मंगलवार, जुलाई 03, 2012

सदगुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकटाने का पर्वः गुरुपूर्णिमा....


पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी

किसी चक्र के केन्द्र में जाना हो तो व्यास का सहारा लेना पड़ता है। यह जीव अनादिकाल से माया के चक्र में घटीयंत्र (अरहट) की नाईं घूमता आया है। संसार के पहिये को जो कील है वहाँ नहीं पहुँचा तो उसका घूमना चालू ही रहता है और वहाँ पहुँचन है तो ʹव्यासʹ का सहारा लेना होगा। जैसे प्रधानमंत्री के पद पर कोई बैठता है तो वह प्रधानमंत्री है, ऐसे ही संसार के चक्र से पार करने वाले जो गुरु हैं वे ʹव्यासʹ हैं। वेदव्यासजी के प्रसाद का जो ठीक ढंग से वितरण करते हैं, उन्हें भी हम ʹव्यासʹ कहते हैं।
आषाढ़ी पूर्णिमा को ʹव्यास पूर्णिमाʹ कहा जाता है। वेदव्यासजी ने जीवों के उद्धार हेतु, छोटे से छोटे व्यक्ति का भी उत्थान कैसे हो, महान से महान विद्वान को भी लाभ कैसे हो – इसके लिए वेद का विस्तार किया। इस व्यासपूर्णिमा को ʹगुरुपूर्णिमाʹ भी कहा जाता है। ʹगुʹ माने अंधकार, ʹरूʹ माने प्रकाश। अविद्या, अंधकार में जन्मों से भटकता हुआ, माताओं के गर्भों में यात्रा करता हुआ वह जीव आत्मप्रकाश की तरफ चले इसलिए इसको ऊपर उठाने के लिए गुरुओं की जरूरत पड़ती है। अंधकार हटाकर प्रकाश की ज्योति जगमगाने वाले जो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आत्मरामी महापुरुष अपने-आप में तृप्त हुए हैं, समाज व्यासपूर्णिमा के दिन ऐसे महापुरुषों की पूजा आदर सत्कार करता है। उनके गुण अपने में लाने का संकल्प करता है।
बिखरी चेतना, बिखरी वृत्तियों को सुव्यवस्थित करके कथा वार्ताओं द्वारा जो सुव्यवस्था करें उनको ʹव्यासʹ कहते हैं। व्यासपीठ पर विराजने वाले को आज भी भगवान व्यास की पदवी प्रदान करते हैं। हे मेरे तारणहार गुरुदेव ! आप मेरे व्यास हो । जिनमें जिज्ञआसुओं को तत्त्वज्ञान का उपदेश देने का सामर्थ्य है वे मेरे गुरु हैं। हे सच्चिदानंदस्वरूप का दान देने वाले दाता ! आप व्यास भी हैं और मेरे गुरु भी हैं।
त्रिगुणमयी माया में रमते जीव को गुणातीत करने वाले हे मेरे गुरुदेव ! आप ही मेरे व्यास, मेरे गुरु और मेरे सदगुरु हैं। आपको हजार हजार प्रणाम हों ! धन्य हैं भगवान वेदव्यासजी, जिन्होंने जिज्ञासुओं के लिए वेद के विभाग करके कर्म, उपासना और ज्ञान के साधकों का मार्गदर्शन किया। उन व्यास के सम्मान में मनायी जाती है व्यासपूर्णिमा। ऐसी व्यासपूर्णिमा को भी प्रणाम हो जो साधकों को प्रेरणा और पुष्टि देती है।
गुरु माने भारी, बड़ा, ऊँचा। गुरु शिखर ! तिनका थोड़े से हवा के झोंके से हिलता है, पत्ते भी हिलते हैं लेकिन पहाड़ नहीं डिगता। वैसे ही संसार की तू-तू, मैं-मैं, निंदा-स्तुति, सुख-दुःख, कूड़ कपट, छैल छबीली अफवाहों में जिनका मन नहीं डिगता, ऐसे सदगुरुओं का सान्निध्य देने वाली है गुरूपूर्णिमा। ऐसे सदगुरु का हम कैसा पूजन करें ? समझ में नहीं आता फिर भी पूजन किये बिना रहा नहीं जाता।



कैसे करें मानस पूजा ?



गुरुपूनम की सुबह उठें। नहा-धोकर थोड़ा-बहुत धूप, प्राणायाम आदि करके श्रीगुरुगीता का पाठ कर लें। फिर इस प्रकार मानसिक पूजा करें-
ʹमेरे गुरुदेव ! मन ही मन, मानसिक रूप से मैं आपको सप्ततीर्थों के जल से स्नान कर रहा हूँ। मेरे नाथ ! स्वच्छ वस्त्रों से आपका चिन्मय वपु (चिन्मय शरीर) पोंछ रहा हूँ। शुद्ध वस्त्र पहनाकर मैं आपको मन से ही तिलक करता हूँ, स्वीकार कीजिये। मोगरा और गुलाब के पुष्पों की दो मालाएँ आपके वक्षस्थल में सुशोभित करता हूँ। आपने तो हृदयकमल विकसित करके उसकी सुवास हमारे हृदय तक पहुँचायी है लेकिन हम यह पुष्पों की सुवास आपके पावन तन तक पहुँचाते हैं, वह भी मन से, इसे स्वीकार कीजिये। साष्टांग दंडवत् प्रणाम करके हमारा अहं आपके श्रीचरणों में धरते हैं।
हे मेरे गुरुदेव ! आज से मेरी देह, मेरा मन, मेरा जीवन मैं आपके दैवी कार्य के निमित्त पूरा नहीं तो हर रोज 2 घंटा, 5 घंटा अर्पण करता हूँ, आप स्वीकार करना। भक्ति, निष्ठा और अपनी अऩुभूति का दान देने वाले देव ! बिना माँगे कोहिनूर का भी कोहिनूर आत्मप्रकाश देने वाले हे मेरे परम हितैषी ! आपकी जय-जयकार हो।ʹ



इस प्रकार पूजन तब तक बार-बार करते रहें जब तक आपका पूजन गुरु तक, परमात्मा तक नहीं पहुँचे। और पूजन पहुँचने का एहसास होगा, अष्टसात्त्विक भावों (स्तम्भ-खम्भे जैसा खड़ा होना, स्वेद-पसीना छूटना, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, वैवर्ण्य-वर्ण बदलना, अश्रु-प्रलय-तल्लीन होना) में से कोई-न-कोई भाव भगवत्कृपा, गुरुकृपा से आपके हृदय में प्रकट होगा। इस प्रकार गुरुपूर्णिमा का फायदा लेने की मैं आपको सलाह देता हूँ। इसका आपको विशेष लाभ होगा, अनंत गुना लाभ होगा। गुरुकृपा तो सबको चाहिए



बुद्धिमान मनुष्य कंगाल होना पसंद करता है, निगुरा होना नहीं। वह निर्धन होना पसंद करता है, आत्मधन का त्याग नहीं। वह निःसहाय होना पसंद करता है, गुरु की सहायता का त्याग कभी नहीं। और जिसको गुरु की सहायता मिलती है वह निःसहाय कैसे रह सकता है ! जिसके पास आत्मधन है उसको बाहर के धन की परवाह कैसी !
इन्द्र से जब उनके गुरु रूठे तभी इन्द्र निःसहाय हुए थे। जब गुरुकृपा मिली तो इन्द्र फिर सफल हुए। देवताओं को और उनके राजा को भी गुरुकृपा चाहिए। दैत्यों और दैत्यों के राजा को भी गुरुकृपा चाहिए। बुद्धिमान शिवाजी जैसों को भी गुरुकृपा चाहिए और विवेकानन्द को भी गुरुकृपा चाहिए।



भगवान कृष्ण अपने गुरु का आदर करते, उन्हें रथ में बिठाते और घोड़े खोलकर स्वयं रथ खींचते। श्रद्धाहीन निगुरे लोग क्या जानें गुरुभक्ति की महिमा, ईश्वरभक्ति की महिमा ! पाश्चात्य भोगविलास से जिनकी मति भोग के रंग से रँग गयी है, उनको क्या पता कि विवेकानंद को रामकृष्ण की करूणा-कृपा से मीरा को क्या मिला था ! वे क्या जानें समर्थ की निगाहों से शिवाजी को क्या मिला था ! वे क्या जानें लीलाशाहजी बापू की कृपा से आशाराम को क्या मिला था ! वे बेचारे क्या जानें ? दोषदर्शन करके अपने अंतःकरण की मलिनता फैलाने वाले क्या जानें महापुरुषों की कृपा-प्रसादी ! नास्तिकता और अहं से भरा दिल क्या जाने सात्त्विकता और भगवत्प्रीति की सुगंध की महिमा ! कबीर जी ने ऐसे लोगों को सुधारने का यत्न कियाः



सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना....
निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना चौरासी में आना जाना।
पड़े नरक की खान निगुरे नहीं रहना....
निगुरा होता हिय का अंधा खूब करे संसार का धंधा।
क्यों करता अभिमान निगुरे नहीं रहना...
सुन लो....



और वे लोग संतों की निंदा करके पाठक संख्या या टी.आर.पी. बढ़ाना चाहते हैं, अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं। प्रचार के साधनों की टी.आर.पी. बढ़ाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। ऐसे उल्लुओं को कबीरजी ने खुल्ला किया हैः



कबीरा निंदक न मिलो, पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।



संत तुलसीदास ने भी ऐसे कुप्रचारकों से बचने हेतु समाज को सावधान कियाः



हरि हर निंदा सुनई जो काना। 
होई पाप गोघात समाना।।
हर गुरु निंदक दादुर होई।
जन्म सहस्र पाव तन सोई।।
गुरु ग्रन्थ साहब में आयाः
संत का निंदक महा हत्यारा।
संत का निंदक परमेसुरि मारा।।
संत के दोखी की पुजै न आसा।
संत का दोखी उठि चलै निरासा।।



अगर सदगुरु मिल जायें तो इस मैला बनाने वाले, वमन, विष्ठा, थूक और मूत्र बनाने वाले शरीररूपी कारखाने में परब्रह्म परमात्मा प्रकट कर सकती है सदगुरु की कृपा ! निंदक अभागे क्या जानें ? उऩ्हें तो निकोटिन जहरवाली सिगरेट अच्छी लगती है, उनको तो अनेक रोग देने वाली चाय और कॉफी अच्छी लगती है। उन्हें तो जिसमें अल्कोहल का जहर भरा है वह शराब अच्छी लगती है अथवा तो अहंकार बढ़ाने वाला जहर भरा है ऐसी खुशामद अच्छी लगती है लेकिन सदगुरु के सत्शिष्य को तो सदगुरु के दीदार अच्छे लगते हैं, सदगुरु का सत्संग अच्छा लगता है, सदगुरु का अनुभव अच्छा लगता है।
तू पचीस वर्ष नंगे पैर यात्रा कर ले, पचासों वर्ष तीर्थाटन कर ले, बारह साल शीर्षासन लगाकर उलटा लटक जा पर जब तक तू ज्ञानदाता सदगुरु की कृपा में, सदगुरु के चरणों में अपने-आपको नहीं सौंपेगा, तब तक अंहकार और अज्ञान नहीं जायेगा।
रहूगण राजा कहते हैं- "भगवन् ! आपने जगत का उद्धार करने के लिए ही यह श्रीविग्रह धारण किया है। मेरे सदगुरु ! आपके चरणों में मेरा बार-बार प्रणाम है।" धन्य है रहूगण की मति ! नंगे पैर, खुले सिर अवारा स्थिति में घूमने वाले जड़भरत को वह पूरा पहचान गया।
सत्शिष्य सदगुरु के पास आयेगा, पायेगा, मिटेगा, सदगुरुमय होगा और सैलानी आयेगा तो देखकर, जाँच पड़ताल (ऑडिट) करके चला जायेगा। विद्यार्थी दिमाग का आयेगा तो सदगुरु की बातों को एकत्र करेगा, सूचनाएँ एकत्र करके ले जायेगा, अन्य जगह उन सूचनाओं का उपयोग करके अपने को ज्ञानी सिद्ध करने के भ्रम में जियेगा। सत्शिष्य ज्ञानी सिद्ध होने के लिए नहीं, ज्ञानमय होने के लिए सदगुरु के पास आता है, रहता है और अपने पाप, ताप, अहं को मिटाकर आत्ममय हो जाता है।
पाश्चात्य देशों में देखा गया है कि समाज में जो व्यक्ति प्रसिद्ध हो गया है, जिसके द्वारा बहुजनहिताय की प्रवृत्ति हुई है उसके नाम का स्मारक (मेमोरियल) बनाते हैं, मूर्ति (स्टैचू) बनाते हैं. कालेज का खंड बनाते हैं लेकिन भारतीय ऋषियों ने काल की गति को जाना कि खंड भी देखते-देखते जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, मेमोरियल भी भद्दा हो जाता है। जो श्रेष्ठ हैं, समाज के लिए आदरणीय हैं उन महापुरुषों की स्मृति होनी ही चाहिए ताकि समाज उनको देखकर ऊपर उठे। उऩ आदरणीय पुरुषों को किसी कमरे की दीवार के पत्थऱ में न छपवाकर साधकों के दिल में छापने की जो प्रक्रिया है वह व्यासपूर्णिमा से शुरू हुई।
साधकों के दिल में उन महापुरुषों की गरिमा और महत्त्व को जानने की प्रक्रिया का संस्कार डालने की ऋषियों ने जो आशंका की, उस दिव्य इच्छा के पीछे महापुरुषों के हृदय में केवल करूणा ही थी।


स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 12,13