जिनके पास गुरुमंत्र होता है, भूत-प्रेत उनका कुछ नहीं कर सकते
मंत्र निश्चित रूप से अपना काम करते हैं। जैसे, पानी में कंकड़ डालते हैं तो उसमें वर्तुलाकार तरंग उठते हैं वैसे ही मंत्रजप से हमारी चेतना में आध्यात्मिक तरंग उत्पन्न होते हैं। हमारे इर्द-गिर्द सूक्ष्म रूप से एक प्रकाशित तेजोवलय का निर्माण होता है। सूक्ष्म जगत में उसका प्रभाव पड़ता है। मलिन तुच्छ चीजें उस तेजोमण्डल के कारण हमारे पास नहीं आ सकतीं।
'श्री मधुसूदनी टीका' श्रीमदभगवदगीता की मशहूर एवं महत्त्वपूर्ण टीकाओं में से एक है। इसके रचयिता श्री मधुसूदन सरस्वती संकल्प करके जब लेखनकार्य के लिए बैठे ही थे कि एक मस्त परमहंस संन्यासी एकाएक द्वार खोलकर भीतर आये और बोलेः
"अरे मधुसूदन! तू गीता पर टीका लिखता है तो गीताकार से मिला भी है कि ऐसे ही कलम उठाकर बैठ गया है? भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किये हैं कि ऐसे ही उनके वचनों पर टीका लिखने लग गया?"
श्री मधुसूदनजी तो थे वेदान्ती, अद्वैतवादी। वे बोलेः "दर्शन तो नहीं किये। निराकार ब्रह्म-परमात्मा सबमें एक है। श्रीकृष्ण के रूप में उनका दर्शन करने का हमारा प्रयोजन भी नहीं है। हमें तो केवल उनकी गीता का अर्थ स्पष्ट करना है।"
"नहीं.... पहले उनके दर्शन करो फिर उनके शास्त्र पर टीका लिखो। लो यह मंत्र। छः महीने इसका अनुष्ठान करो। भगवान प्रकट होंगे। उनसे मिल-जुलकर फिर लेखनकार्य का प्रारंभ करो।"
मंत्र देकर बाबाजी चले गये। श्री मधुसूदनजी ने अनुष्ठान चालू किया। छः महीने पूरे हो गये लेकिन श्रीकृष्ण के दर्शन न हुए। 'अनुष्ठान में कुछ त्रुटि रह गई होगी...' ऐसा सोचकर उन्होंने दूसरे छः महीने में दूसरा अनुष्ठान किया फिर भी श्रीकृष्ण आये नहीं।
श्री मधुसूदन के चित्त में ग्लानि हो गई। सोचा किः 'किसी अजनबी बाबाजी के कहने से मैंने बारह मास बिगाड़ दिये अनुष्ठानों में। कहाँ तो सबमें ब्रह्म माननेवाला मैं अद्वैतवादी और कहाँ 'हे कृष्ण... हे भगवान... दर्शन दो... दर्शन दो...' ऐसे मेरा गिड़गिड़ाना ? जो श्रीकृष्ण की आत्मा है वही मेरी आत्मा है। उसी आत्मा में मस्त रहता तो ठीक रहता। श्रीकृष्ण आये नहीं और पूरा वर्ष भी चला गया। अब क्या टीका लिखना ?"
वे ऊब गये। 'मूड ऑफ' हो गया। अब न टीका लिख सकते हैं न तीसरा अनुष्ठान कर सकते हैं। चले गये यात्रा करने को तीर्थ में। वहाँ पहुँचे तो सामने से एक चमार आ रहा था। उस चमार ने इनको पहली बार देखा और इन्होंने भी चमार को पहली बार देखा। चमार ने कहाः
"बस, स्वामीजी! थक गये न दो अनुष्ठान करके?"
श्रीमधुसूदन स्वामी चौंके ! सोचाः "अरे मैंने अनुष्ठान किये, यह मेरे सिवा और कोई जानता नहीं। इस चमार को कैसे पता चला?"
वे चमार से बोलेः "तेरे को कैसे पता चला?"
"कैसे भी पता चला। बात सच्ची करता हूँ कि नहीं ? दो अनुष्ठान करके थककर आये हो। ऊब गये, तभी इधर आये हो। बोलो, सच कहता हूँ कि नहीं?"
"भाई ! तू भी अन्तर्यामी गुरु जैसा लग रहा है। सच बता, तूने कैसे जाना ?"
"स्वामी जी ! मैं अन्तर्यामी भी नहीं और गुरु भी नहीं। मैं तो हूँ जाति का चमार। मैंने भूत को वश में किया है। मेरे भूत ने बतायी आपके अन्तःकरण की बात।"
"भाई ! देख.... श्रीकृष्ण के तो दर्शन नहीं हुए, कोई बात नहीं। प्रणव का जप किया, कोई दर्शन नहीं हुए। गायत्री का जप किया, दर्शन नहीं हुए। अब तू अपने भूतड़े का ही दर्शन करा दे, चल।"
"स्वामी जी ! मेरा भूत तो तीन दिन के अंदर ही दर्शन दे सकता है। 72 घण्टे में ही वह आ जायेगा। लो यह मंत्र और उसकी विधि।"
श्री मधुसूदन स्वामी विधि में क्या कमी रखेंगे ! उन्होंने विधिसहित जाप किया। एक दिन बीता..... दूसरा बीता..... तीसरा भी बीत गया और चौथा चलने लगा। 72 घण्टे तो पूरे हो गये। भूत आया नहीं। गये चमार के पास। बोलेः "श्री कृष्ण के दर्शन तो नहीं हुए तेरा भूत भी नहीं दिखता?"
"स्वामी जी! दिखना चाहिए।"
"नहीं दिखा।"
"मैं उसे रोज बुलाता हूँ, रोज देखता हूँ। ठहरिये, मैं बुलाता हूँ, उसे।" वह गया एक तरफ और अपनी विधि करके उस भूत को बुलाया, बातचीत की और वापस आकर बोलाः
"बाबा जी ! वह भूत बोलता है कि मधुसूदन स्वामी ने ज्यों ही मेरा नाम स्मरण किया, 'डायल' का पहली ही नंबर घुमाया, तो मैं खिंचकर आने लगा। लेकिन उनके करीब जाने से मेरे को आग...आग... जैसा लगा। उनका तेज मेरे से सहा नहीं गया। उन्होंने ॐ का अनुष्ठान किया है तो आध्यात्मिक ओज इतना बढ़ गया है कि हम जैसे म्लेच्छ उनके करीब खड़े नहीं रह सकते। अब तुम मेरी ओर से उनको हाथ जोड़कर प्रार्थना करना कि वे फिर से अनुष्ठान करें तो सब प्रतिबन्ध दूर हो जायेंगे और भगवान श्रीकृष्ण मिलेंगे। बाद में जो गीता की टीका लिखेंगे। वह बहुत प्रसिद्ध होगी।"
श्री मधुसूदन जी ने फिर से अनुष्ठान किया, भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए और बाद में भगवदगीता पर टीका लिखी। आज भी वह 'श्री मधुसूदनी टीका' के नाम से जग प्रसिद्ध है।
जिसको गुरुमंत्र मिला है और ठीक से उसका जप किया है वह कितने भी भयानक स्मशान से गुजर जाये, कितने भी भूत-प्रेतों के बीच चला जाय तो भूत-प्रेत उस पर हमला नहीं कर सकते, डरा नहीं सकते।
प्रायः उन निगुरे लोगों को भूत-प्रेत, डाकिनी-शाकिनी इत्यादि सताते हैं जो लोग अशुद्ध खाते हैं, प्रदोषकाल में भोजन करते हैं, प्रदोषकाल में मैथुन करते हैं। जिसका इष्टदेव नहीं, इष्टमंत्र नहीं, गुरुमंत्र नहीं उसके ऊपर ही भूत-प्रेत का प्रभाव पड़ता है। जो सदगुरु के शिष्य होते हैं, जिनके पास गुरुमंत्र होता है, भूत-प्रेत उनका कुछ नहीं कर सकते।
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