। आत्म-विचार को बढ़ाओ। आत्म-विचार को बढ़ाने वाले पुस्तक पढ़ो। जप करो। प्राणायाम करो। योगासन करो। मौन रखो। मौन से शक्तियों का विकास होता है। साधक ऊपर उठता है। उसकी तपश्चर्या से, मौन से, एकान्त-सेवन से, बन्द कमरे में अज्ञात रहने से सुषुप्त शक्तियाँ विकसित होती हैं। विरोध करने वाले भी उस साधक का आदर करने लग जाते है। अन्न जल, आजीविका की तकलीफ होती थी वह आसानी से दूर हो जाएगी। पुण्य बढ़ेगा।
आध्यात्मिक मार्ग में देखा जाए तो तुम्हारे शत्रु वास्तव में तुम्हारे शत्रु नहीं हैं। बाहर से मित्र दिखते हुए मित्र तुम्हारे गहरे शत्रु हैं। वे तुम्हारा समय खा जाते हैं और तुम्हारी आध्यात्मिक पूँजी चूस लेते हैं, तुमको भी पता नहीं चलता। उनको भी पता नहीं होता कि हम अपने मित्र की आध्यात्मिक पूँजी बरबाद कर रहे है। वे कुछ न कुछ व्यावहारिक काम, सामाजिक काम ले आते हैं, बातें ले आते हैं और तुम्हें बलात् उनके साथ सहमत होना पड़ता है। इन कार्यों में, प्रवृत्ति में तुम्हें संसारी लोगों का संपर्क होता है।
संसारी लोग की और साधक की दिशा बहुत अलग होती है। संसारी के पास जो जो संसार के पद-पदार्थ होते हैं उन्हें बढ़ाने की एवं भविष्य के हवाई किले बाँधने की इच्छा होती है। साधक अपने पास जो है उसको सत्कार्य में लगाने के लिए सोचता है और भविष्य में हरिमय हो जाने की इच्छा करता है।
साधक का लक्ष्य परमात्मा है और संसारी का लक्ष्य तुच्छ भोग है। संसारी की धारा चिन्ता के तरफ जा रही है और साधक की धारा चिन्तन के तरफ जा रही है।
छोटे विचारवाले तुम्हारे मित्र, जिनको संसार प्रिय है, जिनको संसार सच्चा लगता है, जो देह को मैं मान कर देह को सुखी करने में लगे हैं, जो सोचते हैं कि इतना किया है और इतना करके दिखाना है, इतना पाया है और इतना पाकर दिखाना है, इतना देखा है, इतना और देखना है ऐसे संसारी आकर्षणवाले लोगों के संपर्क में जब तुम आ जाओगे तब तुम्हारी एकाग्रता, तुम्हारी विचार-शक्ति, तुम्हारी आध्यात्मिक पूँजी, महीनों की साधना की कमाई अथवा अगले जन्मों की पुण्याई तुम बिखेर डालोगे।
जब आध्यात्मिक पूँजी बिखर जाती है तब साधक बेहाल हो जाता है। जिसस जब भारत के योगियों से योग के रहस्य सीखकर, आध्यात्मिक पूँजी वाले बनकर अपने देश में गये तब लोगों ने उनको माना, पूजा और जब जिसस लोक-सम्पर्क में अधिक आये, आत्म-विचार, एकान्त-सेवन और आत्म-मस्ती छूट गई फिर पूजा करने वाले उन्हीं लोगं ने जिसस को क्रॉस पर चढ़ाया। तब जिसस के उदगार निकलेः
“O my God ! I lost my energy.” ( हे मेरे प्रभु ! मैंने अपनी शक्ति खो दी।)
कहा जाता है कि जिसस का पुनरूत्थान हुआ। वे एकान्त में चले गये। अंतिम समय में एकान्त अज्ञातवास में रहे इसलिए आज पूजे जा रहे हैं।
वे ही महापुरूष बड़ा काम कर गये हैं, उन्होंने ही जगत का कल्याण किया है जिन्होंने एकान्त-सेवन किया है, जिन्होंने आत्म-विश्लेषण किया है, जिन्होंने तुच्छ वस्तुओं का आकर्षण छोड़कर, तुच्छ वस्तुओं की चिन्ता छोड़कर सत्य वस्तु का अनुसंधान किया है। उन्होंने ही जगत की सच्ची सेवा की है। उन्हीं की सिद्धान्त आज तक हम पर राज्य कर रहे हैं। उन महापुरूषों के संकल्प, उन महापुरुषों के आदर्श, उन महापुरूषों के चित्र हमारे दिल पर आज भी राज्य कर रहे हैं।
जिन्होंने 'तू-तू..... मैं-मैं....' करके डण्डे के बल से अपना अहंकार पोसने के लिए राज्य किया है उनकी सत्ता हमारे दिल पर राज्य नहीं कर सकती। जिन महापुरूषों की मधुर स्मृति हमारे हृदय सिंहासन पर आरूढ़ है वे चाहे वेदव्यास हों चाहे वशिष्ठजी महाराज हों, वल्लभाचार्य हों चाहे रामानुजाचार्य हों, एकनाथ जी हों चाहे नामदेव हों, संत ज्ञानेश्वर हों चाहे तुकारामजी हों, शुकदेवजी हों चाहे अष्टावक्र मुनि हों, उनका चित्र दिखे या कथा-प्रसंग सुनने में आये या सिद्धान्त की बात मिले, हमारे दिल पर अच्छा प्रभाव पड़ता है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन को चिन्तन के द्वारा महान् बनाया था।
विचार अपने विषय में होता है और चिन्ता दूसरे के विषय में होती है। अपने विषय में कभी चिन्ता नहीं होती। यह बिल्कुल नई बात लगेगी। अपने विषय में कभी चिन्ता नहीं होगी, अपने विषय में कभी संदेह नहीं होगा, अपने विषय में कभी भय नहीं होगा, अपने विषय में कभी शोक नहीं होगा। जब भय होता है, शोक होता है, चिन्ता होती है तो पर के विषय में होती है।
तुम अपने आप हो आत्मा, दूसरा है शरीर। स्व है आत्मा और पर है शरीर। शरीर के लिए सन्देह रहेगा कि यह शरीर कैसा रहेगा ? बुढ़ापा अच्छा जाएगा कि नहीं ? मृत्यु कैसी होगी ? लेकिन आत्मा के बारे में ऐसा कोई सन्देह, चिन्ता या भय नहीं होगा। आत्म-स्वरूप से अगर मैं की स्मृति हो जाए तो फिर बुढ़ापा जैसे जाता हो, जाय.... जवानी जैसे जाती हो, जाय.... बचपन जैसे जाता हो, जाय..... मेरा कुछ नहीं बिगड़ता।
दुनियाँ के सब लोग मिलकर तुम्हारे शरीर की सेवा में लग जाएँ फिर भी तुम्हारे स्व में कुछ बढ़ौती नहीं होगी। तुम्हारा विरोध में सारा विश्व उल्टा होकर टँग जाय फिर भी तुम्हारे स्व में कोई कटौती नहीं होगी, कोई घाटा नहीं होगा। ऐसा विलक्ष्ण तुम्हारा स्व है। इतने तुम स्वतन्त्र हो। संसार के सारे देशों के प्रेसिडेन्ट, प्रमुख, राष्ट्रपति, सरमुखत्यार, सुल्तान, प्राईम मिनिस्टर सब मिलकर एक आदमी की सेवा में लग जाएँ उसको सुखी करने में लग जाएँ फिर भी जब तक वह आदमी स्व का चिन्तन नहीं करता, स्व का विचार नहीं करता, आत्म विचार नहीं करता तब उसका दुर्भाग्य चालू रहता है। उपर्युक्त सब लोग मिलकर एक आदमी को सताने लग जाए और वह आदमी अगर आत्म-स्वरूप में सुप्रतिष्ठित है तो उसकी कोई हानि नहीं होती। उसके शरीर को चाहे काट दें या जला दें फिर भी वह आत्मवेत्ता अपने को कटा हुआ या जला हुआ मानकर दुःखी नहीं होगा। वह तो उस अनुभव पर खड़ा है जहाँ.....
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्याप न शोषयति मारूतः।।
'आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती।'
(भगवद् गीताः 2.23)
शुकदेवजी और जड़भरत जी जैसे महापुरूषों को कई लोगों ने सताया लेकिन उनका तिनका तक बिगड़ा नहीं क्योंकि वे चिन्तन के बल से स्व में.... आत्मा में प्रतिष्ठित थे।
अभी विनाशकारी अणुबम इतनी मात्रा में बने हैं कि पूरी मानव जात उनसे सात बार मर सकती है। इस पृथ्वी पर मानो साढ़े तीन अरब आदमी हैं तो पच्चीस अरब आदमी मर सकें, उतने अणुबम बनाये गये हैं। आदमियों की शारीरिक आकृतियाँ मरेंगी, मिटेंगी लेकिन आदमियों का चैतन्य जो स्व है, आत्मा है उसको तो ये सब अणुबम मिलकर भी कुछ नहीं कर सकते। सब के सब अणुबम एक आदमी पर खर्च कर दिये जाएँ फिर भी उस आदमी की आत्मा को तनिक भी हानि नहीं हो सकती।
आपका 'स्व' इतना स्वतन्त्र है और शरीर 'पर' है। बेवकूफी से क्या हो गया है कि 'स्व' का पता नहीं और 'पर' को 'स्व' मान लिया..... शरीर को 'मैं' मान लिया।
व्यवहार में कहते हैं, 'मेरा हाथ....' तो तुम हाथ नहीं हो, हाथ से अलग हो। 'मेरा पैर....' तो तुम पैर नहीं हो, पैर से अलग हो। 'मेरा पेट...' तो तुम पेट नहीं हो, पेट से अलग हो। 'मेरा शरीर....' तो तुम शरीर नहीं हो, शरीर से अलग हो। 'मेरा मन.....' तो तुम मन नहीं हो, मन से अलग हो। 'मेरी बुद्धि....' तो तुम बुद्धि नहीं हो, बुद्धि से अलग हो।
तुम्हारे 'स्व' पर, आत्मा पर माया के दो आवरण हैं। माया की यह शक्ति है। जैसे विद्युत के तार में विद्युत दिखती नहीं लेकिन बल्बों के द्वारा, पंखों के द्वारा विद्युत की उपस्थिति का पता चलता है। ऐसे ही माया कोई आकृति धारण करके नहीं बैठी है लेकिन माया का विस्तार यह जगत दिख रहा है उससे माया के अस्तित्व का पता चलता है।
इस माया की दो शक्तियाँ हैः आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति। आवरण बुद्धि पर पड़ता है और विक्षेप मन पर पड़ता है। सत्कार्य करके, जप तप करके, निष्काम कर्म करके विक्षेप हटाया जाता है। विचार करके आवरण हटाया जाता है।
पचास वर्ष तपस्या की, एकान्त का सेवन किया, मौन रहे, समाधि की, बहुत प्रसन्न रहे, सुखी रहे लेकिन भीड़ भड़ाके में आते ही गड़बड़ होगी। भीड़ में वाहवाही होगी तो मजा आयेगा लेकिन लोग तुम्हारे विचार के विरोधी होंगे तो तुम्हारा विक्षेप बढ़ जाएगा। क्योंकि अभी बुद्धि पर से आवरण गया नहीं। अगर आवरण चला गया तो तुम्हें शूली पर भी चढ़ा दिया जाय, कंकड़-पत्थर मारे जाएँ, अपमान किया जाय फिर भी आत्मनिष्ठ के कारण तुम दुःखी जैसे दिखोगे लेकिन तुम पर दुःख का प्रभाव नहीं पड़ेगा, अपमान में तुम अपमानित जैसे दिखोगे लेकिन तुम पर अपमान का प्रभाव नहीं पड़ेगा। मृत्यु के समय लोगों को तुम्हारी मृत्यु होती हुई दिखेगी परन्तु तुम पर मृत्यु का प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम खाते-पीते, आते-जाते, लेते-देते हुए दिखोगे फिर भी तुम इन सबसे परे होगे। तुम आत्म-स्वरूप से कितने स्वतंन्त्र हो !
वासना से परतन्त्रता का जन्म होता है और आत्म विचार से स्वतन्त्रता का।

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