गुरुवार, जुलाई 05, 2012

लघु से गुरु की ओर अग्रसर हो जाओ.........


(परम पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)
'श्रीमद् भागवत माहात्म्य के' प्रथम श्लोक में आता हैः
सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।
जो सत् है, चित् है और आनंदस्वरूप है, जिसकी सत्ता से सृष्टि की उत्पत्ति और स्थिति होती है एवं जिसमें यह सृष्टि विलीन हो जाती है, जो तीनों तापों का नाश करने वाले हैं, उन सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं।
आज तक जिसको मैं-मैं मान रहे थे वह लघु 'मैं' है। व्यासपूर्णिमा हमें लघु 'मैं' में से उठाकर गुरु 'मैं' में स्थापित करती है। इसीलिए व्यासपूर्णिमा को गुरुपूनम कहते हैं।
अंग्रेजी में एक शब्द है 'अंडरस्टैंड', इसका सामान्य अर्थ है 'समझना' किंतु आध्यात्मिक अर्थ में इसी शब्द को लें तो 'अंडरस्टैंड' अर्थात् 'नीचे खड़े रहना'। तुम्हारी वृत्तियों की, नाम और रूप की, 'मैं-मेरे' की गहराई में जो स्वरूप है, उसमें जो टिक जाता है वह रहस्य समझ जाता है। वह ठीक से 'अंडरस्टैंड' हो जाता है।
लोग बोलते हैं कि धर्म बहुत से हैं पर जिन्होंने धर्म का अमृत पिया है वे कहते हैं कि बहुत सारे धर्म नहीं हैं, एक ही धर्म है चाहे फिर ईसाई धर्म का प्रतीक लेकर चलो या इस्लाम का, चाहे बौद्ध का लेकर चलो या हिन्दुत्व का – मूल में, गहराई में देखा जाये तो एक ही धर्म है। कोई किसी भी जाति-पाँति का हो, वह धर्म के रस को तभी उपलब्ध होता है जब वह ठीक से 'अंडरस्टैंड' होता है, थोड़ा नाम-रूप से परे होता है, प्रार्थना करते-करते अपनी क्षुद्र इच्छा को ईश्वराधीन कर देता है। ध्यान करते-करते क्षुद्र 'मैं' को भूल जाता है और गुरु 'मैं' में जब 'अंडरस्टैंड' हो जाता है तो उसका काम बन जाता है, वह यहीं मुक्त हो जाता है। स्वर्गादि दिव्य लोकों की चिंता हो तो वहाँ जाता है। क्या ख्याल है !
जो हमारी बिखरी हुई वृत्तियों को व्यवस्थित करें, जो हमारे लघु आकर्षणों को मिटाकर धीरे धीरे हमारे में गुरुत्व लायें, जो लघु को गुरु बना दें, जो क्षुद्र को महान बनाने की व्यवस्था करें, ऐसे पुरुषों को हम 'व्यास' कहते हैं।
अठारह पुराणों का सर्जन करने वाले भगवान वेदव्यास जी अपने कृष्ण वर्ण के कारण 'कृष्ण द्वैपायन' के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। वे महापुरुष आठ-आठ घंटे की समाधि में बैठा करते थे। जब भूख लगती तब बदरी के पेड़ों से बेर चुन-चुनकर खा लिया करते थे, उनका दूसरा नाम पड़ा 'बादरायण'। हमारी बिखरी हुई वृत्तियों को सुव्यवस्थित करने के लिए उन समाधिनिष्ठ पुरुष ने, कारक पुरुष ने अठारह पुराणों का सर्जन किया फिर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। परोपकार करने में कोई संतुष्ट हो जाता है तो समझो कि उसने अभी परोपकार के आनंद का अनुभव किया ही नहीं। व्यासजी ने ही विश्व को पाँचवाँ वेद 'महाभारत' प्रदान किया, जिसका लेखन आषाढ़ी पूनम के पावन पर्व पर पूर्ण हुआ। भक्तिरस से भरपूर ग्रंथ 'श्रीमद् भागवत' की रचना भी महर्षि वेदव्यास जी द्वारा ही हुई है। विश्व के प्रथम आर्ष ग्रंथ, प्रथम दार्शनिक ग्रंथ 'ब्रह्मसूत्र' के निर्माण का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। ब्रह्मसूत्र का आरम्भ भी आषाढ़ी पूनम के दिन हुआ था।
ऐसे गुरुओं का आदर किसी व्यक्ति का आदर नहीं है। मानव समाज को जब तक सच्चे सुख की, सच्चे ज्ञान की माँग रहेगी, तब तक ऐसे सदगुरुओं का पूजन होता ही रहेगा। मानव-जाति को जब तक अपने उत्तम लक्ष्य की स्मृति बनी रहेगी, तब तक उत्तम पुरुषों का आदर बना रहेगा।
चार प्रकार के लघु लाभ हैं और चार प्रकार के गुरु (बड़े) लाभ हैं। धनलाभ, सत्तालाभ, स्वास्थ्यलाभ और भोगलाभ – इन्हें लाभ तो मानना ही पड़ेगा किंतु ये लघु लाभ हैं। जिनको बड़ी-बड़ी सत्ताएँ मिलीं, धन मिला, स्वास्थ्य मिला और सुख भोग मिला किंतु उनमें गुरु लाभ का मिश्रण नहीं हुआ तो वे खूब परेशान हुए, खूब दुःखी हुए और खूब बदनाम हुए, फिर चाहे वह रावण हो या कंस, हिटलर हो या सीजर। जिन्होंने लघु लाभों में आसक्ति न करके गुरु लाभ भी उनमें मिला दिया, वे श्रेष्ठ पुरुष होकर पूजे गये। वे यहाँ भी सुखी रहे और परलोक में भी सुखी रहे।
जब मिला आतम हीरा, जग हो गया सवा कसीरा।
आत्मलाभ तो ऐसा बढ़िया लाभ है कि उसके आगे इन्द्र का वैभव भी कोई मायना नहीं रखता।
आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।
आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते।।
यह आत्मलाभ मिलता है सदगुरु के सान्निध्य में आने से, सत्संग-श्रवण करने से।
गुरुपूर्णिमा का, व्यासपूर्णिमा का पावन महोत्सव हमें लघु लाभों से अनासक्त बनाकर गुरुलाभ की ओर प्रोत्साहित करता है, प्रेरित करता है और दिव्य गुरुप्रसाद चखने का भी अवसर दे देता है। हे व्यासदेव ! हे ब्रह्मवेत्ताओ ! आत्मारामी संतो ! चाहे आप किसी भी शरीर में, किसी भी नाम में थे या हैं, आपके श्रीचरणों में हमारे हृदयपूर्वक प्रणाम हैं.....
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 157
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