कैसा करूणावान हृदय......
पूज्य बापू जी पावन अमृतवाणी
ब्रह्मा जी के मानस पुत्र ऋभु मुनि जन्मजात ज्ञातज्ञेय थे, फिर भी वैदिक
मर्यादा का पालन करने के लिए अपने बड़े भाई सनत्सुजात से दीक्षित हो गये
एवं अपने आत्मानंद में परितृप्त रहने लगे। ऋभु मुनि ऐसे विलक्षण परमहंस
कोटि के साधु हुए कि उनके शरीर पर कौपीनमात्र था। उऩकी देह ही उनका आश्रम
थी, अन्य कोई आश्रम उन्होंने नहीं बनाया, इतने विरक्त महात्मा थे। पूरा
विश्व अपने आत्मा का ही विलास है, ऐसा समझकर वे सर्वत्र विचरते रहते थे।
एक बार विचरण करते-करते वे पुलस्त्य ऋषि के आश्रम में पहुँचे। पुलस्त्य जी
का पुत्र निदाघ वेदाध्ययन कर रहा था। उसकी बुद्धि कुछ गुणग्राही थी। उसने
देखा कि अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित कोई आत्मारामी संत पधारे हैं। उठकर
उसने ऋभु मुनि का अभिवादन किया। ऋभु मुनि ने उसका आतिथ्य स्वीकार किया।
जैसे रहूगण राजा पहचान गय़े थे कि जड़भरत आत्मारामी संत हैं, परीक्षित और
अन्य ऋषि पहचान गये थे कि शुकदेव जी आत्मवेत्ता महापुरुष हैं, ऐसे ही आश्रम
में रहते-रहते निदाघ इतना पवित्र हो गया था कि उसने भी पहचान लिया कि ऋभु
मुनि आत्मज्ञानी महापुरुष हैं। आत्मवेत्ता ऋभु मुनि को पहचानते ही उसका
हृदय ब्रह्मभाव से पावन होने लगा। उसे हुआ कि ʹमैं अपने पिता के आश्रम में
रहता हूँ इसलिए पिता-पुत्र का संबंध होने के कारण कहीं मेरी आध्यात्मिक
यात्रा अधूरी न रह जाय।ʹ उसने ऋभु मुनि के श्रीचरणों में दंडवत प्रणाम
किया। ऋभु मुनि को भी पता चल गया कि यह अधिकारी है।
जब ऋभु मुनि चलने को उद्यत हुए तो निदाघ साथ में चल पड़ा। एकांत अरण्य से
गुजरते हुए दोनों किसी सरिता के किनारे कुछ दिन रहे। गुरु-शिष्य कंदमूल, फल
का भोजन करते, आत्मा-परमात्मा की चर्चा करते। सेवा में निदाघ की तत्परता
एवं त्याग देखकर ऋभु मुनि ने उसे तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया।
कुछ समय के पश्चात ऋभु मुनि को पता चला कि निदाघ ब्रह्मज्ञान का श्रवण एवं
साधना तो करता है किंतु इसकी वासना अभी पूर्ण रूप से मिटी नहीं है। अतः
उन्होंने निदाघ को आज्ञा दीः "बेटा ! अब गृहस्थ-धर्म का पालन करो और
गृहस्थी में रहते हुए मेरे दिये ज्ञान का खूब मनन निदिध्यासन करके अपने मूल
स्वभाव में जाग जाओ।"
गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर निदाघ अपने पिता के पास आया। पिता ने उसका विवाह
कर दिया। इसके पश्चात निदाघ देविका नदी के तट पर वीरनगर के पास अपना आश्रम
बनाकर निवास करने लगा। वर्ष पर वर्ष बीतने लगे।
ब्रह्मवेत्ता महापुरुष जिसका हाथ पकड़ते हैं, वह अगर उनमें श्रद्धा रखता है
तो वे कृपालु महापुरुष उस पर निगरानी रखते हैं कि साधक कही भटक न जाय....
कैसे भी करके संसार से पार हो जाये।
एक दिन ऋभु मुनि के मन में हुआ कि ʹमेरे शिष्य निदाघ की क्या स्थिति हुई
होगी ? चलो, देख आयें।ʹ परमहंस के वेश में वे निदाघ की कुटिया पर पहुँच
गये। निदाघ उन्हें पहचान न पाया लेकिन साधु-संत मानकर उनका सत्कार किया,
उन्हें भोजन कराया। फिर विश्राम के लिए ऋभु मुनि लेटे तो निदाघ पास में
बैठकर पंखा झलने लगा। निदाघ ने पूछाः "महात्माजी ! भोजन तो ठीक था न ? आप
तृप्त तो हुए न ? अब आपकी थकान मिट रही है न ?"
ऋभु मुनि समझ गये कि शिष्य ने मुझे पहचाना नहीं है। जो अपने-आपको ही नहीं
पहचानता, वह गुरु को कैसे पहचानेगा ? गुरु को पहचानेगा भी तो उनके बाहर के
रूप आकार को। बाहर के रंग-रूप, वेश बदल गये तो पहचान भी बदल जायेगी। जितने
अंश में आदमी अपने को जानता है, उतने ही अंश में वह ब्रह्मवेत्ता गुरुओं
की महानता का एहसास करता है। सदगुरु को जान ले, अपने को पहचान ले, अपने को
पहचान ले तो सदगुरु को जान ले।
जिनकी बुद्धि सदा ब्रह्म में रमण करती थी, ऐसे कृपालु भगवान ऋभु ने निदाघ
का कल्याण करने के लिए कहाः "भूख मिटी या नहीं मिटी, यह मुझसे क्यों पूछता
है ? मैंने भोजन किया ही नहीं है। भूख मुझे कभी लगती ही नहीं है। भूख और
प्यास प्राणों को लगती है लेकिन अज्ञानी समझता है कि ʹमुझे भूख प्यास
लगी...ʹ मानो, दो चार घंटों के लिए भूख-प्यास मिटेगी भी तो फिर लगेगी।
थकान शरीर को लगती है। बहुत बहुत तो मन उससे तादात्म्य (देहभाव) करेगा तो
मन को लगेगी। मुझ चैतन्य को, असंग द्रष्टा को कभी भूख-प्यास, थकान नहीं
लगती। तू प्राणों से ही पूछ कि भूख-प्यास मिटी कि नहीं। शरीर से ही पूछ कि
थकान मिटी की नहीं। जिसको कभी थकान छू तक नही सकती, उसको तू न पूछता है कि
थकान मिटी कि नहीं ?
थकान की नहीं पहुँच है मुझ तक....
भूख प्यास तो है प्राणों का स्वभाव।
मैं हूँ असंग, निर्लेपी, निर्भाव।।
निदाघ ने कहाः "आप जैसा बोलते हैं, मेरे गुरुदेव भी ऐसा ही बोलते थे। आप
जिस प्रकार का ज्ञान दे रहे हैं, ऐसा ही ज्ञान मेरे गुरुदेव देते थे.... आप
तो मेरे गुरुदेव लगत हैं।"
ऋभु मुनिः "लगते क्या हैं ? हैं ही नादान ! मैं ऋभु मुनि ही हूँ। तूने गृहस्थी के जटिल व्यवहार में आत्मविद्या को ही भुला दिया!"
निदाघ ने पैर पकड़ता हुए कहाः "गुरुदेव ! आप ?"
निदाघ ने गुरुदेव से क्षमा याचना की। ऋभु मुनि उसे आत्मज्ञान का थोड़ा सा
उपदेश देकर चल दिये। कुछ वर्ष और बीत गये। विचरण करते-करते ऋभु मुनि एक बार
फिर वहीं पधारे, अपने शिष्य निदाघ की खबर लेने।
उस वक्त वीरपुरनरेश की सवारी जा रही थी और निदाघ सवारी देखने के लिए खड़ा
था। ऋभु मुनि उसके पास जाकर खड़े हो गये। उन्होंने सोचा, ʹनिदाघ तन्मय हो
गया है सवारी देखने में। आँखों को ऐसा भोजन करा रहा है कि शायद उसके मन में
आ जाय कि ʹमैं राजा बन जाऊँ।ʹ राजेश्वर से भोगेश्वर.... पुण्यों के बल से
राजा बन जायेगा तो फिर पुण्यनाश हो जायेगा और नरक में जा गिरेगा। एक बार
हाथ पकड़ा है तो उसको किनारे लगाना ही है।ʹ
कैसा करूणाभर हृदय होता है सदगुरु का ! कहीं साधक फिसल न जाय, भटक न जाय...
ऋभु मुनि ने पूछाः "यह सब क्या है ?"
निदाघः "यह राजा की शोभायात्रा है।"
"इसमें राजा कौन और प्रजा कौन?"
"जो हाथी पर बैठा है वह राजा है और जो पैदल चल रहे हैं वे प्रजा हैं।"
"हाथी कौन है ?"
"राजा जिस पर बैठा है वह चार पैर वाला पर्वतकाय प्राणी हाथी है। महाराज ! इतना भी नहीं समझते ?"
निदाघ प्रश्न सुनकर चिढ़ने लगा था लेकिन ऋभु मुनि स्वस्थ चित्त से पूछते ही
जा रहे थेः "हाँ.... राजा जिस पर बैठा है वह हाथी है और हाथी पर जो बैठा
है वह राजा है। अच्छा.... तो राजा और हाथी में क्या फर्क है ?"
अब निदाघ को गुस्सा आ गया। छलाँग मारकर वह ऋभु मुनि के कंधों पर चढ़ गया और
बोलाः "देखो, मैं तुम पर चढ़ गया हूँ तो मैं राजा हूँ और तुम हाथी हो। यह
हाथी और राजा में फर्क है।"
फिर भी शांतात्मा, क्षमा की मूर्ति ब्रह्मवेत्ता ऋभु मुनि निदाघ से कहने लगेः "इसमें ʹमैंʹ और ʹतुमʹ किसको बोलते हैं ?"
निदाघ सोच में पड़ गया। प्रश्न अटपटा था। फिर भी बोलाः "जो ऊपर है वह ʹमैंʹ हूँ और जो नीचे है वह ʹतुमʹ है।"
ʹकिंतु ʹमैंʹ और ʹतुमʹ में क्या फर्क है ? हाथी भी पाँच भूतों का है और
राजा भी पाँच भूतों का है। मेरा शरीर भी पाँच भूतों का है और तुम्हारा शरीर
भी पाँच भूतों का है। एक ही वृक्ष की दो डालियाँ आपस में टकराती हैं अथवा
विपरीत दिशा में जाती हैं पर दोनों में रस एक ही मूल से आता है। इसी प्रकार
ʹमैंʹ और ʹतुमʹ एक ही सत्ता से स्फुरित होते हैं तो दोनों में फर्क क्या
रहा ?"
निदाघ चौंकाः ʹअरे ! बात बात में आत्मज्ञान का ऐसा अमृत परोसने वाले मेरे
गुरुदेव ही हो सकते हैं, दूसरे का यह काम नहीं ! ऐसी बातें तो मेरे गुरुदेव
ही कहा करते थे।
वह झट से नीचे उतरा और गौर से निहारा तो वे ही गुरुदेव ! निदाघ उनके चरणों
में लिपट गयाः "गुरुदेव.... ! गुरुदेव...! क्षमा करो। घोर अपराध हो गया।
कैसा भी हूँ, आपका बालक हूँ। क्षमा करो प्रभु !"
ऋभु मुनि वही तत्त्वचर्चा आगे बढ़ाते हुए बोलेः "क्षमा माँगने वाले में और क्षमा देने वाले में मूल धातु कौन सी है ?"
"हे भगवन् ! क्षमा माँगने वाले में और क्षमा देने वाले में मूल धातु वही
आत्मदेव है, जिसमें मुझे जगाने के लिए आप करूणावान तत्पर हुए हैं। हे
गुरुदेव ! मैं संसार के मायाजाल में कहीं उलझ न जाऊँ, इसलिए आप मुझे जगाने
के लिए कैसे कैसे रूप धारण करके आते हैं ! हे प्रभु ! आपकी बड़ी कृपा है।"
"बेटा ! तुझे जो ज्ञान मिला था, उसमें तेरी तत्परता न होने के कारण इतने
वर्ष व्यर्थ बीत गये, उसे तू भूल गया। संसार की मोहनिशा में सोता रह गया।
संसार के इस मिथ्या दृश्य को सत्य मानता रह गया। जब-जब जिसकी जैसी-जैसी
दृष्टि होती है, तब-तब उसे संसार वैसा वैसा ही भासता है। इस संसार का आधार
जो परमात्मा है, उसको जब तक नहीं जाना तब तक ऐसी गलतियाँ होती ही रहेंगी।
अतः हे निदाघ ! अब तू जाग। परमात्म तत्त्व का विचार कर अपने निज आत्मदेव को
जान ले, फिर संसार में रहकर भी तू संसार से अलिप्त रह सकेगा।"
निदाघ ने उनकी बड़ी स्तुति की। ऋभु मुनि की कृपा से निदाघ आत्मनिष्ठ हो गया।
ऋभु मुनि की इस क्षमाशीलता को सुनकर सनकादि मुनियों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उऩ्होंने ब्रह्माजी के सामने उनकी महिमा गायी और ʹक्षमाʹ का एक अक्षर ʹक्षʹ
लेकर उनका नाम ʹऋभुक्षʹ रख दिया। तब से लोग उन्हें ऋभुक्षानंद के नाम से
स्मरण करते हैं।
कैसा करुणावान हृदय होता है सदगुरु का !
हे सदगुरुदेव ! तुम्हारी महिमा है बड़ी निराली।
किन-किन युक्तियों से करते शिष्यों की उन्नति।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 6,7,8
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