सोमवार, जुलाई 30, 2012

वैदिक रक्षा सूत्र बनाने की विधि और उसका महत्व





प्रतिवर्ष श्रावणी-पूर्णिमा को रक्षाबंधन का त्यौहार होता है, इस दिन बहनें अपने भाई को रक्षा-सूत्र बांधती हैं । यह रक्षा सूत्र यदि वैदिक रीति से बनाईजाए तो शास्त्रों में उसका बड़ा महत्व है ।

वैदिक रक्षा सूत्र बनाने की विधि:
 सके लिए ५ वस्तुओं की आवश्यकता होती है

(१) दूर्वा (घास) (२) अक्षत (चावल) (३) केसर (४) चन्दन (५) सरसों के दाने ।
इन ५ वस्तुओं को रेशम के कपड़े में लेकर उसे बांध दें या सिलाई कर दें, फिर उसे
कलावा में पिरो दें, इस प्रकार वैदिक राखी तैयार हो जाएगी ।
इन पांच वस्तुओं का महत्त्व
(१) दूर्वा - जिस प्रकार दूर्वा का एक अंकुर बो देने पर तेज़ी से फैलता है और
हज़ारों की संख्या में उग जाता है, उसी प्रकार मेरे भाई का वंश और उसमे सदगुणों
का विकास तेज़ी से हो । सदाचार, मन की पवित्रता तीव्रता से बदता जाए । दूर्वा
गणेश जी को प्रिय है अर्थात हम जिसे राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में विघ्नों
का नाश हो जाए ।
(२) अक्षत - हमारी गुरुदेव के प्रति श्रद्धा कभी क्षत-विक्षत ना हो सदा अक्षत
रहे ।
(३) केसर - केसर की प्रकृति तेज़ होती है अर्थात हम जिसे राखी बाँध रहे हैं, वह
तेजस्वी हो । उनके जीवन में आध्यात्मिकता का तेज, भक्ति का तेज कभी कम ना हो ।
(४) चन्दन - चन्दन की प्रकृति तेज होती है और यह सुगंध देता है । उसी प्रकार
उनके जीवन में शीतलता बनी रहे, कभी मानसिक तनाव ना हो । साथ ही उनके जीवन में परोपकार,  सदाचार और संयम की सुगंध फैलती रहे ।
(५) सरसों के दाने - सरसों की प्रकृति तीक्ष्ण होती है अर्थात इससे यह संकेत
मिलता है कि समाज के दुर्गुणों को, कंटकों को समाप्त करने में हम तीक्ष्ण बनें
इस प्रकार इन पांच वस्तुओं से बनी हुई एक राखी को सर्वप्रथम गुरुदेव के
श्री-चित्र पर अर्पित करें । फिर बहनें अपने भाई को, माता अपने बच्चों को, दादी
अपने पोते को शुभ संकल्प करके बांधे ।
महाभारत में यह रक्षा सूत्र माता कुंती ने अपने पोते अभिमन्यु को बाँधी थी । जब
तक यह धागा अभिमन्यु के हाथ में था तब तक उसकी रक्षा हुई, धागा टूटने पर
अभिमन्यु की मृत्यु हुई ।
इस प्रकार इन पांच वस्तुओं से बनी हुई वैदिक राखी को शास्त्रोक्त नियमानुसार
बांधते हैं हम पुत्र-पौत्र एवं बंधुजनों सहित वर्ष भर सूखी रहते हैं ।
रक्षा सूत्र बांधते समय ये श्लोक बोलें
येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन त्वाम रक्ष बध्नामि, रक्षे माचल माचल: ||

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बुधवार, जुलाई 18, 2012

कैसा करूणावान हृदय......


पूज्य बापू जी पावन अमृतवाणी
ब्रह्मा जी के मानस पुत्र ऋभु मुनि जन्मजात ज्ञातज्ञेय थे, फिर भी वैदिक मर्यादा का पालन करने के लिए अपने बड़े भाई सनत्सुजात से दीक्षित हो गये एवं अपने आत्मानंद में परितृप्त रहने लगे। ऋभु मुनि ऐसे विलक्षण परमहंस कोटि के साधु हुए कि उनके शरीर पर कौपीनमात्र था। उऩकी देह ही उनका आश्रम थी, अन्य कोई आश्रम उन्होंने नहीं बनाया, इतने विरक्त महात्मा थे। पूरा विश्व अपने आत्मा का ही विलास है, ऐसा समझकर वे सर्वत्र विचरते रहते थे।
एक बार विचरण करते-करते वे पुलस्त्य ऋषि के आश्रम में पहुँचे। पुलस्त्य जी का पुत्र निदाघ वेदाध्ययन कर रहा था। उसकी बुद्धि कुछ गुणग्राही थी। उसने देखा कि अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित कोई आत्मारामी संत पधारे हैं। उठकर उसने ऋभु मुनि का अभिवादन किया। ऋभु मुनि ने उसका आतिथ्य स्वीकार किया।
जैसे रहूगण राजा पहचान गय़े थे कि जड़भरत आत्मारामी संत हैं, परीक्षित और अन्य ऋषि पहचान गये थे कि शुकदेव जी आत्मवेत्ता महापुरुष हैं, ऐसे ही आश्रम में रहते-रहते निदाघ इतना पवित्र हो गया था कि उसने भी पहचान लिया कि ऋभु मुनि आत्मज्ञानी महापुरुष हैं। आत्मवेत्ता ऋभु मुनि को पहचानते ही उसका हृदय ब्रह्मभाव से पावन होने लगा। उसे हुआ कि ʹमैं अपने पिता के आश्रम में रहता हूँ इसलिए पिता-पुत्र का संबंध होने के कारण कहीं मेरी आध्यात्मिक यात्रा अधूरी न रह जाय।ʹ उसने ऋभु मुनि के श्रीचरणों में दंडवत प्रणाम किया। ऋभु मुनि को भी पता चल गया कि यह अधिकारी है।
जब ऋभु मुनि चलने को उद्यत हुए तो निदाघ साथ में चल पड़ा। एकांत अरण्य से गुजरते हुए दोनों किसी सरिता के किनारे कुछ दिन रहे। गुरु-शिष्य कंदमूल, फल का भोजन करते, आत्मा-परमात्मा की चर्चा करते। सेवा में निदाघ की तत्परता एवं त्याग देखकर ऋभु मुनि ने उसे तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया।
कुछ समय के पश्चात ऋभु मुनि को पता चला कि निदाघ ब्रह्मज्ञान का श्रवण एवं साधना तो करता है किंतु इसकी वासना अभी पूर्ण रूप से मिटी नहीं है। अतः उन्होंने निदाघ को आज्ञा दीः "बेटा ! अब गृहस्थ-धर्म का पालन करो और गृहस्थी में रहते हुए मेरे दिये ज्ञान का खूब मनन निदिध्यासन करके अपने मूल स्वभाव में जाग जाओ।"
गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर निदाघ अपने पिता के पास आया। पिता ने उसका विवाह कर दिया। इसके पश्चात निदाघ देविका नदी के तट पर वीरनगर के पास अपना आश्रम बनाकर निवास करने लगा। वर्ष पर वर्ष बीतने लगे।
ब्रह्मवेत्ता महापुरुष जिसका हाथ पकड़ते हैं, वह अगर उनमें श्रद्धा रखता है तो वे कृपालु महापुरुष उस पर निगरानी रखते हैं कि साधक कही भटक न जाय.... कैसे भी करके संसार से पार हो जाये।
एक दिन ऋभु मुनि के मन में हुआ कि ʹमेरे शिष्य निदाघ की क्या स्थिति हुई होगी ? चलो, देख आयें।ʹ परमहंस के वेश में वे निदाघ की कुटिया पर पहुँच गये। निदाघ उन्हें पहचान न पाया लेकिन साधु-संत मानकर उनका सत्कार किया, उन्हें भोजन कराया। फिर विश्राम के लिए ऋभु मुनि लेटे तो निदाघ पास में बैठकर पंखा झलने लगा। निदाघ ने पूछाः "महात्माजी ! भोजन तो ठीक था न ? आप तृप्त तो हुए न ? अब आपकी थकान मिट रही है न ?"
ऋभु मुनि समझ गये कि शिष्य ने मुझे पहचाना नहीं है। जो अपने-आपको ही नहीं पहचानता, वह गुरु को कैसे पहचानेगा ? गुरु को पहचानेगा भी तो उनके बाहर के रूप आकार को। बाहर के रंग-रूप, वेश बदल गये तो पहचान भी बदल जायेगी। जितने अंश में आदमी अपने को जानता है, उतने ही अंश में वह  ब्रह्मवेत्ता गुरुओं की महानता का एहसास करता है। सदगुरु को जान ले, अपने को पहचान ले, अपने को पहचान ले तो सदगुरु को जान ले।
जिनकी बुद्धि सदा ब्रह्म में रमण करती थी, ऐसे कृपालु भगवान ऋभु ने निदाघ का कल्याण करने के लिए कहाः "भूख मिटी या नहीं मिटी, यह मुझसे क्यों पूछता है ? मैंने भोजन किया ही नहीं है। भूख मुझे कभी लगती ही नहीं है। भूख और प्यास प्राणों को लगती है लेकिन अज्ञानी समझता है कि ʹमुझे भूख प्यास लगी...ʹ मानो, दो चार घंटों के लिए भूख-प्यास मिटेगी भी तो फिर लगेगी।
थकान शरीर को लगती है। बहुत बहुत तो मन उससे तादात्म्य (देहभाव) करेगा तो मन को लगेगी। मुझ चैतन्य को, असंग द्रष्टा को कभी भूख-प्यास, थकान नहीं लगती। तू प्राणों से ही पूछ कि भूख-प्यास मिटी कि नहीं। शरीर से ही पूछ कि थकान मिटी की नहीं। जिसको कभी थकान छू तक नही सकती, उसको तू न पूछता है कि थकान मिटी कि नहीं ?
थकान की नहीं पहुँच है मुझ तक....
भूख प्यास  तो है प्राणों का स्वभाव।
मैं हूँ असंग, निर्लेपी, निर्भाव।।
निदाघ ने कहाः "आप जैसा बोलते हैं, मेरे गुरुदेव भी ऐसा ही बोलते थे। आप जिस प्रकार का ज्ञान दे रहे हैं, ऐसा ही ज्ञान मेरे गुरुदेव देते थे.... आप तो मेरे गुरुदेव लगत हैं।"
ऋभु मुनिः "लगते क्या हैं ? हैं ही नादान ! मैं ऋभु मुनि ही हूँ। तूने गृहस्थी के जटिल व्यवहार में आत्मविद्या को ही भुला दिया!"
निदाघ ने पैर  पकड़ता हुए कहाः "गुरुदेव ! आप ?"
निदाघ ने गुरुदेव से क्षमा याचना की। ऋभु मुनि उसे आत्मज्ञान का थोड़ा सा उपदेश देकर चल दिये। कुछ वर्ष और बीत गये। विचरण करते-करते ऋभु मुनि एक बार फिर वहीं पधारे, अपने शिष्य निदाघ की खबर लेने।
उस वक्त वीरपुरनरेश की सवारी जा रही थी और निदाघ सवारी देखने के लिए खड़ा था। ऋभु मुनि उसके पास जाकर खड़े हो गये। उन्होंने सोचा, ʹनिदाघ तन्मय हो गया है सवारी देखने में। आँखों को ऐसा भोजन करा रहा है कि शायद उसके मन में आ जाय कि ʹमैं राजा बन जाऊँ।ʹ राजेश्वर से भोगेश्वर.... पुण्यों के बल से राजा बन जायेगा तो फिर पुण्यनाश हो जायेगा और नरक में जा गिरेगा। एक बार हाथ पकड़ा है तो उसको किनारे लगाना ही है।ʹ
कैसा करूणाभर हृदय होता है सदगुरु का ! कहीं साधक फिसल न जाय, भटक न जाय...
ऋभु मुनि ने पूछाः "यह सब क्या है ?"
निदाघः "यह राजा की शोभायात्रा है।"
"इसमें राजा कौन और प्रजा कौन?"
"जो हाथी पर बैठा है वह राजा है और जो पैदल चल रहे हैं वे प्रजा हैं।"
"हाथी कौन है ?"
"राजा जिस पर बैठा है वह चार पैर वाला पर्वतकाय प्राणी हाथी है। महाराज ! इतना भी नहीं समझते ?"
निदाघ प्रश्न सुनकर चिढ़ने लगा था लेकिन ऋभु मुनि स्वस्थ चित्त से पूछते ही जा रहे थेः "हाँ.... राजा जिस पर बैठा है वह हाथी है और हाथी पर जो बैठा है वह राजा है। अच्छा.... तो राजा और हाथी में क्या फर्क है ?"
अब निदाघ को गुस्सा आ गया। छलाँग मारकर वह ऋभु मुनि के कंधों पर चढ़ गया और बोलाः "देखो, मैं तुम पर चढ़ गया हूँ तो मैं राजा हूँ और तुम हाथी हो। यह हाथी और राजा में फर्क है।"
फिर भी शांतात्मा, क्षमा की मूर्ति ब्रह्मवेत्ता ऋभु मुनि निदाघ से कहने लगेः "इसमें ʹमैंʹ और ʹतुमʹ किसको बोलते हैं ?"
निदाघ सोच में पड़ गया। प्रश्न अटपटा था। फिर भी बोलाः "जो ऊपर है वह ʹमैंʹ हूँ और जो नीचे है वह ʹतुमʹ है।"
ʹकिंतु ʹमैंʹ और ʹतुमʹ में क्या फर्क है ? हाथी भी पाँच भूतों का है और राजा भी पाँच भूतों का है। मेरा शरीर भी पाँच भूतों का है और तुम्हारा शरीर भी पाँच भूतों का है। एक ही वृक्ष की दो डालियाँ आपस में टकराती हैं अथवा विपरीत दिशा में जाती हैं पर दोनों में रस एक ही मूल से आता है। इसी प्रकार ʹमैंʹ और ʹतुमʹ एक ही सत्ता से स्फुरित होते हैं तो दोनों में फर्क क्या रहा         ?"
निदाघ चौंकाः ʹअरे ! बात बात में आत्मज्ञान का ऐसा अमृत परोसने वाले मेरे गुरुदेव ही हो सकते हैं, दूसरे का यह काम नहीं ! ऐसी बातें तो मेरे गुरुदेव ही कहा करते थे।
वह झट से नीचे उतरा और गौर से निहारा तो वे ही गुरुदेव ! निदाघ उनके चरणों में लिपट गयाः "गुरुदेव.... ! गुरुदेव...! क्षमा करो। घोर अपराध हो गया। कैसा भी हूँ, आपका बालक हूँ। क्षमा करो प्रभु !"
ऋभु मुनि वही तत्त्वचर्चा आगे बढ़ाते हुए बोलेः "क्षमा माँगने वाले में और क्षमा देने वाले में मूल धातु कौन सी है ?"
"हे भगवन् ! क्षमा माँगने वाले में और क्षमा देने वाले में मूल धातु वही आत्मदेव है, जिसमें मुझे जगाने के लिए आप करूणावान तत्पर हुए हैं। हे गुरुदेव ! मैं संसार के मायाजाल में कहीं उलझ न जाऊँ, इसलिए आप मुझे जगाने के लिए कैसे कैसे रूप धारण करके आते हैं ! हे प्रभु ! आपकी बड़ी कृपा है।"
"बेटा ! तुझे जो ज्ञान मिला था, उसमें तेरी तत्परता न होने के कारण इतने वर्ष व्यर्थ बीत गये, उसे तू भूल गया। संसार की मोहनिशा में सोता रह गया। संसार के इस मिथ्या दृश्य को सत्य मानता रह गया। जब-जब जिसकी जैसी-जैसी दृष्टि होती है, तब-तब उसे संसार वैसा वैसा ही भासता है। इस संसार का आधार जो परमात्मा है, उसको जब तक नहीं जाना तब तक ऐसी गलतियाँ होती ही रहेंगी। अतः हे निदाघ ! अब तू जाग। परमात्म तत्त्व का विचार कर अपने निज आत्मदेव को जान ले, फिर संसार में रहकर भी तू संसार से अलिप्त रह सकेगा।"
निदाघ ने उनकी बड़ी स्तुति की। ऋभु मुनि की कृपा से निदाघ आत्मनिष्ठ हो गया।
ऋभु मुनि की इस क्षमाशीलता को सुनकर सनकादि मुनियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उऩ्होंने ब्रह्माजी के सामने उनकी महिमा गायी और ʹक्षमाʹ का एक अक्षर ʹक्षʹ लेकर उनका नाम ʹऋभुक्षʹ रख दिया। तब से लोग उन्हें ऋभुक्षानंद के नाम से स्मरण करते हैं।
कैसा करुणावान हृदय होता है सदगुरु का !
हे सदगुरुदेव ! तुम्हारी महिमा है बड़ी निराली।
किन-किन युक्तियों से करते शिष्यों की उन्नति।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 6,7,8
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रविवार, जुलाई 15, 2012

बारह प्रकार के गुरु

पूज्य बापू जी की अमृतवाणी


ʹनामचिंतामणिʹ ग्रन्थ में गुरुओं के बारह प्रकार बताये हैं।

एक होते हैं धातुवादी गुरु। ʹबच्चा! मंत्र ले लिया, अब जाओ तीर्थाटन करो। भिक्षा माँग के खाओ अथवा घर का खाओ तो ऐसा खाओ, वैसा न खाओ। लहसुन न खाना, प्याज न खाना, यह करना, वह न करना। इस बर्तन में भोजन करना, ऐसे सोना।ʹ - ऐसी  विभिन्न बातें बताकर अंत में ज्ञानोपदेश देने वाले धातुवादी गुरु होते हैं।
दूसरे होते हैं चंदन गुरु। जिस प्रकार चंदन वृक्ष अपने निकट के वृक्षों को भी सुगन्धित बना देता है, ऐसे ही अपने सान्निध्य द्वारा शिष्य को तारने वाले गुरु चन्दन गुरु होते हैं। चंदन गुरु वाणी से नहीं, आचरण से हममें संस्कार भर देते हैं। उनकी सुवास का चिंतन करके हम भी अपने समाज में सुवासित होने के काबिल होते हैं।
तीसरे होते हैं विचारप्रधान गुरु। जो सार है वह ब्रह्म-परमात्मा है, असार है अष्टधा प्रकृति का शरीर। प्रकृति का शरीर प्रकृति के नियम से रहे लेकिन आप अपने ब्रह्म-स्वभाव में रहें – इस प्रकार का विवेक जगाने वाले आत्म-विचारप्रधान गुरु होते हैं।
चौथे होते हैं अनुग्रह-कृपाप्रधान गुरु। अपनी अऩुग्रह-कृपा द्वारा अपने शिष्यों का पोषण कर दें, दीदार दें दें, मार्गदर्शन दे दें, अच्छा काम करें तो प्रोत्साहित कर दें, गड़बड़ करें तो गुरू की मूर्ति मानो नाराज हो रही है ऐसे गुरु भी होते हैं।
पाँचवें होते हैं पारस गुरु। जैसे पारस अपने स्पर्श से लोहे को सोना कर देता है, ऐसे ही ये गुरु अपने हाथ का स्पर्श अथवा अपनी स्पर्श की हुई वस्तु का स्पर्श कराके हमारे चित्त के दोषों को हरकर  चित्त में आनंद, शान्ति, माधुर्य एवं योग्यता का दान करते हैं।
छठे होते हैं कूर्म अर्थात् कच्छपरूप गुरु। जैसे मादा कछुआ दृष्टिमात्र से अपने बच्चों को पोषित करती है, ऐसे ही गुरुदेव कहीं भी हों अपनी दृष्टिमात्र से, नूरानी निगाहमात्र से शिष्य को दिव्य अनुभूतियाँ कराते रहते हैं। ऐसी गुरुदेव की कृपा का अनुभव मैंने कई बार किया।
सातवें होते हैं चन्द्र गुरु। जैसे चन्द्रमा के उगते ही चन्द्रकान्त मणि से रस टपकने लगता है, ऐसे ही गुरु को देखते ही हमारे अंतःकरण में उनके ज्ञान का, उनकी दया का, आनंद, माधुर्य का रस उभरने, छलकने लगता है। गुरु का चिंतन करते ही, उनकी लीलाओं, घटनाओं अथवा भजन आदि का चिंतन करके किसी को बताते हैं तो भी हमें रस आने लगता है।
आठवें होते हैं दर्पण गुरु। जैसे दर्पण में अपना रूप दिखता है ऐसे ही गुरु के नजदीक जाते ही हमें अपने गुण-दोष दिखते हैं और अपनी महानता का, शांति, आनंद, माधुर्य आदि का रस भी आने लगता है, मानो गुरु एक दर्पण हैं। गुरु के पास गये तो हमें गुरू का स्वरूप और अपना स्वरूप मिलता जुलता, प्यारा-प्यारा सा लगता है। वहाँ वाणी नहीं जाती, मैं बयान नहीं कर सकूँग। मुझे जो अऩुभूतियाँ हुई उनका मैं वर्णऩ नहीं कर सकता। बहुत समय लगेगा फिर भी पूरा वर्णन नहीं कर पाऊँगा।
नौवें होते हैं छायानिधि गुरू। जैसे एक अजगैबी देवपक्षी आकाश में उड़ता है और जिस व्यक्ति पर उसकी ठीक से छाया पड़ जाती है वह राजा बन जाता है ऐसी कथा प्रचलित है। यह छायानिधि पक्षी आकाश में उड़ता रहता है किंतु हमें आँखों से दिखाई नहीं देता। ऐसे ही साधक को अपनी कृपाछाया में रखकर उसे स्वानंद प्रदान करने वाले गुरु छायानिधि गुरु होते हैं। जिस पर गुरु की दृष्टि, छाया आदि कुछ पड़ गयी वह अपने अपने विषय में, अपनी अपनी दुनिया में राजा हो जाता है। राजे महाराज भी उसके आगे घुटने टेकते हैं। यह सामर्थ्य मेरे गुरुदेव में था और मुझे लाभ मिला।
दसवें होते हैं नादनिधि गुरु। नादनिधि मणि ऐसी होती है कि वह जिस धातु को स्पर्श करे वह सोना बन जाती है। पारस तो केवल लोहे को सोना करता है।
एक संत थे गरीबदासजी। वे दादू दयाल जी के शिष्य थे। उनको किसी वैष्णव साधु ने मणि दी उन्होंने वह मणि फेंक दी।

वैष्णव साधु ने कहाः "मैं तो तुम्हारी गरीबी मिटाने के लिए लाया था। इतनी तपस्या के बाद मणि मिली थी, तुमने फेंक दिया ! कितनी कीमती थी !! अब क्या होगा ?"
गरीबदासजी ने कहाः "बाबा ! यह आपके हाथ का चिमटा दिखायें।" उसे अपने ललाट को छुआया तो चिमटा सोने का बन गया। वैष्णव साधु गरीबदास जी के चरणों में पड़ गये।
अब पारसमणि तो नहीं होता है ललाट, नादनिधि भी नहीं होता। क्या वर्णन करें ! मनुष्य के चित्त की कितनी महानता है ! ऐसे भी गुरु होते हैं हैं, जिनका ललाट या वाणी नादनिधि बन जाती है। ऐसी-ऐसी वार्ताएँ सुनकर हृदय आनंदित हो जाता है, अहोभाव से भर जाता है कि ʹहम कितने भाग्यशाली हैं कि भारतीय संस्कृति के ग्रंथ पढ़ने और सुनने का अवसर मिलता है।ʹ
नादनिधि मणि तो ठीक लेकिन गरीबदास जी का मस्तक नादनिधि कैसे बन गया ? वहाँ विज्ञान घुटने टेकने लग जाता है। ऐसे गुरू मुमुक्षु की करूण पुकार सुन के उस पर करुणा करके उसे तत्क्षण ज्ञान दे देते हैं। मुमुक्षु के आगे स्वर्ण तो क्या है, हीरे क्या है, राज्य क्या है ? वह तो राज्य और स्वर्ण का दाता बन जाता है। नादनिधि मणि से भी उन्नत, गुरु की कृपा और गुरु का ज्ञान काम करता है। नादनिधि को तो मैं चमत्कारी मानता हूँ लेकिन उससे भी कई गुना चमत्कारी मेरे गुरुदेव की वाणी और कृपा है। मैं उनके चरणों में अब भी नमस्कार करता हूँ। मेरे गुरुदेव की पूजा के आगे नादनिधि मणि, चिंतामणि, पारसमणि कुछ भी नहीं है। पारसमणिवालों के पास इतने लोग नहीं होते हैं।

ग्यारहवें गुरु होते हैं क्रौंच गुरु। जैसे मादा क्रौंच पक्षी अपने बच्चों को समुद्र-किनारे छोड़कर उनके लिए दूर स्थानों से भोजन लेने जाती है तो इस दौरान वह बार-बार आकाश की ओर देखकर अपने बच्चों को स्मरण करती है। आकाश की ओर देख के अपने बालकों के प्रति सदभाव करती है तो वे पुष्ट हो जाते हैं। ऐसे ही गुरु अपने चिदाकाश में होते हुए अपने शिष्यों के लिए सदभाव करते हैं तो अपने स्थान पर ही शिष्यों को गुदगुदियाँ होने लगती हैं, आत्मानंद मिलने लगता है और वे समझ जाते हैं कि बापू ने याद किया, गुरु ने याद किया। ऐसी गुरुकृपा का अनुभव मुझे कई बार हुआ था। मैंने अनुभव किया कि ʹगुरुजी कहीं दूर हैं और मेरे हृदय में कुछ दिव्य अनुभव हो रहे हैं।ʹ मन में हुआ कि ʹकैसे हो रहा है ʹ तो तुरंत पता चला कि वहाँ से उनका सदभाव मेरी तरफ यहाँ पहुँच गया है।
बारहवें गुरु होते हैं सूर्यकांत गुरु। सूर्यकान्त मणि में ऐसी योग्यता होती है कि सूर्य को देखते ही अग्नि से भर जाती है, ऐसे ही अपनी दृष्टि जहाँ पड़े वहाँ के साधकों को विदेहमुक्ति देने वाले गुरु सूर्यकान्त गुरु होते हैं। शिष्य को देखकर गुरु के हृदय में उदारता, आनंद उभर जाय और शिष्य का मंगल ही मंगल होने लगे, शिष्य को उठकर जाने की इच्छा ही न हो। गुरु का अपना स्वभाव ही बरसने लगे। तीरथ नहाये एक फल....अपनी भावना का ही फल मिलेगा। संत मिले फल चार.....धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मिलेगा लेकिन आत्मसाक्षात्कारी पुरुष में तो मुझे लगता है कि बारह के बारह लक्षण चमचम चमकते हैं। किसी गुरु में एक लक्षण, किसी में दो, किसी में तीन लेकिन ब्राह्मी स्थितिवाला तो ओ हो ! जय लीलाशाह भगवान ! जय जय व्यास भगवान !! ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के चरणों में वंदन ! उऩका बड़ा भारी उपकार है, उनका धरती पर रहना ही मनुष्यों के लिए मंगलकारी है। वे बोलें तो भी मंगल है, ऐसे ही कहीं चुप बैठें और केवल दृष्टि डाल दें तो भी उनके संकल्प और उनको छूकर आने वाली हवाओं से मंगल होता है।
एक गुरु में ऐसे बारह के बारह दिव्य गुण भी हो सकते हैं, दो भी हो सकते हैं, चार भी हो सकते हैं। अब आपको कितने प्रकार के गुरु मिले हैं, आप ही सोच लो। मेरे को तो मिल गये मेरे गुरुदेव। यह सब उन्हीं का विस्तार है और जो दिखता है उससे भी ज्यादा विस्तार है उनका। जहाँ-जहाँ आपकी और मेरी दृष्टि जाती है उससे भी ज्यादा विस्तार है। अनंत ब्रह्मांड भी उनके एक कोने में पड़े हैं। ऐसे हैं मेरे गुरुदेव !
ऐसे गुरुओं पर कीचड़ उछालने वाले हर युग में रहे, फिर भी गुरु परम्परा अभी तक बरकरार है। नानक जी को जेल में डाल दिया। कबीर जी पर लांछन लगाया। बुद्ध पर दोषारोपण किया, कुप्रचार किया। संत नामदेव, ज्ञानेश्वर महाराज का भी खूब कुप्रचार हुआ। संत तुकारामजी महाराज का भी खूब कुप्रचार हुआ। फिर भी वे संत लाखों-करोड़ों के हृदय में अभी भी आदर से विराजमान हैं। लाखों करोड़ों हृदय उन्हें आदर से मानते हैं। निंदक और कुप्रचारक अपना ही घाटा करते हैं।


स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 20,21,22
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रविवार, जुलाई 08, 2012

गुरू आज्ञा सम पथ्य नहीं......


(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)
उज्जयिनी (वर्तमान में उज्जैन) के राजा भर्तृहरि से पास 360 पाकशास्त्री थे भोजन बनाने के लिए। वर्ष में केवल एक एक की बारी आती थी। 359 दिन वे ताकते रहते थे कि कब हमारी बारे आये और हम राजासाहब के लिए भोजन बनायें, इनाम पायें लेकिन भर्तृहरि जब गुरू गोरखनाथजी के चरणों में गये तो भिक्षा माँगकर खाते थे।
एक बार गुरू गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहाः "देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।" शिष्यों ने कहाः "गुरूजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहाँ 360 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आये हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभरहित हो गये !"
गुरू गोरखनाथ जी ने राजा भर्तृहरि से कहाः "भर्तृहरि ! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियाँ ले आओ।" राजा भर्तृहरि नंगे पैर गये, जंगल से लकड़ियाँ एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे।
गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहाः "जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझा गिर जाय।" चेले गये और ऐसा धक्का मारा कि बोझा गिर गया और भर्तृहरि भी गिर गये। भर्तृहरि ने बोझा उठाया लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आँखों में आग के गोले, न होंठ फड़के।
गुरू जी ने चेलों से कहाः "देखा ! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है।"
शिष्य बोलेः "गुरुजी ! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।"
थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भर्तृहरि को महल दिखा रहे थे। ललनाएँ नाना प्रकार के व्यंजन आदि लेकर आदर सत्कार करने लगीं। भर्तृहरि ललनाओं को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गये।
गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहाः "अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तृहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।"
शिष्यों ने कहाः "गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिये।"
गोरखनाथजी ने कहाः "अच्छा भर्तृहरि ! हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरूभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।"
भर्तृहरिः "जो आज्ञा गुरूदेव !"
भर्तृहरि चल पड़े। पहाड़ी इलाका लाँघते-लाँघते मरूभूमि में पहुँचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप... मरुभूमि में पैर रखो तो बस सेंक जाय। एक दिन, दो दिन..... यात्रा करते-करते छः दिन बीत गये। सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से चेलों को भी साथ लेकर वहाँ पहुँचे।
गोरखनाथ जी बोलेः "देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूँ। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।"
अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो !
'मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया ? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया ? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।' – कूदकर दूर हट गये।
गुरु जी प्रसन्न हो गये कि देखो ! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।' गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए लेकिन और शिष्यों की मान्यता ईर्ष्यावाली थी।
शिष्य बोलेः "गुरुजी ! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।"
गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) आगे मिले, बोलेः "जरा छाया का उपयोग कर लो।"
भर्तृहरिः "नहीं, गुरु जी की आज्ञा है नंगे पैर मरुभूमि में चलने की।"
गोरखनाथ जी ने सोचा, 'अच्छा ! कितना चलते हो देखते हैं।' थोड़ा आगे गये तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कंटक-कंटक पैदा कर दिये। ऐसी कँटीली झाड़ी कि कंथा (फटे पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भर्तृहरि ने 'आह' तक नहीं की।
तैसा अंम्रित1 तैसी बिखु2 खाटी।
तैसा मानु तैसा अभिमानु।
हरख सोग3 जा कैं नहीं बैरी मीत समान।
कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान।।
1.अमृत 2. विष 3 हर्ष-शोक
भर्तृहरि तो और अंतर्मुख हो गये, 'यह सब सपना है और गुरुतत्त्व अपना है। गुरु जी ने जो आज्ञा  की है वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है'
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
अंतिम परीक्षा के लिए गुरुगोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरुआज्ञा का भंग तो नहीं हो रहा है ?
उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिये। भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोलेः "शाबाश भर्तृहरि ! वर माँग लो। अष्टसिद्धि दे दूँ, नवनिधि दे दूँ। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिये, ललनाएँ चरण-चम्पी करने को, चँवर डुलाने को तैयार थी, उनके चक्कर में भी नहीं आये। तुम्हें जो माँगना हो माँग लो।"
भर्तृहरिः "गुरूजी ! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है।"
भगवान शिव पार्वतीजी से कहते हैं-
आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।
ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।
'हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।'
"गुरुजी ! आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गये।"
"नहीं भर्तृहरि ! अनादर मत करो। तुमने कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ माँगना ही पड़ेगा।"
इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सुई दिखाई दी। उसे उठाकर भर्तृहरि बोलेः "गुरूजी ! कंथा फट गया है, सुई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंथा सी लूँ।"
गोरखनाथजी और खुश हुए कि 'हद हो गयी ! कितना निरपेज्ञ है, अष्टसिद्धि-नवनिधियाँ कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ तो माँगो तो बोलता है कि सुई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया।'
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।
'जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर भीतर से शुद्ध, दक्ष, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है – वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।'
(गीताः 12.16)
'कोई अपेक्षा नहीं ! भर्तृहरि तुम धन्य हो गये ! कहाँ तो उज्जयिनी का सम्राट और कहाँ नंगे पैर मरुभूमि में ! एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गये।'
अभी भर्तृहरि की गुफा और गोपीचंद की गुफा प्रसिद्ध है।
कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य-जीवन में बहुत सारी ऊँचाइयों को छू सकते हैं।
एक बार नैनीताल में मेरे गुरुदेव ने मुझसे कहाः "जाओ, इन लोगों को 'चाइना पीक' (वर्तमान नाम – नैना पीक, यह हिमालय पर्वत का एक प्रसिद्ध शिखर है) दिखा के आओ।"
चलने वाले आनाकानी कर रहे थे, बार-बार इनकार कर रहे थे। हम हाथा-जोड़ी करके उनको 'चाइना पीक' ले गये। वहाँ मौसम साफ हो गया। सूर्य उदय नहीं हुआ था हम लोग तब चले थे पैदल और शाम को सूर्य ढल गया तब आश्रम में पहुँचे।
गुरुजी ने पूछाः "ऐसा खराब मौसम था, ओले पड़ रहे थे, कैसे पहुँचे ?"
हमारे साथ जो लोग गये थे, वे बोलेः "आसाराम ने कहा कि 'बापूजी ने आज्ञा दी है तो मैं आज्ञा का पालन करूँगा, आप चलो।' हम नहीं जाना चाहते थे तो हमको हाथा-जोड़ी करे, कभी हमको समझाये, कभी सत्संग सुनाये। कैसे भी करके दो बजे हमको 'चाइना पीक' पहुँचा दिया, जहाँ कोई सैलानी नहीं थे, सब वापस भाग गये थे।"
गुरुजी खुश हुए, बोलेः "पीऊऽऽऽ ! जो गुरु की आज्ञा मानता है, प्रकृति उसकी आज्ञा मानेगी।" हमको तो वरदान मिल गया !
सर्प विषैले प्यार से वश में बाबा तेरे आगे।
बादल भी बरसात से पहले तेरी ही आज्ञा माँगें।।
हमने गुरु की आज्ञा मानी तो हमारी तो हजारों लोग आज्ञा मानते हैं। गुरु की आज्ञा मानने से मुझे तो बहुत फायदा हुआ। गुरु की आज्ञा मानने में जो दृढ़ रहता है, बस उसने तो काम कर लिया अपना।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 11, 12, 13 अंक 211
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गुरुवार, जुलाई 05, 2012

लघु से गुरु की ओर अग्रसर हो जाओ.........


(परम पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)
'श्रीमद् भागवत माहात्म्य के' प्रथम श्लोक में आता हैः
सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।
जो सत् है, चित् है और आनंदस्वरूप है, जिसकी सत्ता से सृष्टि की उत्पत्ति और स्थिति होती है एवं जिसमें यह सृष्टि विलीन हो जाती है, जो तीनों तापों का नाश करने वाले हैं, उन सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं।
आज तक जिसको मैं-मैं मान रहे थे वह लघु 'मैं' है। व्यासपूर्णिमा हमें लघु 'मैं' में से उठाकर गुरु 'मैं' में स्थापित करती है। इसीलिए व्यासपूर्णिमा को गुरुपूनम कहते हैं।
अंग्रेजी में एक शब्द है 'अंडरस्टैंड', इसका सामान्य अर्थ है 'समझना' किंतु आध्यात्मिक अर्थ में इसी शब्द को लें तो 'अंडरस्टैंड' अर्थात् 'नीचे खड़े रहना'। तुम्हारी वृत्तियों की, नाम और रूप की, 'मैं-मेरे' की गहराई में जो स्वरूप है, उसमें जो टिक जाता है वह रहस्य समझ जाता है। वह ठीक से 'अंडरस्टैंड' हो जाता है।
लोग बोलते हैं कि धर्म बहुत से हैं पर जिन्होंने धर्म का अमृत पिया है वे कहते हैं कि बहुत सारे धर्म नहीं हैं, एक ही धर्म है चाहे फिर ईसाई धर्म का प्रतीक लेकर चलो या इस्लाम का, चाहे बौद्ध का लेकर चलो या हिन्दुत्व का – मूल में, गहराई में देखा जाये तो एक ही धर्म है। कोई किसी भी जाति-पाँति का हो, वह धर्म के रस को तभी उपलब्ध होता है जब वह ठीक से 'अंडरस्टैंड' होता है, थोड़ा नाम-रूप से परे होता है, प्रार्थना करते-करते अपनी क्षुद्र इच्छा को ईश्वराधीन कर देता है। ध्यान करते-करते क्षुद्र 'मैं' को भूल जाता है और गुरु 'मैं' में जब 'अंडरस्टैंड' हो जाता है तो उसका काम बन जाता है, वह यहीं मुक्त हो जाता है। स्वर्गादि दिव्य लोकों की चिंता हो तो वहाँ जाता है। क्या ख्याल है !
जो हमारी बिखरी हुई वृत्तियों को व्यवस्थित करें, जो हमारे लघु आकर्षणों को मिटाकर धीरे धीरे हमारे में गुरुत्व लायें, जो लघु को गुरु बना दें, जो क्षुद्र को महान बनाने की व्यवस्था करें, ऐसे पुरुषों को हम 'व्यास' कहते हैं।
अठारह पुराणों का सर्जन करने वाले भगवान वेदव्यास जी अपने कृष्ण वर्ण के कारण 'कृष्ण द्वैपायन' के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। वे महापुरुष आठ-आठ घंटे की समाधि में बैठा करते थे। जब भूख लगती तब बदरी के पेड़ों से बेर चुन-चुनकर खा लिया करते थे, उनका दूसरा नाम पड़ा 'बादरायण'। हमारी बिखरी हुई वृत्तियों को सुव्यवस्थित करने के लिए उन समाधिनिष्ठ पुरुष ने, कारक पुरुष ने अठारह पुराणों का सर्जन किया फिर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। परोपकार करने में कोई संतुष्ट हो जाता है तो समझो कि उसने अभी परोपकार के आनंद का अनुभव किया ही नहीं। व्यासजी ने ही विश्व को पाँचवाँ वेद 'महाभारत' प्रदान किया, जिसका लेखन आषाढ़ी पूनम के पावन पर्व पर पूर्ण हुआ। भक्तिरस से भरपूर ग्रंथ 'श्रीमद् भागवत' की रचना भी महर्षि वेदव्यास जी द्वारा ही हुई है। विश्व के प्रथम आर्ष ग्रंथ, प्रथम दार्शनिक ग्रंथ 'ब्रह्मसूत्र' के निर्माण का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। ब्रह्मसूत्र का आरम्भ भी आषाढ़ी पूनम के दिन हुआ था।
ऐसे गुरुओं का आदर किसी व्यक्ति का आदर नहीं है। मानव समाज को जब तक सच्चे सुख की, सच्चे ज्ञान की माँग रहेगी, तब तक ऐसे सदगुरुओं का पूजन होता ही रहेगा। मानव-जाति को जब तक अपने उत्तम लक्ष्य की स्मृति बनी रहेगी, तब तक उत्तम पुरुषों का आदर बना रहेगा।
चार प्रकार के लघु लाभ हैं और चार प्रकार के गुरु (बड़े) लाभ हैं। धनलाभ, सत्तालाभ, स्वास्थ्यलाभ और भोगलाभ – इन्हें लाभ तो मानना ही पड़ेगा किंतु ये लघु लाभ हैं। जिनको बड़ी-बड़ी सत्ताएँ मिलीं, धन मिला, स्वास्थ्य मिला और सुख भोग मिला किंतु उनमें गुरु लाभ का मिश्रण नहीं हुआ तो वे खूब परेशान हुए, खूब दुःखी हुए और खूब बदनाम हुए, फिर चाहे वह रावण हो या कंस, हिटलर हो या सीजर। जिन्होंने लघु लाभों में आसक्ति न करके गुरु लाभ भी उनमें मिला दिया, वे श्रेष्ठ पुरुष होकर पूजे गये। वे यहाँ भी सुखी रहे और परलोक में भी सुखी रहे।
जब मिला आतम हीरा, जग हो गया सवा कसीरा।
आत्मलाभ तो ऐसा बढ़िया लाभ है कि उसके आगे इन्द्र का वैभव भी कोई मायना नहीं रखता।
आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।
आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते।।
यह आत्मलाभ मिलता है सदगुरु के सान्निध्य में आने से, सत्संग-श्रवण करने से।
गुरुपूर्णिमा का, व्यासपूर्णिमा का पावन महोत्सव हमें लघु लाभों से अनासक्त बनाकर गुरुलाभ की ओर प्रोत्साहित करता है, प्रेरित करता है और दिव्य गुरुप्रसाद चखने का भी अवसर दे देता है। हे व्यासदेव ! हे ब्रह्मवेत्ताओ ! आत्मारामी संतो ! चाहे आप किसी भी शरीर में, किसी भी नाम में थे या हैं, आपके श्रीचरणों में हमारे हृदयपूर्वक प्रणाम हैं.....
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 157
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मंगलवार, जुलाई 03, 2012

सदगुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकटाने का पर्वः गुरुपूर्णिमा....


पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी

किसी चक्र के केन्द्र में जाना हो तो व्यास का सहारा लेना पड़ता है। यह जीव अनादिकाल से माया के चक्र में घटीयंत्र (अरहट) की नाईं घूमता आया है। संसार के पहिये को जो कील है वहाँ नहीं पहुँचा तो उसका घूमना चालू ही रहता है और वहाँ पहुँचन है तो ʹव्यासʹ का सहारा लेना होगा। जैसे प्रधानमंत्री के पद पर कोई बैठता है तो वह प्रधानमंत्री है, ऐसे ही संसार के चक्र से पार करने वाले जो गुरु हैं वे ʹव्यासʹ हैं। वेदव्यासजी के प्रसाद का जो ठीक ढंग से वितरण करते हैं, उन्हें भी हम ʹव्यासʹ कहते हैं।
आषाढ़ी पूर्णिमा को ʹव्यास पूर्णिमाʹ कहा जाता है। वेदव्यासजी ने जीवों के उद्धार हेतु, छोटे से छोटे व्यक्ति का भी उत्थान कैसे हो, महान से महान विद्वान को भी लाभ कैसे हो – इसके लिए वेद का विस्तार किया। इस व्यासपूर्णिमा को ʹगुरुपूर्णिमाʹ भी कहा जाता है। ʹगुʹ माने अंधकार, ʹरूʹ माने प्रकाश। अविद्या, अंधकार में जन्मों से भटकता हुआ, माताओं के गर्भों में यात्रा करता हुआ वह जीव आत्मप्रकाश की तरफ चले इसलिए इसको ऊपर उठाने के लिए गुरुओं की जरूरत पड़ती है। अंधकार हटाकर प्रकाश की ज्योति जगमगाने वाले जो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आत्मरामी महापुरुष अपने-आप में तृप्त हुए हैं, समाज व्यासपूर्णिमा के दिन ऐसे महापुरुषों की पूजा आदर सत्कार करता है। उनके गुण अपने में लाने का संकल्प करता है।
बिखरी चेतना, बिखरी वृत्तियों को सुव्यवस्थित करके कथा वार्ताओं द्वारा जो सुव्यवस्था करें उनको ʹव्यासʹ कहते हैं। व्यासपीठ पर विराजने वाले को आज भी भगवान व्यास की पदवी प्रदान करते हैं। हे मेरे तारणहार गुरुदेव ! आप मेरे व्यास हो । जिनमें जिज्ञआसुओं को तत्त्वज्ञान का उपदेश देने का सामर्थ्य है वे मेरे गुरु हैं। हे सच्चिदानंदस्वरूप का दान देने वाले दाता ! आप व्यास भी हैं और मेरे गुरु भी हैं।
त्रिगुणमयी माया में रमते जीव को गुणातीत करने वाले हे मेरे गुरुदेव ! आप ही मेरे व्यास, मेरे गुरु और मेरे सदगुरु हैं। आपको हजार हजार प्रणाम हों ! धन्य हैं भगवान वेदव्यासजी, जिन्होंने जिज्ञासुओं के लिए वेद के विभाग करके कर्म, उपासना और ज्ञान के साधकों का मार्गदर्शन किया। उन व्यास के सम्मान में मनायी जाती है व्यासपूर्णिमा। ऐसी व्यासपूर्णिमा को भी प्रणाम हो जो साधकों को प्रेरणा और पुष्टि देती है।
गुरु माने भारी, बड़ा, ऊँचा। गुरु शिखर ! तिनका थोड़े से हवा के झोंके से हिलता है, पत्ते भी हिलते हैं लेकिन पहाड़ नहीं डिगता। वैसे ही संसार की तू-तू, मैं-मैं, निंदा-स्तुति, सुख-दुःख, कूड़ कपट, छैल छबीली अफवाहों में जिनका मन नहीं डिगता, ऐसे सदगुरुओं का सान्निध्य देने वाली है गुरूपूर्णिमा। ऐसे सदगुरु का हम कैसा पूजन करें ? समझ में नहीं आता फिर भी पूजन किये बिना रहा नहीं जाता।



कैसे करें मानस पूजा ?



गुरुपूनम की सुबह उठें। नहा-धोकर थोड़ा-बहुत धूप, प्राणायाम आदि करके श्रीगुरुगीता का पाठ कर लें। फिर इस प्रकार मानसिक पूजा करें-
ʹमेरे गुरुदेव ! मन ही मन, मानसिक रूप से मैं आपको सप्ततीर्थों के जल से स्नान कर रहा हूँ। मेरे नाथ ! स्वच्छ वस्त्रों से आपका चिन्मय वपु (चिन्मय शरीर) पोंछ रहा हूँ। शुद्ध वस्त्र पहनाकर मैं आपको मन से ही तिलक करता हूँ, स्वीकार कीजिये। मोगरा और गुलाब के पुष्पों की दो मालाएँ आपके वक्षस्थल में सुशोभित करता हूँ। आपने तो हृदयकमल विकसित करके उसकी सुवास हमारे हृदय तक पहुँचायी है लेकिन हम यह पुष्पों की सुवास आपके पावन तन तक पहुँचाते हैं, वह भी मन से, इसे स्वीकार कीजिये। साष्टांग दंडवत् प्रणाम करके हमारा अहं आपके श्रीचरणों में धरते हैं।
हे मेरे गुरुदेव ! आज से मेरी देह, मेरा मन, मेरा जीवन मैं आपके दैवी कार्य के निमित्त पूरा नहीं तो हर रोज 2 घंटा, 5 घंटा अर्पण करता हूँ, आप स्वीकार करना। भक्ति, निष्ठा और अपनी अऩुभूति का दान देने वाले देव ! बिना माँगे कोहिनूर का भी कोहिनूर आत्मप्रकाश देने वाले हे मेरे परम हितैषी ! आपकी जय-जयकार हो।ʹ



इस प्रकार पूजन तब तक बार-बार करते रहें जब तक आपका पूजन गुरु तक, परमात्मा तक नहीं पहुँचे। और पूजन पहुँचने का एहसास होगा, अष्टसात्त्विक भावों (स्तम्भ-खम्भे जैसा खड़ा होना, स्वेद-पसीना छूटना, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, वैवर्ण्य-वर्ण बदलना, अश्रु-प्रलय-तल्लीन होना) में से कोई-न-कोई भाव भगवत्कृपा, गुरुकृपा से आपके हृदय में प्रकट होगा। इस प्रकार गुरुपूर्णिमा का फायदा लेने की मैं आपको सलाह देता हूँ। इसका आपको विशेष लाभ होगा, अनंत गुना लाभ होगा। गुरुकृपा तो सबको चाहिए



बुद्धिमान मनुष्य कंगाल होना पसंद करता है, निगुरा होना नहीं। वह निर्धन होना पसंद करता है, आत्मधन का त्याग नहीं। वह निःसहाय होना पसंद करता है, गुरु की सहायता का त्याग कभी नहीं। और जिसको गुरु की सहायता मिलती है वह निःसहाय कैसे रह सकता है ! जिसके पास आत्मधन है उसको बाहर के धन की परवाह कैसी !
इन्द्र से जब उनके गुरु रूठे तभी इन्द्र निःसहाय हुए थे। जब गुरुकृपा मिली तो इन्द्र फिर सफल हुए। देवताओं को और उनके राजा को भी गुरुकृपा चाहिए। दैत्यों और दैत्यों के राजा को भी गुरुकृपा चाहिए। बुद्धिमान शिवाजी जैसों को भी गुरुकृपा चाहिए और विवेकानन्द को भी गुरुकृपा चाहिए।



भगवान कृष्ण अपने गुरु का आदर करते, उन्हें रथ में बिठाते और घोड़े खोलकर स्वयं रथ खींचते। श्रद्धाहीन निगुरे लोग क्या जानें गुरुभक्ति की महिमा, ईश्वरभक्ति की महिमा ! पाश्चात्य भोगविलास से जिनकी मति भोग के रंग से रँग गयी है, उनको क्या पता कि विवेकानंद को रामकृष्ण की करूणा-कृपा से मीरा को क्या मिला था ! वे क्या जानें समर्थ की निगाहों से शिवाजी को क्या मिला था ! वे क्या जानें लीलाशाहजी बापू की कृपा से आशाराम को क्या मिला था ! वे बेचारे क्या जानें ? दोषदर्शन करके अपने अंतःकरण की मलिनता फैलाने वाले क्या जानें महापुरुषों की कृपा-प्रसादी ! नास्तिकता और अहं से भरा दिल क्या जाने सात्त्विकता और भगवत्प्रीति की सुगंध की महिमा ! कबीर जी ने ऐसे लोगों को सुधारने का यत्न कियाः



सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना....
निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना चौरासी में आना जाना।
पड़े नरक की खान निगुरे नहीं रहना....
निगुरा होता हिय का अंधा खूब करे संसार का धंधा।
क्यों करता अभिमान निगुरे नहीं रहना...
सुन लो....



और वे लोग संतों की निंदा करके पाठक संख्या या टी.आर.पी. बढ़ाना चाहते हैं, अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं। प्रचार के साधनों की टी.आर.पी. बढ़ाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। ऐसे उल्लुओं को कबीरजी ने खुल्ला किया हैः



कबीरा निंदक न मिलो, पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।



संत तुलसीदास ने भी ऐसे कुप्रचारकों से बचने हेतु समाज को सावधान कियाः



हरि हर निंदा सुनई जो काना। 
होई पाप गोघात समाना।।
हर गुरु निंदक दादुर होई।
जन्म सहस्र पाव तन सोई।।
गुरु ग्रन्थ साहब में आयाः
संत का निंदक महा हत्यारा।
संत का निंदक परमेसुरि मारा।।
संत के दोखी की पुजै न आसा।
संत का दोखी उठि चलै निरासा।।



अगर सदगुरु मिल जायें तो इस मैला बनाने वाले, वमन, विष्ठा, थूक और मूत्र बनाने वाले शरीररूपी कारखाने में परब्रह्म परमात्मा प्रकट कर सकती है सदगुरु की कृपा ! निंदक अभागे क्या जानें ? उऩ्हें तो निकोटिन जहरवाली सिगरेट अच्छी लगती है, उनको तो अनेक रोग देने वाली चाय और कॉफी अच्छी लगती है। उन्हें तो जिसमें अल्कोहल का जहर भरा है वह शराब अच्छी लगती है अथवा तो अहंकार बढ़ाने वाला जहर भरा है ऐसी खुशामद अच्छी लगती है लेकिन सदगुरु के सत्शिष्य को तो सदगुरु के दीदार अच्छे लगते हैं, सदगुरु का सत्संग अच्छा लगता है, सदगुरु का अनुभव अच्छा लगता है।
तू पचीस वर्ष नंगे पैर यात्रा कर ले, पचासों वर्ष तीर्थाटन कर ले, बारह साल शीर्षासन लगाकर उलटा लटक जा पर जब तक तू ज्ञानदाता सदगुरु की कृपा में, सदगुरु के चरणों में अपने-आपको नहीं सौंपेगा, तब तक अंहकार और अज्ञान नहीं जायेगा।
रहूगण राजा कहते हैं- "भगवन् ! आपने जगत का उद्धार करने के लिए ही यह श्रीविग्रह धारण किया है। मेरे सदगुरु ! आपके चरणों में मेरा बार-बार प्रणाम है।" धन्य है रहूगण की मति ! नंगे पैर, खुले सिर अवारा स्थिति में घूमने वाले जड़भरत को वह पूरा पहचान गया।
सत्शिष्य सदगुरु के पास आयेगा, पायेगा, मिटेगा, सदगुरुमय होगा और सैलानी आयेगा तो देखकर, जाँच पड़ताल (ऑडिट) करके चला जायेगा। विद्यार्थी दिमाग का आयेगा तो सदगुरु की बातों को एकत्र करेगा, सूचनाएँ एकत्र करके ले जायेगा, अन्य जगह उन सूचनाओं का उपयोग करके अपने को ज्ञानी सिद्ध करने के भ्रम में जियेगा। सत्शिष्य ज्ञानी सिद्ध होने के लिए नहीं, ज्ञानमय होने के लिए सदगुरु के पास आता है, रहता है और अपने पाप, ताप, अहं को मिटाकर आत्ममय हो जाता है।
पाश्चात्य देशों में देखा गया है कि समाज में जो व्यक्ति प्रसिद्ध हो गया है, जिसके द्वारा बहुजनहिताय की प्रवृत्ति हुई है उसके नाम का स्मारक (मेमोरियल) बनाते हैं, मूर्ति (स्टैचू) बनाते हैं. कालेज का खंड बनाते हैं लेकिन भारतीय ऋषियों ने काल की गति को जाना कि खंड भी देखते-देखते जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, मेमोरियल भी भद्दा हो जाता है। जो श्रेष्ठ हैं, समाज के लिए आदरणीय हैं उन महापुरुषों की स्मृति होनी ही चाहिए ताकि समाज उनको देखकर ऊपर उठे। उऩ आदरणीय पुरुषों को किसी कमरे की दीवार के पत्थऱ में न छपवाकर साधकों के दिल में छापने की जो प्रक्रिया है वह व्यासपूर्णिमा से शुरू हुई।
साधकों के दिल में उन महापुरुषों की गरिमा और महत्त्व को जानने की प्रक्रिया का संस्कार डालने की ऋषियों ने जो आशंका की, उस दिव्य इच्छा के पीछे महापुरुषों के हृदय में केवल करूणा ही थी।


स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 12,13