मंगलवार, अप्रैल 27, 2010

......... तो तुम आशाराम बन जाओगे !!!



जो लोग निगुरे हैं, जिन लोगों के चित्त में वासना है उन लोगों को अकेलापन खटकता है। जिनके चित्त में राग, द्वेष और मोह की जगह पर सत्य की प्यास है उनके चित्त में आसक्ति का तेल सूख जाता है। आसक्ति का तेल सूख जाता है तो वासना का दीया बुझ जाता है। वासना का दीया बुझते ही आत्मज्ञान का दीया जगमगा उठता है।

संसार में बाह्य दीया बुझने से अँधेरा होता है और भीतर वासना का दीया बुझने से उजाला होता है। इसलिए वासना के दीये में इच्छाओं का तेल मत डालो। आप इच्छाओं को हटाते जाओ ताकि वासना का दीया बुझ जाय और ज्ञान का दीया दिख जाय।

वासना का दीया बुझने के बाद ही ज्ञान का दीया जलेगा ऐसी बात नहीं है। ज्ञान का दीया भीतर जगमगा रहा है लेकिन हम वासना के दीये को देखते हैं इसलिए ज्ञान के दीये को देख नहीं पाते।

कुछ सैलानी सैर करने सरोवर गये। शरदपूर्णिमा की रात थी। वे लोग नाव में बैठे। नाव आगे बढ़ी। आपस में बात कर रहे हैं किः "यार ! सुना था किः 'चाँदनी रात में जलविहार करने का बड़ा मज़ा आता है.... पानी चाँदी जैसा दिखता है...' यहाँ चारों और पानी ही पानी है। गगन में पूर्णिमा का चाँद चमक रहा है फिर भी मज़ा नहीं आता है।"

केवट उनकी बात सुन रहा था। वह बोलाः

"बाबू जी ! चाँदनी रात का मजा लेना हो तो यह जो टिमटिमा रहा है न लालटेन, उसको फूँक मारकर बुझा दो। नाव में फानूस रखकर आप चाँदनी रात का मजा लेना चाहते हो? इस फानूस को बुझा दो।"

फानूस को बुझाते ही नावसहित सारा सरोवर चाँदनी में जगमगाने लगा। .....तो क्या फानूस के पहले चाँदनी नहीं थी? आँखों पर फानूस के प्रकाश का प्रभाव था इसलिए चाँदनी के प्रभाव को नहीं देख पा रहे थे।

इसी प्रकार वासना का फानूस जलता है तो ज्ञान की चाँदनी को हम नहीं देख सकते हैं। अतः वासना को पोसो मत। ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। जैसे ब्रह्मचारी अकेला रहता है वैसे अपने आप में अकेले.... किसी की आशा मत रखो। आशा रखनी ही है तो राम की आशा रखो। राम की आशा करोगे तो तुम आशाराम बन जाओगे। आशा का दास नहीं.... आशा का राम !

आशा तो एक राम की और आश निराश।

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सोमवार, अप्रैल 26, 2010

सदगुरु के अनुभव का ध्यान-प्रसाद



सदगुरू सत्पात्र शिष्य को अपना हृदय खोलकर आत्मिक अनुभूति का प्रसाद दे रहे हैं-

मैं चिदघन चैतन्य.... सबके दिल की धड़कनों को सत्ता देने वाला शांत आत्मा हूँ। चित्त की अशांति के कारण किसी-किसी शरीर में मैं अशांत दिखता हूँ। चित्त के दुराचार से कहीं कहीं मैं दुराचारी दिखता हूँ। चित्त के सदाचार से कहीं मैं सदाचारी दिखता हूँ। चित्त के शांत होने से मैं कहीं शांत दिखता हूँ। वास्तव में, मैं चैतन्यघन, मुक्त महेश्वर तत्त्व हूँ। मेरा मुझको धन्यवाद है।

मैं शांत, अशांत, सज्जन और दुर्जन, अनेक स्वांगों में, अनेक रंगों में, ढंगों में, अनेक देहों में मैं विषय-सुख भोग रहा हूँ। दैत्यों में ईर्ष्या की आग-सा लग रहा हूँ। ऋषियों में तप कर रहा हूँ। फिर भी मैं कुछ नहीं करता। यह मेरी अष्टधा प्रकृति है। यह मेरी आह्लादिनी शक्ति है जिससे यह सब प्रतीत हो रहा है। वास्तव में बना कुछ नहीं।
यह स्वप्न तुल्य खेल पाँच महाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार... इस अष्टधा प्रकृति से है। मैं सदैव निर्लेप और पर हूँ। जैसे आकाश में सब चीजें हैं, सब चीजों में आकाश है फिर भी चीजों के बनने बिगड़ने में, बढ़ने-घटने में आकाश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हजारों मकान बढ़ जाएँ या हजारों मकान गिर जाएँ फिर भी आकाश को कुछ नहीं होता। आकाश सबमें है फिर भी सबसे न्यारा है।

ऐसे ही मैं चैतन्य आकाश हूँ। चिदघन चैतन्य आत्मा हूँ। मेरी कभी मृत्यु नहीं होती क्योंकि मेरा जन्म ही नहीं हुआ। मुझे कोई पुण्य नहीं... मुझे कोई पाप नहीं। पुण्य और पाप तो मन को होता है, तन को होता है। मैं तो तन-मन से परे साक्षी, शान्त, शुद्ध, बुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ। आकाश की तरह निर्लेप....।

ऐ मेरे मन ! अगर तू गुरू तत्त्व में जग जाएगा तो सुखी हो जायेगा। अगर तू इन्द्रियों के साथ जुड़कर विकारों को भोगेगा तो नाश को प्राप्त होगा। आज तक विकारों में परेशान होता ही आया है। इसलिए अब तू ऋषियों के अनुभव की तरफ चल। मुझ चैतन्य के प्रसाद को पाकर सदा-सदा के लिए सुखी हो जा। अन्यथा मैं तुझसे दोस्ती तोड़ दूँगा। आज तक तू मुझे गुलाम बनाकर मेरा नाश कर रहा था। दो आँख से जुड़कर देखने की इच्छा से बाहर भटक रहा था। कान से जुड़कर सुनने की इच्छा से भटक रहा था। हिरन बना तो भी मारा गया। पतंग बना तो भी मारा गया। हे मेरे मन !जिस-जिस शरीर में गया वहाँ दुःखी रहा। अब तू अपने आप, चैतन्य स्वभाव की ओर, अपने सूक्ष्मातिसूक्ष्म, अणु से भी अणु और महान् से भी महान् परमेश्वर स्वभाव की ओर चल। अपने उस महान् स्वभाव को याद करके उसमें लीन हो जा।

हे बुलबुले ! हे तरंग ! तुम किनारों से टकराओगे, टूटोगे, फूटोगे, फिर बनोगे फिर बिगड़ोगे। हे तरंग ! तू अपने जल तत्त्व को जान ले। हे बुलबुला ! तू अपने जल तत्त्व को जान ले।

हे मनरूपी बुलबुला ! हे बुद्धिरूपी तरंग ! तू अपने चैतन्य स्वभाव को जान ले। उसका स्वभाव एक ध्वनि 'ॐ' कार है। 'मैं चैतन्य हूँ' ऐसा चिन्तन करके 'ॐ' कार का गुँजन कर दे। अपने चैतन्य स्वभाव में शीघ्र जाग जा। चैतन्य के प्रसाद से चैतन्यमय हो जा। ॐ....ॐ...ॐ....

मैं निर्भय हूँ..... मैं शांत सच्चिदानंद आत्मा हूँ.... मुझे पता न था। जन्म-मृत्यु से पार मैं तो अपने स्वभाव को भूल प्रकृति से मिलकर बार-बार जन्मता-मरता-सा दिखता था लेकिन मैं जन्मता मरता नहीं था। आज मैं भ्रांति से जागा हूँ।
ॐ....ॐ.....ॐ......

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गुरू के हृदय को ठेस पहुंचाने का परिणाम


लीलाराम नाम का एक व्यक्ति कहीं मुनीमी करता था (हमारे सदगुरूदेव की यह बात नहीं है।) वह कहीं फँस गया। पैसे के लेन देन में कुछ हेराफेरी के बारे में उस पर केस चला। ब्रिटिश शासन में सजाएँ भी कड़क होती थीं। जान-पहचान, लाँच-रिश्वत कम चलती थी। लीलाराम घबराया और विलायतराम के चरणों में आया। विनती की। विलायतराम ने कहाः

"तुमने जो किया है वह भोगना पड़ेगा, मैं क्या करूँ ?"

"महाराज ! मैं आपकी शरण हूँ। मुझे कैसे भी करके आप बचाओ। दुबारा गलती नहीं होगी। गलती हो गई है उसके लिए आप जो सजा करें, मैं भोग लूँगा। न्यायाधीश सजा करेगा, जेल में भेज देगा, इसकी अपेक्षा आपके श्रीचरणों में रहकर अपने पाप धोऊँगा।"

संत का हृदय पिघल गया। बोलेः

"अच्छा ! अब तू अपना केस रख दे उस शहंशाह परमात्मा पर। जिस ईश्वर के विधान का तूने उल्लंघन किया है उसी ईश्वर की शरण हो जा, उसी ईश्वर का चिन्तन कर। उसकी कृपा करूणा मिलेगी तो बेड़ा पार हो जाएगा।"

लीलाराम ने गुरू की बात मान ली। बस, जब देखो तब शहंशाह..... शहंशाह.... चलते-फिरते शाहंशाह..... शाहंशाह.....! शाहंशाह माने लक्ष्य यही जो सर्वोपरि सत्ता है। मन उसका तदाकार हो गया।

मुकद्दमे के दिन पहुँचा कोर्ट में। जज ने पूछाः

"इतने-इतने पैसे की तुमने हेराफेरी की, यह सच्ची बात है ?"

"शाहंशाह...."

"तेरा नाम क्या है?"

"शहंशाह..."

"यह क्यों किया ?"

"शहंशाह..."

सरकारी वकील उलट छानबीन करता है, प्रश्न पूछता है तो एक ही जवाबः "शहंशाह..."

"अरे ठीक बोल नहीं तो पिटाई होगी।"

"शंहशाह..."

"यह कोर्ट है।"

"शहंशाह..."

"तेरी खाल खिंचवाएँगे।"

"शहंशाह...."

लीलाराम का यह ढोंग नहीं था। गुरू के वचन में डट गया था। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्...। गुरू के वचन में लग गया। "शहंशाह.... शहंशाह.... शहंशाह...." उसके ऊपर डाँट-फटकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, प्रलोभन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसका शहंशाह का चिन्तन ऊपर-ऊपर से थोपा हुआ नहीं था अपितु गुरूवचन गहरा चला गया था उसके अंतर में। वह एकदम तदाकार हो गया था।

जब तुम अपने देह की चिन्ता छोड़कर, सुख-दुःख के परिणामों की चिन्ता छोड़कर परम तत्त्व में लग जाते हो तो प्रकृति तुम्हारे अनुकूल हो जाती है।

यह भी ईश्वरीय विधान है। बुद्ध सब भूल गये, ध्यानमग्न हो गये। ऊपर से चट्टान लुढ़कती हुई आई और वहाँ आते-आते दो हिस्सों में बँट गई, बुद्ध के दोनों ओर से चली गई। बुद्ध बाल-बाल बच गये।
जज के चित्त में हुआ कि यह कैसे पागल को पकड़कर लाये हैं। इतना अपमान करते हैं, इतना डाँटते हैं, भय दिखाते हैं, तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करते हैं तभी भी इस पागल को कुछ पता नहीं चलता है ! जज ने उसको बरी कर दिया।

लीलाराम विलायतराय के पास। गुरू बोलेः

"छूट गया केस से बेटा?"

तो लीलाराम बोलता हैः "शहंशाह.....।"

"भूख लगी है ?"

"शहंशाह....।"

"यह कोर्ट नहीं है। अब केस बरी हो गया। अब ठीक से बात करो।"

"शहंशाह....।"

गुरू ने देखा कि बिल्कुल सच्चाई से मेरे वचन लिये हैं..... वाह ! गुरू का हृदय प्रसन्न हो गया। प्रसन्न हो गया तो लीलाराम की शहंशाही पर गुरू का हस्ताक्षर हो गया। गुरू ने कहाः

"अच्छा...। जब जरूरत पड़े तब बोलना 'शहंशाह....' अभी तो मुझसे बात कर थोड़ी देर।" गुरू ने संकल्प करके उसके शहंशाह के भाव का थोड़ा नियंत्रण कर लिया। लीलाराम ने भोजन आदि किया और गुरू से प्रार्थना की किः

"अब तो मैं गुरू के आश्रम में ही रहूँगा। सच्चे शहंशाह के दरबार में रहूँगा।

लीलाराम गुरूआश्रम में रहने लगा। कोई दुःखी, रोगी आ जाता तो गुरू लीलाराम से बोलतेः

"इसको जरा देखो।"

देखना क्या है ? उसके सिर पर लीलाराम हाथ घुमा देताः 'शहंशाह....' तो दर्द ठीक हो जाता। पेट में पीड़ा है.... अपने हाथ से कुछ प्रसाद दे देता तो पीड़ा गायब। कमर दुःखती है, बुढ़ापा है। लीलाराम कमर पर हाथ घुमा देताः 'शहंशाह.....' तो कमर शहंशाह हो जाती। धन्धा नहीं चलता है। लीलाराम थप्पड़ मार देताः 'शहंशाह....' उसके धन्धे में नगद नारायण हो जाता।

लीलाराम हाथ घुमाकर 'शहंशाह.....' कह देता और लोगों के काम हो जाते। धीरे-धीरे कीर्ति फैलने लगी।

ईश्वरीय विधान से कीर्ति तो होगी लेकिन कीर्ति में फँसना उचित नहीं। मान तो मिलेगा लेकिन अहँकार करना उचित नहीं। हम अहंकार करने वाले कौन होते हैं ? हमारी योग्यता क्या है ? सृष्टिनियन्ता इतने सारे ब्रह्माण्ड बना देता है उसमें हमारा एक व्यक्तित्त्व, एक मकान, एक दुकान, एक गाड़ी.... इसमें अहंकार क्या करना ? अहंकार करके उस विश्वनियंता से अलग होकर अपनी विशेषता क्या बताओगे ? वह विशेषता कब तक रहेगी। आप उससे जुड़े रहो। कितना भी बड़ा कुण्ड हो पानी का लेकिन पानी के किसी मूल स्रोत से जुड़ा नहीं रहेगा तो पानी पड़ा-पड़ा गन्दा हो जायगा, आखिर सूख जायगा। छोटी-सी टंकी भी अगर मूल स्रोत से जुड़ी रहेगी तो पानी निरन्तर ताजा बना रहेगा और कभी खत्म नहीं होगा।

ऐसे ही आप ईश्वर से जुड़े रहोगे तो आपकी ताजगी बनी रहेगी। ईश्वर से अलग अपनी कुछ विशेषता बनाआगे तो वह विशेषता क्षीण हो जायगी। ब्रह्मज्ञान आपको ईश्वर से जोड़े रखता है। देहाध्यास आपको ईश्वर की विशालता से वंचित कर देता है।

लीलाराम ज्ञानी तो था नहीं। आ गया देहाध्यास में। फूल उठा कि गुरू जी जितना नहीं कर सकते उतना हम कर सकते हैं। गुरू जी तो इलाज बताते हैं, साधना बताते हैं, प्राणायाम बताते हैं, आशीर्वाद देते हैं। किसी की ज्यादा श्रद्धा होती है तो वह ठीक होता है। .....और हम तो जिसको कह देते हैं 'शहंशाह....' उसका काम हो जाता है।

गुरू को लगा कि शिष्य अहंकार में आ गया है।

गुरू की आज्ञा मानने से गुरू का चित्त प्रसन्न हुआ। गुरू के चित्त की प्रसन्नता से उसकी शक्ति विकसित हो गई। अनुचित आचरण करने से गुरू के चित्त में क्षोभ हुआ। गुरू के चित्त में शिष्य के लिए क्षोभ होता है तो शिष्य का अमंगल होता है। वह अमंगल कैसे होता है ? कोई दैत्य गला पकड़कर नर्क में नहीं ले जाता। हमारा व्यवहार अनुचित होता है तो अन्तर्यामी ईश्वर को या गुरू के हृदय को ठेस पहुँचती है तो हमारी मति हल्के निर्णय करती है। मति जब हल्के निर्णय करती है तो हल्के कर्मों में गिरती है, फिर हल्का परिणाम आता है और पतन हो जाता है। गुरू का चित्त प्रसन्न होता है तो हमारी मति ऊँची हो जाती है। ऊँची हो जाती है तो ऊँचे निर्णय करती है, ऊँचे कर्म करती है और ऊँचे पद को प्राप्त करती है। ऐसा नहीं कि देवता पकड़कर हमें स्वर्ग में ले जायगा या दैत्य पकड़कर हमें नर्क में ले जायगा। नहीं......। गुप्त रूप से हमारे सब संस्कारों के चित्र अन्तःकरण में अंकित होते रहते हैं। तुम उचित करते हो कि अनुचित करते हो, इसका चित्र भीतर ही भीतर लिया जा रहा है।

लीलाराम अहंकार प्रेरित कर्म करने लगा तो गुरू को पता चला, गुरू के हृदय को ठेस लगी। लीलाराम की मति बिगड़ी। लीलाराम के द्वारा किसी का काम बन गया तो कोई शराब की बोतल ले आया, कोई कुछ ले आया तो कोई कुछ। लीलाराम नशा करने लगा। बुद्धि नीचे गिरी। शराब-कबाब में वह गर्क हो गया। गुरू के दिल को और ठेस पहुँची।

एक दिन विलायतराय कहीं जा रहे थे। लीलाराम से बोलेः "चलो कहीं घूम आते हैं।" लीलाराम चला। दो-पाँच और शिष्य भी साथ हो लिए। रास्ते में नदी पड़ी। विलायतराय ने कहाः "यहाँ हम स्नान करेंगे।" सेवक ने साबुन दिया। लोटा भर-भर के पानी डाला। गुरूजी लीलाराम से बोलेः "तू भी गोता मार ले, जल्दी कर।"

लीलाराम गोता मारकर बाहर निकलता है तो लीलाबाई हो गया। उसने देखा तो वहाँ न कोई नदी है न गुरूजी हैं।

अकेली लीलाबाई.....! बिल्कुल सुन्दरी लीलाबाई....! अंग स्त्री के, वस्त्र स्त्री के, चूड़ियाँ और जेवर भी आ गये। वह शर्मिन्दा हो गया कि मैं तो लीलाराम था, 'शहंशाह....' करने वाला था। यह क्या हो गया ?

इतने में चार चाण्डाल आते हुए दिखे। उन्होंने पूछाः

"क्यों री ! इधर बैठी है अकेली ? कौन है ?"

अब कैसे बोले कि मैं लीलाराम हूँ ? वह तो शर्मिन्दा हो गया। चारों चाण्डाल झगड़ा करने लगे। एक बोलाः 'इससे मैं शादी करूँगा।' दूसरा बोलाः "मैं करूँगा।" आखिर चारों में जो बलवान था उसके साथ लीलाबाई का गंधर्व विवाह हो गया। गन्धर्व विवाह माने ले भागू शादी...... 'लव-मैरिज'। समय बीता। लीलाबाई को दो तीन बेटे हुए, दो-तीन बेटियाँ हुईं। बेटियों की शादियाँ हुईं चाण्डालों से। दामाद हुए.... परिवार बढ़ा। चाण्डालों में सांसारिक व्यवहार जैसे होता है वह सब हुआ। सुख-दुःख के कई प्रसंग आये और गये। लीलाबाई साठ साल की बूढ़ी हो गयी। बहुत सारे दुःख भोगे। पति मर गया। छोरे लोफर हो गये। लीलाबाई सिर कूटने लगीः "हे भगवान ! मैं क्या करूँ ? पति चला गया। मैं विधवा हो गई। मुझे भी तू उठा ले।"

'मुझे भी तू उठा ले....' करके आँख खोली तो वही नदी और वही स्नान। गुरूजी ने जो साबुन लगाया था सिर पर, उसकी झाग भी पूरी उतरी नहीं थी। लीलाराम चकित हो गया कि मैं लीलाबाई बन गया था, साठ साल की चाण्डाली का सारा संसार देखा, बेटे-बेटियाँ, दामाद और बहुएँ आदि का बड़ा परिवार बना... और यहाँ तो अभी स्नान भी पूरा नहीं हुआ है ! यह सब क्या है ?

विलायतराम मुस्कराते हुए बोलेः

"देख ! शूली में से काँटा हो गया। तेरा चाण्डाल होने का प्रारब्ध तो कट गया। पहले की की हुई भक्ति से, लेकिन अब पहले जैसी शक्ति तेरे पास नहीं रहेगी। वैद्य का धन्धा कर, परिश्रम करके गुजारा करते रहना, मुझे मुँह मत दिखाना।"

ईश्वरीय विधान का हम आदर करते हैं तो उन्नति होती है और अनादर करते हैं तो अवनति होती है। ईश्वरीय विधान का आदर यह है कि हमारे पास जो कुछ है वह हमारा व्यक्तिगत नहीं है। सब उस जगन्नियन्ता का है। हमारा जो कुछ भी है वह हमारा नहीं है। हमारा शरीर भी नहीं है। हवाएँ उसकी, प्रकाश उसका, पृथ्वी उसकी, सूर्य उसका, अन्न-जल उसका। उसी का अन्न-जल खा पीकर हमारे माता-पिता ने हमको जन्म दिया तो यह शरीर हमारा कैसे हुआ ? शरीर भी उसी का है और उसी की हवा लेकर हम जी रहे हैं। उसी का पानी पीकर हम जी रहे हैं। उसी की पृथ्वी पर हम चल रहे हैं।

जो कुछ उसी का है, जो कुछ है उसी के लिए है। हम सब अपना और अपने लिए मान लेते हैं तब ईश्वरीय विधान का अनादर करते हैं। इसी से परेशानी, मुसीबतें आ घेरती हैं। इसी से जन्म-मरण की सजा मिलती रहती है।

हम एक सेकेण्ड भी ईश्वर से अलग नहीं रह सकते, उसकी चीजों से अलग नहीं रह सकते। आपके शरीर में से पूरी हवा निकाल दें तो कुछ मिनटों के लिए कैसा रहेगा ? आप नहीं जी सकते।

आप ईश्वर से तनिक भी दूर नहीं हैं फिर भी उसके साथ आपकी सुरता नहीं मिली है तो दूरी का अनुभव करके आप दुःखी हो रहे हैं। ईश्वर के सान्निध्य का अनुभव हो जाता तो हमारी दुर्दशा थोड़े ही होती ! सदा साथ में रहने वाले अन्तर्यामी का अनुभव नहीं हो रहा है इसीलिए दुःख सह रहे हैं, पीड़ा सह रहे हैं, चिन्ताएँ कर रहे हैं, परेशानियाँ उठा रहे हैं।

हमारी बुद्धि का दुर्भाग्य तो यह है कि जो सदा साथ में है उसी साथी से मिलने के लिए तत्परता नहीं आती। जो हाजरा-हजूर है उससे मिलने की तत्परता नहीं आती। वह सदा हमारे साथ होने पर भी हम अपने को अकेला मानते हैं कि दुनियाँ में हमारा कोई नहीं। हम कितना अनादर करते हैं अपने ईश्वर का !

'हे धन ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे पति ! तू मेरी रक्षा कर। पत्नी ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे बेटे ! बुढ़ापे में तू मेरी रक्षा कर।' हम ईश्वरीय विधान का कितना अनादर कर रहे हैं !!

बेटा रक्षा करेगा ? पति रक्षा करेगा ? पत्नी रक्षा करेगी ? धन रक्षा करेगा ? लाखों-लाखों पति होते हुए भी पत्नियाँ मर गईं। लाखों-लाखों बेटे होते हुए भी बाप परेशान रहे। लाखों-लाखों बाप होते हुए भी बेटे परेशान रहे क्योंकि बापों में बाप, बेटों में बेटा, पतियों में पति, पत्नियों में पत्नी बन कर जो बैठा है उस प्यारे के तरफ हमारी निगाह नहीं जाती।

भूल्या जभी रबनू तभी व्यापा रोग।
जब उस सत्य को भूले हैं, ईश्वरीय विधान को भूले हैं तभी जन्म-मरण के रोग, भय, शोक, दुःख चिन्ता आदि सब घेरे रहते हैं। अतः बार-बार मन को इन विचारों से भरकर, अन्तर्यामी को साक्षी समझकर प्रार्थना करते जाएँ, प्रेरणा लेते जाएँ और जीवन की शाम होने से पहले तदाकार हो जाएँ।

ॐ शांति...... ॐ आनन्द...... ॐ....ॐ.....ॐ....।

शांति.... शांति.....। वाह प्रभु ! तेरी जय हो ! ईश्वरीय विधान। तुझे नमस्कार ! हे ईश्वर ! तू ही अपनी भक्ति दे और अपनी ओर शींच ले।

नारायण..... नारायण..... नारायण.....

विधान का स्मरण करके साधना करेंगे तो आपकी सहज साधना हो जायगी। गिरि गुफा में तप करने, समाधि लगाने नहीं जाना पड़ेगा। सतत सावधान रहें तो सहज साधना हो जाएगी। ईश्वरीय विधान को समझकर जीवन जिएं, उसके साथ जुड़े रहें तो सहज साधना हो जाएगी।

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शुक्रवार, अप्रैल 23, 2010

पद्मिनी एकादशी




अर्जुन ने कहा: हे भगवन् ! अब आप अधिक (लौंद/ मल/ पुरुषोत्तम) मास की शुक्लपक्ष की एकादशी के विषय में बतायें, उसका नाम क्या है तथा व्रत की विधि क्या है? इसमें किस देवता की पूजा की जाती है और इसके व्रत से क्या फल मिलता है?



श्रीकृष्ण बोले : हे पार्थ ! अधिक मास की एकादशी अनेक पुण्यों को देनेवाली है, उसका नाम ‘पद्मिनी’ है । इस एकादशी के व्रत से मनुष्य विष्णुलोक को जाता है । यह अनेक पापों को नष्ट करनेवाली तथा मुक्ति और भक्ति प्रदान करनेवाली है । इसके फल व गुणों को ध्यानपूर्वक सुनो: दशमी के दिन व्रत शुरु करना चाहिए । एकादशी के दिन प्रात: नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पुण्य क्षेत्र में स्नान करने चले जाना चाहिए । उस समय गोबर, मृत्तिका, तिल, कुश तथा आमलकी चूर्ण से विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए । स्नान करने से पहले शरीर में मिट्टी लगाते हुए उसीसे प्रार्थना करनी चाहिए: ‘हे मृत्तिके ! मैं तुमको नमस्कार करता हूँ । तुम्हारे स्पर्श से मेरा शरीर पवित्र हो । समस्त औषधियों से पैदा हुई और पृथ्वी को पवित्र करनेवाली, तुम मुझे शुद्ध करो । ब्रह्मा के थूक से पैदा होनेवाली ! तुम मेरे शरीर को छूकर मुझे पवित्र करो । हे शंख चक्र गदाधारी देवों के देव ! जगन्नाथ ! आप मुझे स्नान के लिए आज्ञा दीजिये ।’



इसके उपरान्त वरुण मंत्र को जपकर पवित्र तीर्थों के अभाव में उनका स्मरण करते हुए किसी तालाब में स्नान करना चाहिए । स्नान करने के पश्चात् स्वच्छ और सुन्दर वस्त्र धारण करके संध्या, तर्पण करके मंदिर में जाकर भगवान की धूप, दीप, नैवेघ, पुष्प, केसर आदि से पूजा करनी चाहिए । उसके उपरान्त भगवान के सम्मुख नृत्य गान आदि करें ।



भक्तजनों के साथ भगवान के सामने पुराण की कथा सुननी चाहिए । अधिक मास की शुक्लपक्ष की ‘पद्मिनी एकादशी’ का व्रत निर्जल करना चाहिए । यदि मनुष्य में निर्जल रहने की शक्ति न हो तो उसे जल पान या अल्पाहार से व्रत करना चाहिए । रात्रि में जागरण करके नाच और गान करके भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए । प्रति पहर मनुष्य को भगवान या महादेवजी की पूजा करनी चाहिए ।



पहले पहर में भगवान को नारियल, दूसरे में बिल्वफल, तीसरे में सीताफल और चौथे में सुपारी, नारंगी अर्पण करना चाहिए । इससे पहले पहर में अग्नि होम का, दूसरे में वाजपेय यज्ञ का, तीसरे में अश्वमेघ यज्ञ का और चौथे में राजसूय यज्ञ का फल मिलता है । इस व्रत से बढ़कर संसार में कोई यज्ञ, तप, दान या पुण्य नहीं है । एकादशी का व्रत करनेवाले मनुष्य को समस्त तीर्थों और यज्ञों का फल मिल जाता है ।



इस तरह से सूर्योदय तक जागरण करना चाहिए और स्नान करके ब्राह्मणों को भोजन करना चाहिए । इस प्रकार जो मनुष्य विधिपूर्वक भगवान की पूजा तथा व्रत करते हैं, उनका जन्म सफल होता है और वे इस लोक में अनेक सुखों को भोगकर अन्त में भगवान विष्णु के परम धाम को जाते हैं । हे पार्थ ! मैंने तुम्हें एकादशी के व्रत का पूरा विधान बता दिया ।



अब जो ‘पद्मिनी एकादशी’ का भक्तिपूर्वक व्रत कर चुके हैं, उनकी कथा कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो । यह सुन्दर कथा पुलस्त्यजी ने नारदजी से कही थी : एक समय कार्तवीर्य ने रावण को अपने बंदीगृह में बंद कर लिया । उसे मुनि पुलस्त्यजी ने कार्तवीर्य से विनय करके छुड़ाया । इस घटना को सुनकर नारदजी ने पुलस्त्यजी से पूछा : ‘हे महाराज ! उस मायावी रावण को, जिसने समस्त देवताओं सहित इन्द्र को जीत लिया, कार्तवीर्य ने किस प्रकार जीता, सो आप मुझे समझाइये ।’



इस पर पुलस्त्यजी बोले : ‘हे नारदजी ! पहले कृतवीर्य नामक एक राजा राज्य करता था । उस राजा को सौ स्त्रियाँ थीं, उसमें से किसीको भी राज्यभार सँभालनेवाला योग्य पुत्र नहीं था । तब राजा ने आदरपूर्वक पण्डितों को बुलवाया और पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ किये, परन्तु सब असफल रहे । जिस प्रकार दु:खी मनुष्य को भोग नीरस मालूम पड़ते हैं, उसी प्रकार उसको भी अपना राज्य पुत्र बिना दुःखमय प्रतीत होता था । अन्त में वह तप के द्वारा ही सिद्धियों को प्राप्त जानकर तपस्या करने के लिए वन को चला गया । उसकी स्त्री भी (हरिश्चन्द्र की पुत्री प्रमदा) वस्त्रालंकारों को त्यागकर अपने पति के साथ गन्धमादन पर्वत पर चली गयी । उस स्थान पर इन लोगों ने दस हजार वर्ष तक तपस्या की परन्तु सिद्धि प्राप्त न हो सकी । राजा के शरीर में केवल हड्डियाँ रह गयीं । यह देखकर प्रमदा ने विनयसहित महासती अनसूया से पूछा: मेरे पतिदेव को तपस्या करते हुए दस हजार वर्ष बीत गये, परन्तु अभी तक भगवान प्रसन्न नहीं हुए हैं, जिससे मुझे पुत्र प्राप्त हो । इसका क्या कारण है?

इस पर अनसूया बोली कि अधिक (लौंद/मल ) मास में जो कि छत्तीस महीने बाद आता है, उसमें दो एकादशी होती है । इसमें शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘पद्मिनी’ और कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘परमा’ है । उसके व्रत और जागरण करने से भगवान तुम्हें अवश्य ही पुत्र देंगे ।

इसके पश्चात् अनसूयाजी ने व्रत की विधि बतलायी । रानी ने अनसूया की बतलायी विधि के अनुसार एकादशी का व्रत और रात्रि में जागरण किया । इससे भगवान विष्णु उस पर बहुत प्रसन्न हुए और वरदान माँगने के लिए कहा ।


रानी ने कहा : आप यह वरदान मेरे पति को दीजिये ।

प्रमदा का वचन सुनकर भगवान विष्णु बोले : ‘हे प्रमदे ! मल मास (लौंद) मुझे बहुत प्रिय है । उसमें भी एकादशी तिथि मुझे सबसे अधिक प्रिय है । इस एकादशी का व्रत तथा रात्रि जागरण तुमने विधिपूर्वक किया, इसलिए मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ ।’ इतना कहकर भगवान विष्णु राजा से बोले: ‘हे राजेन्द्र ! तुम अपनी इच्छा के अनुसार वर माँगो । क्योंकि तुम्हारी स्त्री ने मुझको प्रसन्न किया है ।’



भगवान की मधुर वाणी सुनकर राजा बोला : ‘हे भगवन् ! आप मुझे सबसे श्रेष्ठ, सबके द्वारा पूजित तथा आपके अतिरिक्त देव दानव, मनुष्य आदि से अजेय उत्तम पुत्र दीजिये ।’ भगवान तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गये । उसके बाद वे दोनों अपने राज्य को वापस आ गये । उन्हींके यहाँ कार्तवीर्य उत्पन्न हुए थे । वे भगवान के अतिरिक्त सबसे अजेय थे । इन्होंने रावण को जीत लिया था । यह सब ‘पद्मिनी’ के व्रत का प्रभाव था । इतना कहकर पुलस्त्यजी वहाँ से चले गये ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे पाण्डुनन्दन अर्जुन ! यह मैंने अधिक (लौंद/मल/पुरुषोत्तम) मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत कहा है । जो मनुष्य इस व्रत को करता है, वह विष्णुलोक को जाता है |

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साढ़े चार वर्ष की बालिका युवती बनी

गुजरात राज्य में राजकोट जिले की गोंडल तहसील में एक आश्चर्यजनक घटना सामने आयी है। यहाँ एक बालिका का जन्म हुआ। जब वह तीन वर्ष की हुई तो उसे मासिक स्राव शुरु हो गये और उसके शरीर में तेजी से परिवर्तन होने लगे। आज साढ़े चार वर्ष की वह बालिका 18 वर्ष की पूर्ण युवती बन चुकी है। माँ बाप चिकित्सा करा-करा के हार चुके हैं और अब समाज के सामने आने से बच रहे हैं पर इस शर्मनाक घटना का बीज स्वयं उन्होंने ही बोया था।

व्यक्तिगत जानकारी न देने की शर्त द्वारा वचनबद्ध डॉ. एस. पी. भंडेरी के अनुसार बच्ची के माँ-बाप जंक फूड, फास्टफूड के बहुत शौकीन है। गर्भावस्था के पहले से ही वे इस तामसी खुराक का भरपूर सेवन करते थे और आधुनिक विज्ञान के अनुसार गर्भावस्था के अंत तक शारीरिक संबंध बनाना उन्होंने जारी रखा था। इस दौरान उन्होंने ब्लू फिल्में भी खूब देखीं। फलतः तामसी पोषण, कामुक विचारों और रहन सहन का गहरा असर गर्भस्थ बालिका पर पड़ा और यह दुष्परिणाम सामने आया कि समय से पहले ही बच्ची युवती बन गयी।

आधुनिक विज्ञान कहता है कि गर्भाधान के बाद शारीरिक संबंध बनाने में कोई हर्ज नहीं, जबकि आयुर्वेदाचार्य महर्षि चरक के अनुसार गर्भावस्था में जो स्त्री निरंतर सहवास में रहती है, उस स्त्री की संतान विकृत शरीरवाली, निर्लज्ज व व्यभिचारी होती है।

माता पिता के आचार विचारों का प्रभाव संतान पर अवश्यमेव पड़ता है। कम से कम अपनी भावी संतान के लिए आप स्वयं को संयमित करें। स्वादलोलुप बनकर आप जंक फूड व फास्टफूड के सेवन से अपना व अपनी भावी संतान का स्वास्थ्य चौपट न करें।

पर्व, उत्सव प पुण्यमयी तिथियों पर शारीरिक संपर्क से बचें। अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या, संक्रान्ति इष्ट जयंति आदि पर्वों में, ऋतुकाल की तीन रात्रियों में, प्रदोषकाल में तथा ग्रहण और श्राद्ध के दिनों में संसारव्यवहार करने वाले के यहाँ कम आयु वाले, रोगी, दुःख देने वाले, विकृत अंग वाले, दुर्बल तन, मन और बुद्धि वाले बालक पैदा होते हैं। गर्भावस्था के दौरान सत्शास्त्रों का पठन, देव-दर्शन, संत-दर्शन, भगवद-उपासना करें और अपने मन को सदविचारों से ओतप्रोत रखें। हर समय भगवन्नाम का मानसिक जप करें, इससे आपकी संतान दैवी सदगुणों से युक्त होगी।




स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जुलाई अगस्त 2009
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निष्काम कर्म करो लेकिन कर्म निष्प्रयोजन तो नहीं होना चाहिए


एक आदमी नदी पर जाकर लाठी से पानी को कूटने लगा। कोई महात्मा वहाँ से गुजरे। उन्होंने पूछाः
"महाराज ! मैं निष्काम कर्म कर रहा हूँ। इसमें मेरा कोई स्वार्थ नहीं है।"
निष्काम कर्म करो लेकिन कर्म निष्प्रयोजन तो नहीं होना चाहिए। रागरहित होने के लिए स्वार्थरहित और सप्रयोजन, सार्थक कर्म होना चाहिए। तभी वह परहित का कार्य निष्काम सेवा बन सकेगा।
हम लोग जब सेवा करते हैं तब अपने राग को पोसने के चक्कर में चलते हैं इसलिए सेवा दुकानदारी बन जाती है। हम भक्ति करते हैं तो राग को पोसने के लिए करते हैं, योग करते हैं तो राग को पोसने के लिए करते हैं, भोजन करते हैं तो राग को पोसते हैं। ऐसा नहीं कि शरीर को पोसने के लिए भोजन करते हैं। जब शरीर को पोसने के लिए भोजन करेंगे तब वह भोजन भोजन नहीं रहेगा, भजन बन जाएगा। राग को पोसेंगे तो वह भोजन भोग हो जायेगा। रागरहित होकर भोजन करो तो भोजन योग हो जायगा। रागरहित होकर बात करो तो बात भक्ति हो जाएगी। रागरहित होकर संसार का व्यवहार करो तो वह कर्म योग हो जाएगा। हमारी तकलीफ यह है कि राग की पूँछ पकड़े बिना हमसे रहा नहीं जाता।
जब जब दुःख, मुसीबत, चिन्ता, भय घेर लें तब सावधान रहें और जान लें कि ये सब राग के ही परिवारजन हैं। उन चीजों में राग होने के कारण मुसीबत आयी है। राग तुम्हें कमजोर बना देता है। कमजोर आदमी को ही मुसीबत आती है। बलवान आदमी के पास मुसीबत आती है तो बलवान पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता। अगर प्रभाव पड़ गया तो वह मुसीबत की अपेक्षा कमजोर है।
जब दुःख मुसीबत आये तो क्या करें ?
जब दुःख आयें तब बड़ों की शरण लेनी चाहिए। किसी न किसी की शरण लिये बिना हम लोग जी नहीं सकते, टिक नहीं सकते। दुर्बल को बलवान की शरण लेनी चाहिए।
बलवान कौन है ? जो दण्ड-बैठक करता है वह बलवान है ? जिसके पास सारे विश्व की कुर्सियाँ अत्यंत छोटी पड़ जाती हैं वह सर्वेश्वर सर्वाधिक बलवान है। तुम उस बलवान की शरण चले जाओ। बलवान की शरण गाँधीनगर में नहीं, बलवान की शरण दिल्ली में नहीं, किसी नगर में नहीं बल्कि वह तुम्हारे दिल के नगर में सदा के लिए मौजूद है। सच्चे हृदय से उनकी शरण चले गये तो तुरन्त वहाँ से प्रेरणा, स्फूर्ति और सहारा मिल जाता है। वह सहारा कइयों को मिला है। हम लोग भी वह सहारा पाने के लिए तत्पर हैं इसीलिए सत्संग में आ पहुँचे हैं।
तुम कब तक बाहर के सहारे लेते रहोगे ? एक ही समर्थ का सहारा ले लो। वह परम समर्थ परमात्मा है। उससे प्रीति करने लग जाओ। उस पर तुम अपने जीवन की बागडोर छोड़ दो। तुम निश्चिन्त हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा अदभुत काम होने लगेंगे परन्तु राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने देगा। जब राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने दे तब सोचोः
'हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !
हम दुःखी कब होते हैं ?
जब हम अपनी बात को, अपने राग को ईश्वर के द्वारा पूर्ण करवाना चाहते हैं तब हम दुःखी होते हैं। अपने राग को जब ईश्वर के द्वारा पूरा करवाना न चाहें तब ईश्वर जो करेगा वह बिल्कुल पर्याप्त होगा।

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गुरुवार, अप्रैल 22, 2010

आत्मचिंतन की महिमा


एक राजा था। रनवास में बहुत सुविधाएँ रखी थीं। ऐसी ऐसी रानियाँ थीं कि राजा को रनवास से बाहर ही न आने देतीं थीं। इत्र आदि चीजें ऐसी होती हैं कि आदमी को रजस् और तमस् में बाँधे रखती हैं, नीचे के केन्द्रों में ही ले जाती हैं।

राजा महल में ही रहने लगा।

राजा का वजीर विश्वासपात्र था। वह सब राजकाज सँभाल लेता था। प्रजा को तथा अमलदार वर्ग को पता चला कि राजा साहब आजकल सप्ताह-सप्ताह तक, पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक, महीने-महीने तक रनवास में ही रहते हैं। सब अमलदार मनमाना करने लगे।

दीवान ने देखा कि राजा साहब आते नहीं और मेरे नियंत्रण में अमलदार रहते नहीं। राज्य में अन्धाधुन्धी हो रही है। प्रजा का बुरी तरह शोषण हो रहा है। बदमाश लोग प्रजा का खून चूस रहे हैं।

वजीर ने जाकर महल का दरवाजा खटखटाया। रानियों ने सोचा कि मूँआ दीवान आया है, राजा साहब को कोई सूचना देगा, राजा साहब हमको छोड़कर दरबार में चले जाएँगे। रानियों ने दीवान को आँखें दिखायी।

दीवान बोलाः "अच्छा ! राजा साहब से मिलने नहीं देती तो कोई बात नहीं लेकिन यह चिट्ठी तो उन्हें पहुँचा देना।"

रानियों ने कहाः "तू चला जा। अगर दुबारा आया तो दासियों से पिटाई करवा देंगे।"

आठ-दस, बारह-पन्द्रह दिन हो गये लेकिन राजा बाहर नहीं आया। वजीर ने सोचा की अभी राजा साहब को चिट्ठी मिली नहीं। अरे राम ! राज्य लुटा जा रहा है। गुन्डों ने प्रजा को घेर लिया है। महीनों भर अपने महल से राजा साहब बाहर ही नहीं आते। दीवान को मुलाकात ही नहीं देते !

वजीर को वैराग्य हो आया। 'मेरे होते होते राज्य जल रहा है.... मुझसे देखा नहीं जाता। क्या करूँ ?' वजीर चुपचाप बैठ गया...... शान्त.....। भीतर से आवाज आयी किः 'एक दिन जलना है। उसको देखकर क्या जलता है ? जो बुझाना है उसको बुझा। अपनी पकड़ और आग्रह है उसको बुझा।'

वजीर चला गया जंगल में। महल के पीछे के इलाके में जाकर बैठ गया। प्रजा में हाहाकार मच गया। सूबेदारों ने राजा के महल के द्वार खटखटाये। राजा ने द्वार खोला तो सूबेदारों ने कहाः

"महाराज ! दीवान चले गये, कई दिन हो गये। अब तो बिल्कुल अन्धाधुधी हो गई है।"

"दीवान चला गया ? वह तो मेरा विश्वासपात्र था ! उसके भरोसे तो मैं निश्चिन्त था। वह चला गया ?"

"हाँ महाराज ! वे चिट्ठी लेकर महल में आये थे। दो-दो दिन, पाँच-पाँच दिन खड़े रहे लेकिन उनको आपकी मुलाकात नहीं हुई। आखिर थककर वे चले गये।"

"कहाँ गया ?"

"जंगल में। झोंपड़ी बाँधकर बैठ गये हैं ध्यानस्थ।"

राजा पहुँचा वजीर के पास और बोलाः

राजा पहुँचा वजीर के पास और बोलाः

"तू मेरा विश्वासपात्र दीवान है। सब छोड़कर जंगल में बैठा है। क्या फायदा हुआ ?"

"महाराज ! फायदा यह हुआ कि मैं कई दिनों तक कई बार आपके महल के द्वार पर खड़ा रहा। रानी साहेबाओं ने बुरी तरह डाँटा। आपकी मुलाकात नहीं हुई। अब सब कुछ छोड़कर झोंपड़े में परमात्मा-चिन्तन में रह रहा हूँ तो आप खुद चल कर मेरे पास आये। मुझे लाभ हुआ कि नहीं हुआ ?"

पर के चिन्तन से हमारी शक्ति क्षीण होती है। स्व (आत्म-परमात्मा) के चिन्तन से शक्ति जागृत होती है, बढ़ती है।

स्व क्य है ? पर क्या है ? हम निष्पाप कैसे हों ? हमारे कल्मष दूर कैसे हों ? जब तक कल्मष हैं तब तक ज्ञान नहीं होता। जब तक ज्ञान नहीं होता तब तक सब कल्मष नहीं जाते। जैसे नाविक नाव को ले जाता है, नाव नाविक को ले भागती है ऐसे ही ये भी एक दूसरे के पोषक हैं। कल्मष जाएँगे तो ज्ञान बढ़ेगा। ज्ञान बढ़ेगा तो कल्मष जाएँगे।

कल्मष होते क्या हैं ? कल्मष होते हैं पर का चिन्तन अधिक बढ़ जाने से। स्व का अज्ञान.... स्व की विस्मृति हो जाती है। चित्त मलिन होता है।

चित्त को शुद्ध करने का उत्तम से उत्तम एक तरीका है। वह आसान भी है। सब अवस्थाओं में कर सकते है। सब जगह समाधि नही कर सकते। सब जगह कीर्तन नहीं कर सकते। बस में बैठे कीर्तन करेंगे तो लोग भगतड़ा कहकर उपहास करेंगे। आप पर का चिन्तन छोड़कर स्व की स्मृति कहीं भी कर सकते हैं। बस में भी कर सकते हैं और बाजार में भी।

स्व की स्मृति करने के लिए प्रारंभ में थोड़ा एकान्त चाहिए लेकिन अभ्यास हो जाने पर वह कहीं भी कर सकते हैं।

स्व क्या है, पर क्या है यह समझ लें।

जिसको रखने से न रहे उसको बोलते हैं पर। जिसको छोड़ने से भी न छूटे उसको बोलते हैं स्व। जिसको आप कभी छोड़ नहीं सकते वह है स्व। जिसको आप सदा रख नहीं सकते वह है पर। मकान, दुकान, घर, गाड़ी यह जो कुछ भी है वह पर है। अपना शरीर भी पर है, स्व नही है। अगर शरीर स्व होता तो वह कहने में चलता। तुम नहीं चाहते कि बाल सफेद हों, तुम नहीं चाहते हो कि चेहरे पर झुर्रियाँ पड़े, तुम नहीं चाहते कि शरीर में कोई भी रोग हो। शरीर पर है।

उपनिषद में आता है कि जो स्वाभाविक होता है वह मिटता नहीं। जो आस्वाभाविक होता है उसको रखने की इच्छा नहीं होती। बर्फ की ठण्डक मिटाने के लिए आपकी इच्छा नहीं होगी। अग्नि की गर्मी मिटाने के लिए आपकी इच्छा नहीं होगी। ठण्डा होना बर्फ का स्वभाव है। गर्म होना अग्नि का स्वभाव है। मुँह में दाँत होना स्वाभाविक है लेकिन दाँत में तिनका होना अस्वाभाविक है इसलिए तिनका निकालकर ही चैन लेते हैं। आँखों के पोपचों में बाल स्वाभाविक हैं लेकिन बाल आँख में घुस जाता है तो वह खटकता है। उसे निकालना पड़ता है। खटकता वह है जो अस्वाभाविक है। जो स्वाभाविक होता है वह सुख देता है।

शान्ति पाना स्वाभाविक है। आपकी वह माँग है। घर-बार, पुत्र-परिवार छोड़कर शहर से बाहर आश्रम में सत्संग सुनने आ जाते है तो शान्ति पाना स्वाभाविक है। सत्संग के वातावरण में आकर कोई लफंगा फिल्मी गीत गाने लग जाए तो यह आपको अस्वाभाविक लगेगा। उसे आप तुरन्त चुप कर देंगे।

सदा रहना आपका स्वभाव है। आप नहीं चाहते कि मैं मर जाऊँ। जानना आपका स्वभाव है। आप अज्ञानी, मूर्ख नहीं रहना चाहते है। कोई आपको अज्ञानी कहकर पुकारे तो आपको खटकेगा। आप अज्ञान नहीं चाहते। आप मौत नहीं चाहते। आप दुःख नहीं चाहते। आप सदा रहना चाहते हैं, ज्ञान चाहते हैं और आनन्द चाहते हैं।

आप सत् हैं इसलिए सदा रहना चाहते हैं। आप चित् हैं इसलिए ज्ञान चाहते हैं। आप आनन्द स्वरूप हैं इसलिए आनन्द चाहते है। असत्, जड़ और दुःखरूप हो जाना यह अस्वाभाविकता है। आप यह अस्वाभाविकता त्यागकर अपनी असली स्वाभाविकता पाना चाहते हैं। सच्चिदानन्द आपका स्वभाव है। आप मृत्यु से बचना चाहते हैं, अज्ञान और दुःख मिटाना चाहते हैं। अज्ञान आपको अखरता है क्योंकि आप ज्ञानस्वरूप हैं, दुःख आपको अखरता है क्योंकि आप आनन्दस्वरूप हैं, दुःख आता है तो आप बेचैन होते हैं। सुख में वर्ष के वर्ष बीत जाते हैं तो कोई पता नहीं चलता लेकिन आपकी किसी मान्यता को ठेस पहुँची तो आप दुःखी हो गये। दुःख आता है तो आप दुःख मिटाने की कोशिश करते हैं। सुख आता है तो सुख मिटाने की कभी कोशिश की ? ऐसा कोई माई का लाल देखा जिसको आनन्द ही आनन्द मिला और उसे मिटाने की कोशिश की हो ? सुख और आनन्द मिटाने की कोशिश कोई नहीं करता फिर भी वह मिट तो जाता ही है। दुःख वापस आ ही जाता है। क्यों ? क्या कारण है ? सुख और आता रहे... आनन्द और आता रहे.... आता रहे... ऐसी चाह करते-करते पर का चिन्तन हुआ और आनन्द भाग गया।

स्व का माने हमारा स्वभाव है सत्, चित् और आनन्द। पर का स्वभाव है असत्, जड़ और दुःख।

असत् पहले था नहीं, बाद में रहेगा नहीं। जड़ को तो पता ही नहीं कि मैं हूँ। देह जड़ है, पाँच भूतों का पुतला है। सुबह से रात तक, जीवन से मौत तक इसको खिलाओ-पिलाओ, नहलाओ, घुमाओ लेकिन देखो तो कभी न कभी कोई न कोई शिकायत जरूर होगी।

तन धरिया कोई न सुखिया देखा।

जो देखा सो दुखिया रे।।


'डॉक्टर साब ! दवा कर दो, बहुत पीड़ा हो रही है....' लेकिन डाक्टर सा'ब को पूछो कि अपना क्या हाल है ? अपनी पत्नी का क्या हाल है ? सुबह इन्जेक्शन लेकर अस्पताल में जाता हूँ बाबाजी !'

मैं ऐसे डाक्टरों को जानता हूँ जिन्होंने अपने इलाके में नाम कमाया है। उनके बाप उनको मेरे पास ले आये और प्रार्थना करने लगे किः

"स्वामी जी ! आप इसको समझाइये। इसने नाम कमाया है, मरीजों को तो ठीक करता है लेकिन खुद इतना बेठीक है कि रोज नशे के इन्जेक्शन लेता है। M.B.B.S. की डिग्री भी है, कमाता भी है, प्रैक्टीस भी अच्छी चलती है लेकिन कभी नशे-नशे में किसी मरीज का बेड़ा गर्क कर देता है। यह हिन्दुस्तान है बाबा जी ! सब चल रहा है। परदेश में प्रैक्टीस करता तो वहाँ के लोग और सरकार इसको दिन के तारे दिखा देती। आप आशीर्वाद करो।"

स्थूल, सूक्ष्म या कारण शरीर में, किसी में भी, 'मैं' पना है तो अभी ज्ञान नहीं हुआ। ज्ञान हुआ नहीं तो असत्, जड़ और दुःख का सम्बन्ध छूटा नहीं। जब तक असत्, जड़ और दुःख का सम्बन्ध नहीं छूटा तब तक सत्, चित्, और आनन्द स्वरूप में प्रीति नहीं होती। ऐसा नहीं है कि सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप आयेगा, मिलेगा, हम वहाँ पहुँचेंगे। सत्-चित्-आनन्द यह आत्मा का स्वभाव है। आत्मा आपका स्व है। देह पर है। पर का स्वभाव है असत्-जड़-दुःख।

आत्मा और देह का परस्पर अध्यास हो गया। एक का स्वभाव दूसरे में दिखने लगा। आत्मा का अध्यास देह में होने लगा इसलिए आप देह से सदा रहना चाहते हैं। देह से सब जानना चाहते हैं। देह से सदा सुखी रहना चाहते हैं। ऐसे पर के चिन्तन की आदत पड़ गई। यह आदत पुरानी है इसीलिए अभ्यास की जरूरत पड़ती है।

तत्त्वज्ञान समझने में जो असमर्थ हैं उनके लिए योग सुगम उपाय है। प्राण-अपान की गति को सम करके भ्रूमध्य में प्रणव की धारणा करें। इससे पर का स्वभाव छूटेगा। स्व का आनन्द प्रकट होगा। सत् चित् आनन्द स्वभाव बढ़ेगा।

एकान्त में जाकर बैठो। चाँद सितारों को निहारो। निहारते निहारते सोचो कि वे दूर दिख रहे हैं, बाहर से दूर दिख रहे हैं। भीतर से देखा जाए कि मैं वहाँ तक व्यापक न होता तो वे मुझे नहीं दिखते। मेरी ही टिमटिमाहट उनमें चमक रही है। मैं ही चाँद में चमक रहा हूँ... सितारों में टिमटिमा रहा हूँ।

कीड़ी में तू नानो लागे हाथी में तूँ मोटो क्यूँ।

बन महावत ने माथे बेठो होंकणवाळो तूँ को तूँ।

ऐसो खेल रच्यो मेरे दाता जहाँ देखूँ वहाँ तूँ को तूँ।।

इस प्रकार स्व का चिनत्न करने से सामने दिखेगा पर लेकिन पर में छुपे हुए स्व की स्मृति आ जाए तो आपको खुली आँख समाधि लग सकती है और योग की कला आ जाए तो बन्द आँख भी समाधि लग सकती है।

सतत खुली आँख रखना भी संभव नहीं और सतत आँख बन्द करना भी संभव नही। जब आँख बन्द करने का मौका हो तब बन्द आँख के द्वारा यात्रा कर लें और आँख खोलने का मौका हो तो खुली आँख से यात्रा कर लें। यात्रा करने का मतलब ऐसा नहीं है कि कहीं जाना है। पर के चिन्तन से बचना है, बस। यह प्रयोग लगता तो इतना सा है लेकिन इससे बहुत लाभ होता है।


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बुधवार, अप्रैल 21, 2010

मैं साधु कैसे बना ?



पाकिस्तान के सख्खर में साधुबेला आश्रम था। रमेशचन्द्र नाम के आदमी को उस समय के संत महात्मा ने अपनी जीवन कथा सुनाई थी और कहा था कि मेरी यह कथा सब लोगों को सुनाना। मैं कैसे साधु-संत बना यह समाज में जाहिर करना। वह रमेशचन्द्र बाद में पाकिस्तान छोड़कर मुंबई में आ गया था। उस संत ने अपनी कहानी उसे बताते हुए कहा थाः
"मैं जब गृहस्थ था तब मेरे दिन कठिनाई से बीत रहे थे। मेरे पास पैसे नहीं थे। एक मित्र ने अपनी पूँजी लगाकर रूई का धन्धा किया और मुझे अपना हिस्सेदार बनाया। रूई खरीदकर संग्रह करते और मुंबई में बेच देते। धन्धे में अच्छा मुनाफा होने लगा।
एक बार हम दोनों मित्रों को वहाँ के व्यापारी ने मुनाफे के एक लाख रूपये लेने के लिए बुलाया। हम रूपये लेकर वापस लौटे। एक सराय में रात्रि गुजारने रूके। आज से साठ-सत्तर वर्ष पहले की बात है। उस समय क एक लाख जिस समय सोना साठ-सत्तर रूपये तोला था। मैंने सोचाः एक लाख में से पचास हजार मेरा मित्र ले जाएगा। हालाँकि धन्धे में सारी पूँजी उसी ने लगाई थी फिर भी मुझे मित्र के नाते आधा हिस्सा दे रहा था। फिर भी मेरी नीयत बिगड़ी। मैंने उसे दूध में जहर पिला दिया। लाश को ठिकाने लगाकर अपने गाँव चला गया। मित्र के कुटुम्बी मेरे पास आये तब मैंने नाटक किया, आँसू बहाय और उनको दस हजार रूपये देते हुए कहा कि मेरा प्यारा मित्र रास्ते में बीमार हो गया, एकाएक पेट दुखने लगा, काफी इलाज किये लेकिन... हम सबको छोड़कर विदा हो गये। दस हजार रूपये देखकर उन्हें लगा कि, 'यह बड़ा ईमानदार है। बीस हजार मुनाफा हुआ होगा उसमें से दस हजार दे रहा है।' उन्हें मेरी बात पर यकीन आ गया।
बाद में तो मेरे घर में धन-वैभव हो गया। नब्बे हजार मेरे हिस्से में आ गये थे। मैं जलसा करने लगा। मेरे घर पुत्र का जन्म हुआ। मेरे आनन्द का ठिकाना न रहा। बेटा कुछ बड़ा हुआ कि वह किसी अगम्य रोग से ग्रस्त हो गया। रोग ऐसा था कि भारत के किसी डॉक्टर का बस न चला उसे स्वस्थ करने में। मैं अपने लाडले को स्वीटजरलैंड ले गया। काफी इलाज करवाये, पानी की तरह पैसे खर्च किये, बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। मेरा करीब करीब सब धन नष्ट हो गया। दूसरा धन कमाया वह भी खर्च हो गया। आखिर निराश होकर बच्चे को भारत में वापस ले आया। मेरा इकलौता बेटा ! अब कोई उपाय नहीं बचा था। डॉक्टर, वैद्य, हकीमों के इलाज चालू रखे। रात्रि को मुझे नींद नहीं आती और बेटा दर्द से चिल्लाता रहता।
एक दिन बेटे को देखते देखते मैं बहुत व्याकुल हो गया। विह्वल होकर उसे कहने लगाः
"बेटा ! तू क्यों दिनो दिन क्षीण होता चला जा रहा है ? अब तेरे लिए मैं क्या करूँ ? मेरे लाडले लाल ! तेरा यह बाप आँसू बहाता है। अब तो अच्छा हो जा, पुत्र !
बेटा गंभीर बीमारी में मूर्छित सा पड़ा था। मैंने नाभि से आवाज उठाकर बेटे को पुकारा था तो बेटा हँसने लगा। मुझे आश्चर्य हुआ। अभी तो बेहोश था फिर कैसे हँसी आई ? मैंने बेटे से पूछाः
"बेटा ! एकाएक कैसे हंस रहा है ?"
"जाने दो....।"
"नहीं नहीं.... बता क्यों हँस रहा है ?"
आग्रह करने पर आखिर बेटा कहने लगाः
"अभी लेना बाकी है, अभी बीमारी चालू रहेगी, इसलिए मैं हँस रहा हूँ। मैं तुम्हारा वही मित्र हूँ जिसे तुमने जहर दिया था। मुंबई की धर्मशाला में मुझे खत्म कर दिया था और मेरा सारा धन हड़प लिया था। मेरा वह धन और उसका सूद मैं वसूल करने आया हूँ। काफी कुछ हिसाब पूरा हो गया है। अब केवल पाँच सौ रूपये बाकी हैं। अब मैं आपको छुट्टी देता हूँ। आप भी मुझे इजाजत दो। ये बाकी के पाँच सौ रूपये मेरी उत्तर क्रिया में खर्च डालना, हिसाब पूरा हो जाएगा। मैं जाता हूँ... राम राम...." और मेरे बेटे ने आँख मूँद ली, उसी क्षण वह चल बसा।
मेरे दोनों गालों पर थप्पड़ पड़ चुकी थी। सारा धन नष्ट हो गया और बेटा भी चला गया। मुझे किये हुए पाप की याद आयी तो कलेजा छटपटाने लगा। जब कोई हमारे कर्म नहीं देखता है तब देखने वाला मौजूद है। यहाँ की सरकार अपराधी को शायद नहीं पकड़ेगी तो भी ऊपरवाली सरकार तो है ही। उसकी नजरों से कोई बच नहीं सकता।
मैंने बेटे की उत्तर क्रिया करवाई। अपनी बची-खुची संपत्ति अच्छी-अच्छी जगहों में लगा दी और मैं साधु बन गया हूँ। आप कृपा करके मेरी यह बात लोगों को कहना। मैंने भूल की ऐसी भूल वे न करें, क्योंकि यह पृथ्वी कर्मभूमि है।"
कर्मप्रधान विश्व करी राखा।
जो उस करे तैसा फल चाखा।।
कर्म का सिद्धान्त अकाट्य है। जैसे काँटे से काँटा निकलता है ऐसे ही अच्छे कमों से बुरे कर्मों का प्रायश्चित होता है। सबसे अच्छा कर्म है जीवनदाता परब्रह्म परमात्मा को सर्वथा समर्पित हो जाना। पूर्व काल में कैसे भी बुरे कर्म हो गये हों उन कर्मों का प्रायश्चित करके फिर से ऐसी गलती न हो जाए ऐसा दृढ़ संकल्प करना चाहिए। जिसके प्रति बुरे कर्म हो गये हों उनसे क्षमायाचना करके, अपना अन्तःकरण उज्जवल करके मौत से पहले जीवनदाता से मुलाकात कर लेनी चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
अपि चेत्सुदराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।
'यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।'
(भगवद् गीताः 9.30)
तथा-
अपि चेदासि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।
'यदि तू अन्य सर्व पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भली-भाँति तर जाएगा।'
(भगवद् गीताः 4.36)

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शनिवार, अप्रैल 17, 2010

धन, यश और भोग इतने भी आवश्यक नहीं......


यश, धन और भोग ये तीन प्रकार से प्राप्त होते हैं। किसी आदमी को कब धन मिल जाए वह नहीं जानता, कब यश मिल जाय वह नहीं जानता, यश कब अपयश में बदल जाए वह नहीं जानता।
यश, धन और भोग एक तो मिलते हैं पूर्व संचित सुकृत के बल से, पहले किये हुए पुण्यों के बल से। परिश्रम तो सब लोग करते हैं। ऐसा नहीं कि निर्धन परिश्रम नहीं करता। कुछ धनवान ऐसे हैं जो थोड़ा-सा परिश्रम करते हैं और बहुत सारा धन कमा लेते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो जीवनभर परिश्रम करते हैं और मुश्किल से आजीविका चला सकते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो जीवनभर परिश्रम करते हुए भी गरीबी की रेखा से नीचे ही रहते हैं। हालाँकि उनको किसी दाता के द्वारा या सरकार की ओर से कुछ भी सुविधा मिल जाय फिर भी उनको दूषित इच्छाएँ, हल्की इच्छाएँ उनको बरबाद कर देती हैं। शराब, कबाब में या सत्ते-पंजे में अपनी पूँजी नष्ट कर देते हैं। फिर वहीं के वहीं।
कई झोंपड़ी वालों को पक्के मकान मिले। वे लोग दो-दो हजार में मकान बेचकर फिर झोंपड़े में बैठ गये। उन मकानों की अभी साठ-साठ हजार गुडविल चलती है। अपनी बेवकूफी के कारण कई लोग वहीं के वहीं पड़े रहते हैं। पुण्य के अभाव के कारण भी ऐसी बेवकूफी आ जाती है। ज्ञान के अभाव के कारण भी बेवकूफी आ जाती है। कुल मिलाकर कहा जाय तो बेवकूफी का फल ही दुःख है।
जिसको हम चतुराई समझते हैं वह चतुराई अगर शास्त्र, सदगुरू और भगवान से सम्मत नहीं है तो वह चतुराई भी बेवकूफी है। वकालत में चतुर हो गये, इधर का उधर, उधर का इधर... दो वकील पार्टनर बन गये। एक मुवक्किल इसका एक मुवक्किल उसका। जो मुवक्किल ज्यादा पैसा दे उसके पक्ष में केस करा दिया। न्यायाधीश को अपने पक्ष में ला दिया। बड़ी चतुराई दिखती है। लेकिन ऐसी चतुराई से कमाया हराम का पैसा बेटी और बेटे की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। बेटा-बेटी अनैतिक मार्ग पर चले जाते हैं।
पूर्वसंचित सुकृत से यश, धन और भोग मिलते हैं। दूसरा, वर्त्तमान के उद्योग से, पुरूषार्थ से यश, धन और भोग मिलते हैं। वर्त्तमान में एक होता है मनमाना पुरूषार्थ। इससे अल्पकालीन यश, धन और भोग मिलता है। दूसरा होता है धर्ममर्यादा को ख्याल में रखते हुए किया गया उद्योग। इससे लम्बे समय तक रहने वाला यश, धन और भोग मिलते हैं। तीसरा, किसी की कृपा से, अनुग्रह से यश, धन और भोग मिलते हैं। धनवानों का, धर्मात्माओं का, देवताओं का और भगवान का अनुग्रह यश, धन और भोग की प्राप्ति कराता है। अनुग्रह होने पर विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता।
आदमी जब ईमानदारी का सहारा लेता है, सच्चाई का सहारा लेता है तो धन, यश और भोग लम्बे समय तक टिकते हैं, सुखद बनते हैं। बेईमानी से पाया हुआ धन, यश और भोग अल्पकालीन होगा और उतना सुखद नहीं बनेगा। हृदय में शान्ति नहीं होगी। बुद्धि अच्छे मार्ग में नहीं जाने देगी।
अगर थोड़ी बहुत भक्ति की जाय सेवा की जाय, ईमानदारी से धन, यश, भोग प्राप्त किय जायें तो वे भगवान के मार्ग पर ले जाएँगे।
धनवान बहुत लोग होते है। जिनका धन पाप और शोषण से इकट्ठा हुआ है उनको भगवान और संत में श्रद्धा नहीं होगी। जिनको थोड़ा-बहुत सत्कर्म करते हुए धन मिला है उनको भगवान और संत में श्रद्धा होगी। भगवान और संत में श्रद्धा होने से वे धनवान स्थायी धन, स्थायी यश और स्थायी भोग के अधिकारी बनने लगते है। धीरे-धीरे वे आत्म-प्रसाद भी पा लेते हैं। कितना बड़ा अधिकार है। भगवान, संत और शास्त्रों में श्रद्धा नहीं हो रही तो ऐसे धनवान की मति जैसे-तैसे भोग में अपने को खत्म कर देती है।
पैसा है लेकिन भीतर में खुशी नहीं है तो वह धनवान नहीं है, निर्धन है। तन्दुरूस्ती नहीं है तो वह निर्धन है। पति-पत्नी के बीच, पुत्र परिवार के बीच स्नेह नहीं है तो वह धन किस काम का ?
धर्म से वासनाएँ नियंत्रित होती हैं। वासनाएँ नियंत्रित होने से अंतःकरण में बल आता है और मन की आधियाँ क्षीण होती हैं। मन की आधियाँ क्षीण होने से तन की व्याधियाँ कम हो जाती हैं।
अधर्म की वासनाएँ भड़कती हैं, मन में आधियाँ बढ़ती हैं और शरीर की व्याधियाँ भी बढ़ती हैं।
विद्यार्थी बच्चों का धर्म है ब्रह्मचर्य पालना, नासाग्र दृष्टि रखना। पहले के जमाने में बालक पाँच साल का होते ही गुरूकुल में भेज दिया जाता था। पच्चीस साल का होने तक वहीं रहता था, ब्रह्मचर्य पालता था, विद्याध्ययन एवं योगाभ्यास करता था। गुरूकुल से वापस आता तब देखो तो शरीर सुडौल, मजबूत। कमर में मुँज की रस्सी बँधी हुई और उस रस्सी से लंगोट खींची हुई होती थी। वे जवान बड़े वीर, बड़े तन्दुरूस्त, बड़े स्वस्थ होते थे। उस समय समरांगण में योद्धा के बल की तुलना हाथियों के बल से की जाती थी। कोई योद्धा दो हजार हाथियों का बल रखता था, कोई पाँच हजार और कोई दस हजार। अभी का आदमी तो उसे गप्प ही समझता है। उसकी बुद्धि ऐसी छोटी हो गई है। उस काल में तो बड़े-बड़े अदभुत वीर हो गये हैं।
वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स और राजा रघु की कथा है।
कौत्स विद्याध्ययन करके गुरूकुल से विदा ले रहा था। वह गुरू जी से बोलाः
"गुरूजी ! मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ, गुरूदक्षिणा देना चाहता हूँ। आज्ञा करो, मैं आपकी सेवा करूँ ?"
गुरूजी बोलेः "बेटा ! तू गरीब ब्राह्मण है। क्या सेवा करेगा तू ? आश्रम में इतने साल तक तुमने शरीर से सेवा की। अब दक्षिणा से सेवा नहीं करोगे तो भी चलेगा बेटा ! कोई जरूरत नहीं है। जाओ, आनन्द करो। धर्म का प्रचार-प्रसार करो, दूसरों को एवं अपने को उन्नत करो।"
गुरूजी ! बिना दक्षिणा के विद्या स्थिर नहीं रहती। इसलिए कृपा करो, आज्ञा दो, आप जो माँगेंगे वह दक्षिणा ला दूँगा।"
गुरू ने देखा कि है तो कंगाल और फिर भी कहता है जो माँगोगे वह दूँगा ! वे बोलेः
"अच्छा बेटा ! तू आश्रम में चौदह साल रहा है तो चौदह सहस्र सुवर्ण मुद्राएँ ले आ। हालाँकि मैंने जो दिया है उसका पूरा बदला नहीं है फिर भी इतने से चल जाएगा।"
उस जमाने में जो आदमी बोल देता था उसका मूल्य रखता था। बोला हुआ वचन पालता था। कौत्स प्रणाम करके विदा हुआ। सोचने लगाः चौदह सहस्र सुवर्ण मुद्राएँ मुझ ब्राह्मण को कौन दे सकता है ? और कोई नहीं, केवल दाता शिरोमणि राजा रघु ही दे सकते हैं। कौत्स घूमता-घामता राजा रघु के राज्य में गया। उन्ही राजा रघु के कुल में भगवान श्रीराम अवतरित हुए। धर्मात्मा लोग होते हैं वहीं भगवान और संत अवतरित होते हैं। उन्हीं लोगों को स्थायी यश मिलता है। राम जी के साथ राजा रघु का नाम जुड़ गया।
रघुकुल रीत सदा चली आई।
प्राण जाय पर बचन न जाई।।
रामचन्द्रजी आदर से सिर झुकाते हैं, मैं रघुकुल का हूँ ऐसा कहकर रघुकुल का गौरव व्यक्त करते हैं।
ऐसे राजा रघु के राज्य में कौत्स पहुँचा। लेकिन राजा रघु तो अपना पूरा राज्य अपने शत्रु को दे बैठे थे। स्वयं जंगल में जाकर झोंपड़ी में रहते थे, मिट्टी के बर्तन में भोजन करते थे।
हुआ ऐसा था कि राजा रघु के राज्य का वैभव देखकर उनके शत्रु ने राज्य पर चढ़ाई कर दी। मंत्रियों ने राजा रघु से कहा किः
"पड़ोसी राजा ने हमारे राज्य पर आक्रमण किया है। वे हमसे युद्ध करना चाहते हैं।"
"वे युद्ध क्यों करना चाहते हैं ?"
"उनको यह राज्य चाहिए ?"
"अच्छा ! उनको राज्य करने की वासना है। ठीक है। अब बताओ, वे प्रजा का पालन कैसा करते हैं ? वात्सल्य भाव से करते है कि शोषण भाव से ?"
"अपनी प्रजा का पालन तो खूब वात्सल्य भाव से करते हैं।"
राजा रघु बोलेः
"प्रजा का अच्छी तरह पालन ही करना है तो इस शरीर से हो या उस शरीर से हो, क्या फर्क पड़ता है ? नाहक लोगों की मार-काट हो स्त्रियाँ विधवा बनें, माताएँ पुत्रहीन बनें, बहनें अपने दुलारे भाई को खो बैठें, मासूम बच्चे पिता की छत्रछाया खोकर अनाथ बन जाएँ यह तो अच्छा नहीं है। युद्ध करने से तो यह सब होगा।
मंत्रीगण ! जाओ, उनको बुलाओ। उनसे कहो कि राजा रघु तुम्हें ऐसे ही राज्य दे देना चाहते हैं।"
शत्रु राजा आये। उनके हृदय में पूरा यकीन था कि राजा रघु वास्तव में धर्मात्मा हैं और जैसा बोलेंगे वैसा ही करेंगे। उनके आते ही राजा रघु ने राजतिलक कर दिया। अपना सारा राज्य सौंप दिया।
राजा रघु ने तो स्वेच्छा से अपना राज्य दे दिया लेकिन प्रजा का हृदय तो रघु से जुड़ा था। शत्रु राजा ने घोषणा करवाई कि राजा रघु को जो कोई स्थान देगा, सहारा देगा, उसे मृत्युदण्ड दिया जाएगा। मृत्युदण्ड के भय से लोग खामोश रह गये। राजा रघु के लिए हृदय पिघल रहा था फिर भी कुछ नहीं कर पाये।
राजा रघु जंगल में चले गये। ठीकरे में भिक्षा माँगकर खा लेते, कंदमूल से गुजारा कर लेते, एक झोंपड़ी में रह लेते। आत्मा-परमात्मा की साधना के मार्ग में लग गये।
राज्य छोड़ना उनके तरतीव्र प्रारब्ध में होगा। उन्होंने राज्य छोड़ा तो धर्मानुकूल रहकर राज्य छोड़ा, अपनी खुशी से, स्वेच्छा से छोड़ा। राज्य से चिपके रहते, मरते-मरते छोड़ते तो इतिहास में ऐसे चमकते नहीं।
वह ब्राह्मण कुमार कौत्स राजा रघु के राज्य में आया। उसे पता चला कि उनके स्थान पर तो दूसरा राजा है। राजा रघु कहीं जंगल में वनवासी भिक्षुक होकर रहते हैं। कौत्स को राजा रघु की महिमा का पता था, उन पर श्रद्धा थी कि राजा न होने पर भी वे सहायरूप बनेंगे ही। वे सदा श्रीसम्पन्न राजवी हैं।
घूमते-घामते आखिर कौत्स राजा रघु की पर्णकुटि खोज ही ली।
सुबह का समय था। पूर्वाकाश में प्रातः के सुनहरे सूर्य का उदय हो रहा था। राजा रघु सूर्य के सामने प्रातः सन्ध्या करने बैठे थे। कौत्स ने देखा कि राजा रघु के सन्ध्या वन्दन करने के पात्र सुवर्ण के तो नहीं हैं, अन्य धातु के भी नहीं हैं। मिट्टी के पात्र से सन्ध्या कर रहे हैं, सूर्य को अर्घ्य दे रहे हैं।
कौत्स निराश हो गया। जिनके पास बर्तन भी मिट्टी के बचे हैं ऐसे राजा रघु से चौदह सहस्र सुवर्ण मुद्राएँ क्या माँगना ? वह बिना कुछ कहे वापस लौट पड़ा।
राजा रघु का ध्यान उधर गया। एक ब्राह्मण कुमार कुछ कहे बिना वापस जा रहा है, क्या बात है ? उन्होंने कौत्स को बुलाया। उनके आग्रह करने पर कौत्स ने अपनी बात बताई, वहाँ आने का प्रयोजन बताया और आखिर कहाः
"महाराज ! विधाता ने क्या कर दिया ?"
"क्यों निराश होता है विप्र ! प्रारब्ध में जो होना होता है, होता है। रो-रोकर भोगें या हँसकर भोगें, हमारी मर्जी की बात है। विपत्ति आने से हमको क्या फर्क पड़ता है ?"
"महाराज ! आपको तो कुछ फर्क नहीं पड़ता लेकिन हम जैसे याचकों का तो सब कुछ चला गया। आप जैसे दाता भिखारी हो गये तो हमको मुँह माँगा दान कौन देगा ? हे विधाता ! तूने क्या कर दिया ?"
"अरे ब्राह्मण ! तू अपने को कोस मत, विधाता को दोष मत दे। बोल तेरा अभीष्ट क्या है ?"
"अब आप क्या देंगे ? आपके पास मिट्टी के बर्तनों के अलावा बचा ही क्या है ? अब मुझे गुरूदक्षिणा देने के लिए चौदह सहस्र सुवर्ण मुद्राएँ कौन देगा ?"
राजा रघु ने कहाः "पागल ! निराश मत हो। ठहर में अभी सुवर्ण मुद्राएँ दे देता हूँ।"
राजा रघु ने गहरी साँस ली। प्राणायाम किया।
प्राणशक्ति जितनी सूक्ष्म होती है उतना संकल्प बलवान होता है। इस विषय में आप लोग नहीं जानते। मैं भी पूरा नहीं जानता। थोड़ा बहुत जानता हूँ उससे बहुत लाभ मिलता है।
तुम जो श्वास लेते हो वह स्थूल प्राण है। तुम नियम से प्राणायाम और योगासन का विधिपूर्वक अभ्यास करो तो तुम्हारा प्राण सूक्ष्म होगा। सूक्ष्म प्राण होने पर संकल्प शक्ति का विकास होता है। उसके द्वारा बहुत बड़े कार्य हो सकते हैं। योगी पुरूषों का तो यहाँ तक कहना है कि तुम्हारे प्राण सूक्ष्मतम हो जाएँ तो तुम आकाश में स्थित सूर्य और चन्द्र को गोलों की तरह अपने संकल्प से चला सकते हो और ठहरा सकते हो। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र ये सब प्राणशक्ति से संचालित होते हैं। प्राण जितना सूक्ष्म होता है उतना आदमी का बल बढ़ता है।
जैसे, अभी मैं सत्संग कर रहा हूँ। मैं आसन करके आया हूँ। मेरे प्राणों का तालमेल सही है। मैं बोलूँगा तो लोग मेरे प्रवचन से ज्यादा तत्पर हो जाएँगे। अगर मेरे प्राणों की रिधम (ताल) ठीक नहीं है, मेरे प्राण सूक्ष्म नहीं बने हैं, मेरे मन में पवित्रता नहीं है तो इससे भी बढ़िया बढ़िया कथाएँ या बातें रटकर सुना दूँ तो तुम्हें ऐसा आनन्द नहीं आयेगा। हरिद्वार में हर की पेड़ी पर ऐसे लेक्चर करने वाले लोग बहुत होते हैं। उनको सुनने के लिए दो लोग बैठते हैं तो दो लोग उठते हैं, आते जाते रहते हैं। उनमें और संतों में यही फर्क है कि संतों का जीवन धर्मानुकूल है। मन में विकारों को क्षीण करने की शक्ति आयी है। जैसे हीरे से हीरा कटता है ऐसे मन से ही मन के विकार काटे जाते हैं।
शुभ संकल्प, प्राण की रिधम को, गुरू के मार्गदर्शन को उन्होंने अपने जीवन में उतारा है, संकल्प उन्नत किया है इसलिए उनके प्राण की गति ऊँची हो गई, सूक्ष्म हो गई। तभी उनकी वाणी का प्रभाव पड़ता है।
जिस दिन मैं अधिक प्रसन्न होता हूँ, मेरे प्राण की रिधम सही होती है उस दिन सत्संग प्रवचन में जो भी विषय हो, जो भी मैं बोलूँगा तो आनन्द ही आनन्द आयेगा। जिस दिन मेरे प्राणी की स्थिति ठीक नहीं होती, प्राण किसी रोग निवृत्त करने में लगे हैं उस दिन मेरे बोलने का उतना प्रभाव नहीं पड़ता। यह मेरा अनुभव है।
इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है। धर्म का अनुष्ठान करने से मन और प्राण को नियंत्रित करने में सहयोग मिलता है।
धर्मात्मा राजा रघु ने कौत्स से कहाः
"पागल ! निराश क्यों होता है ? ठहर। मैं क्षत्रिय हूँ। तुम ब्राह्मण हो। माँगना तुम्हारा अधिकार है और देना मेरा कर्त्तव्य है। देने के लिए मेरे पास द्रव्य नहीं है तो मैं युद्ध करके भी ला सकता हूँ। इस धरती के लोगों से क्या युद्ध करना ! वह युद्ध कब निपटे ? मैं तो अपने बाण का निशाना बनाता हूँ कुबेर भण्डारी को।"
राजा रघु ने उठाया धनुष। सरसंधान किया। कुबेर को ललकारा किः "या तो चौदह सहस्र सुवर्ण मुद्राओं की वर्षा कर दो या युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।"
देवताओं के खजानची के साथ युद्ध करने का सामर्थ्य धर्मात्माओं में होता है। दुरात्मा बेचारे क्या कर सकते हैं !
जिनके संकल्प हल्के हैं वे बच्चे बच्चों को जन्म देने लग गये। अभी वे मर्द हुए ही नहीं और बच्चे पैदा करने लग गये। ऐसे लोगों के मन और प्राण दुर्बल होते हैं। वे लोग यह बात समझने के भी काबिल नहीं होते। सत्शास्त्र की बात मति माने तो भी सत्य होती है और मति न माने तो भी सत्य होती है।
वैशम्पायन परीक्षित के पुत्र जन्मेजय को कथा सुना रहे थे। जन्मेजय बात में सन्देह कर कहने लगाः
"गुरूजी ! आप कहते हैं कि महाभारत के युद्ध में भीम ने हाथियों को ऐसे जोर से घुमाकर आकाश में फेंका कि वे अभी तक आकाश में घूम रहे हैं। यह कैसे हो सकता है ? इतनी गप्प ! गुरूजी ! कुछ तो मर्यादा रखो। मैं जन्मेजय हूँ। सारा राज्य सँभालता हूँ। मेरे आगे आप ऐसी बात कर रहे हैं ?"
वैशम्पायन ने कहाः "हे मूर्ख ! तेरी मति समझने के काबिल नहीं है तो शास्त्र और संत की बात में अविश्वास करता है ?"
वैशम्पायन जी ने सूक्ष्म प्राण का उपयोग किया, संकल्प शक्ति का उपयोग किया, हाथ ऊँचा किया और झटका मारा तो आकाश से एक हाथी आकर वहाँ गिरा। वैशम्पायन ने कहाः
"भीम ने जो हाथी फेंके थे और अभी आकाश में गुरूत्वाकर्षण से बाहर जाकर घूम रहे हैं उनमें से यह एक हाथी है, देख ले मूर्ख ! अब तो विश्वास करेगा ?"
हमारे देश में ऐसे योगी हो गये हैं। ऐसी क्षमता सबके अंतःकरण में बीज रूप में पड़ी है। लेकिन हम धर्म का महत्त्व नहीं जानते, संयम का महत्त्व नहीं जानते इसलिए वे शक्तियाँ विकसित नहीं होती। इधर देखते हैं, उधर देखते हैं, विकारी केन्द्रों में चले जाते हैं। इससे कितना पुण्यनाश होता है, बाद में कितनी बेइज्जती होती है, कितना दुःख उठाना पड़ता है इसका गणित हम नहीं जानते। छोटे-छोटे आकर्षणों में अपना सर्वनाश कर देते हैं।
सती अनसूया ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवों को बालक बना दिया। सती शांडिली ने सूर्य की गति को रोक दिया। हम यह शास्त्रों में पढ़ते हैं लेकिन इन सबको कल्पनाएँ समझ लेते हैं।
कथा कहती है कि राजा रघु ने धनुष पर बाण चढ़ाया। कुबेर को पता चला कि अरे ! ये तो राजा रघु हैं ! राजा रघु से युद्ध ! ना.... ना.... ना.... असम्भव। कुबेर भण्डारी ने सुवर्ण मुद्राओं की वर्षा कर दी। राजा रघु ने कौत्स से कहा कि ले ले ये सुवर्ण मुद्राएँ। कौत्स ने गिनकर चौदह सहस्र सुवर्ण मुद्राएँ ले ली। फिर भी काफी बच गई। राजा रघु ने कहाः
"मैंने तेरे लिए ही ये सुवर्ण मुद्राएँ मँगवाई हैं, मेरे लिए नहीं। अतः हे विप्र कुमार ! ये सारी सुवर्ण मुद्राएँ तू ही ले जा।"
कौत्स कहता हैः "मुझे गुरूदक्षिणा में चौदह सहस्र देनी हैं, उतनी मैंने ले ली। इससे एक भी ज्यादा मुझे नहीं चाहिए।"
राजा रघु बोलेः "ये मुद्राएँ तेरे निमित्त आयी हैं। उन्हें लेना मेरा हक नहीं है।"
कितना धर्म का अनुशासन स्वीकार किया है ! अपने मन पर कितना संयम है ! लोग घोड़े पर जीन रखकर, रकाब बाँधकर उसमें पैर रखकर सवारी करते हैं। ऐसे ही मन पर यदि धर्म और संयम का जीन और रकाब रखकर सवारी की जाय तो.... घोड़ा तो एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाता है परन्तु मनरूपी घोड़ा जीवात्मा को परमात्मामय बना देता है।
कौत्स बोलता हैः "राजन् ! मुझे जितनी आवश्यक हैं उतनी ही मुद्राएँ लूँगा। ज्यादा लेकर मैं परिग्रह क्यों करूँ ? अपना हृदय क्यों खराब करूँ ?"
दाता तो देकर छूट जाता है। आजकल लेने वाला इतना कंगाल है कि उसका पेट नहीं भरता। देने वाला इतना दरिद्र है कि उसके दिल से छूटता नहीं। उदार आत्मा तो कोई कोई होते हैं।
लेने वाले को थोड़े से तृप्ति हो जानी चाहिए। वह आवश्यकताएँ बढ़ाए नहीं। दान के माल से ऐश न करें, मौज न उड़ाये, पर व्यवहार चलाये।
धर्म का अनुष्ठान करने से अंतःकरण निर्भार होता है ,हृदय में खुशी होती है और अधर्माचरण करने से हृदय बोझीला होता है, दिल की खुशी मारी जाती है।
हमें जो धन, यश और भोग मिलता है वह जितना प्रारब्ध में होता है उतना ही मिलता है। अथवा यहाँ जैसा उद्योग होता है उसी प्रकार का मिलता है। उद्योग अगर अधर्म से करें तो दुःख, चिन्ता और मुसीबत आती है। धर्म के अनुकूल उद्योग करें तो सुख, शान्ति और स्थिरता आती है।
अनुग्रह से भी धन, यश और भोग मिल सकता है। लेकिन देखना यह है कि अनुग्रह किसका है। सज्जन सेठ का, धर्मात्मा साहूकार का अनुग्रह है कि दुरात्मा का है ? साधु का अनुग्रह है कि असाधु का ?
सज्जनों का अनुग्रह, देवताओं का अनुग्रह, सदगुरू और भगवान का अनुग्रह तो वांछनीय है, अच्छा है, स्वीकार्य है। लेकिन दुर्जन का अनुग्रह ठीक नहीं होता। जैसे पक्षियों को फँसाने के लिए शिकारी दाने डालता है। पक्षी दाने चुगने उतर आते हैं और जाल में फँस जाते हैं। फिर छटपटाने लगते हैं। स्वार्थी आदमी कोई अनुग्रह करे तो खतरा है। कोई बदचलन स्त्री, कोई नटी बहुत प्यारे करने लगे, नखरे करने लगे तो खतरा है। वह आदमी की जेब भी खाली कर देगी और नसों की शक्ति भी खाली कर देगी। घड़ीभर का सुख देगी लेकिन जिन्दगी भर फिर रोते रहो, तुच्छ विकारी आकर्षणों में मरते रहो।
तुमको जो धन, यश, भोग और सुख देने वाले हैं वे कैसे हैं यह देखो। वे सज्जन हैं, संत हैं, देव हैं, भगवान हैं कि विकारी आदमी हैं ? विकारी और दुर्जन लोगों के द्वारा मिला हुआ धन, सुख, भोग, भोक्ता को बरबाद कर देता है।
आजकल दोस्त भी ऐसे मिलते हैं। कहते हैं- "चल यार ! सिनेमा देखने चलते हैं। मैं खर्च करता हूँ... चल ब्ल्यू रूम में... ब्ल्यू फिल्म देखते हैं...।"
दस-बारह साल के लड़के ब्ल्यू फिल्म देखने लग जाते हैं। उनकी मानसिक अवदशा ऐसी हो जाती है, वे ऐसी कुचेष्टाओं में ग्रस्त हो जाते हैं कि हम व्यासपीठ पर बोल नहीं सकते। वे बच्चे बेचारे अपना इतना सर्वनाश कर देते हैं कि बाप धन भी दे जाता है, मकान भी दे जाता है, धन्धा भी दे जाता है फिर भी वह बच्चा चारित्र्यभ्रष्ट होने के कारण न धन सँभाल पाता है, न मकान सँभाल पाता है, न धन्धा चला सकता है, न स्वास्थ्य सँभाल पाता है, न माता की सेवा कर पाता है, न माता का आदर कर पाता है, न पिता का श्राद्ध कर्म ठीक से कर पाता है, न माता का भविष्य सोच पाता है न पिता का कल्याण सोच पाता है। वह लड़का अपने ही विकारी सुख में इतना खप जाता है कि उसके जीवन में कुछ सत्त्व नहीं बचता। जरा-सा बोलो तो नाराज हो जाता है, जरा सा समझाओ तो चिढ़ जाता है, घर छोड़कर भाग जाता है। उसको जरा-सा डाँटो तो आत्महत्या के विचार आयेंगे।
आत्महत्या के विचार आते हैं तो मन की दुर्बलता की पराकाष्ठा है। बचपन में वीर्यनाश खूब होता है तो बार-बार आत्महत्या के विचार आते हैं। वीर्यवान पुरूष को आत्महत्या के विचार नहीं आते। संयमी पुरूष को आत्महत्या के विचार नहीं आते। आत्महत्या के विचार वे ही लोग करते हैं जिनका सेक्स्युअल केन्द्र मजबूत होने से पहले ही द्रवित हो गई, क्षीण हो गई। यही कारण है कि हमारे देश की अपेक्षा परदेश में आत्महत्याएँ अधिक होती हैं। हमारे देश में भी पहले की अपेक्षा आजकल आत्महत्याएँ ज्यादा होने लगी हैं क्योंकि फिल्मों के कुप्रभाव से बच्चे सेक्स्युअल केन्द्र के शिकार हो गये हैं।
आखिर निष्कर्ष क्या निकालना है ?
निष्कर्ष यह निकालना है कि हमें धन, यश और भोग आवश्यक हैं लेकिन इतने नहीं जितने हम मानते हैं। भोग अगर नियंत्रित होगा, वासना अगर नियंत्रित होगी तो मन के संकल्प-विकल्प कम होंगे, मन बलवान होगा।
अपना उद्देश्य ऊँचा बनाओ। आत्म-धन पाने का, आत्म-सुख जगाने का उद्देश्य बनाओ। आत्म-धन और आत्म-सुख शाश्वत है। वह धन पाओगे तो यहाँ का धन दास की तरह सेवा में रहेगा। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को धनंजय कहते है। लोग बोलते हैं कि मैं धनवान हूँ लेकिन उन बेचारों को पता नहीं कि वे धन के मात्र चौकीदार हैं। धन सँभालते सँभालते चले जाते हैं। धन का सदुपयोग नहीं कर पाते तो वे धन के स्वामी कैसे हुए ? स्वामी तो उसको कहा जाता है जो स्वतन्त्र हो। धनवान तो धन से बँधे हुए हैं, धन के दास हैं, गुलाम हैं, धन के चौकीदार हैं। बैंक के द्वार पर चौकीदार बंदूक लेकर खड़ा रहता है। वह धन का चौकीदार है, स्वामी थोड़े ही है !
कई लोग तन के, मन के, धन के दास होते हैं। तन से बीमार रहते हैं, मन से उद्विग्न रहते हैं और धन को सँभालते सँभालते सारा जीवन खपा देते हैं।
कुछ लोग तन के, मन के, धन के स्वामी होते हैं। तन को यथायोग्य आहार-विहार से तन्दुरूस्त रखते हैं, मन को विकारी आकर्षणों से हटाकर आत्म-सुख में डुबाते हैं और धन का बहुजन हिताय सदुपयोग करते हैं।
तन, मन, धन का स्वामी बनना ही मनुष्य जन्म का उद्देश्य है।
तन का स्वामी कैसे बनें ? स्वास्थ्य के नियम जानकर तन को क्या खिलाना, कितना खिलाना, क्या न खिलाना, कितना समय सोना, कितना समय जागना, कहाँ जाना, कहाँ न जाना इनका विवेक करो। इन नियमों को चुस्तता से आचरण में लाओ तो तन के स्वामी हो जाओगे। साथ-ही-साथ मन के भी स्वामी हो जाओगे।
मन के स्वामी बनोगो तो तन के भी स्वामी बन जाओगे। तन का स्वामी बनने का संकल्प करोगे तो मन का स्वामी बनने में सहाय मिलेगी. दास बनकर जिये तो क्या जिये ?
मत पुजारी बन तू खुद भगवान होकर जी.....।
चार दिन जी लेकिन शरीर का भगवान होकर जी। दास और गुलाम मत बन। तू शहनशाह होकर जी।
धर्म से इच्छाएँ मर्यादित होती हैं। उपासना से इच्छाएँ शुद्ध होती हैं। ध्यान से इच्छाएँ खत्म होती हैं। इच्छाएँ खत्म होने से सामर्थ्य बढ़ता है। इच्छाएँ नियंत्रित होने से सामर्थ्य पनपता है। इच्छाएँ शुद्ध होने से कर्म की शुद्धि और लक्ष्य की शुद्धि होती है। योग से इच्छाएँ निवृत्त होती हैं और तत्त्वज्ञान से सारी इच्छाएँ भुनी जाती हैं।
अब मर्जी तुम्हारी है। हमने तो शास्त्र, संतों के वचन और अपने अनुभव को आपके समक्ष रख दिया है। तुम्हें जो अच्छा लगे, आत्मसात् कर लो।
नारायण.... नारायण.... नारायण..... नारायण..... नारायण.....

शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

'आज रोकड़ा.... काले उधार।'


हम शांत सुखस्वरूप आत्मा हैं। तूफान से सरोवर में लहरें उठ रही थीं। तूफान शान्त हो गया। सरोवर निस्तरंग हो गया। अब जल अपने स्वभाव में शान्त स्थित है। इसी प्रकार अहंकार और इच्छाओं का तूफान शान्त हो गया। मेरा चित्तरूपी सरोवर अहंकार और इच्छाओं से रहित शान्त हो गया। अब हम बिल्कुल निःस्पंद अपनी महिमा में मस्त हैं।
मन की मनसा मिट गई भरम गया सब दूर।
गगन मण्डल में घर किया काल रहा सिर कूट।।

इच्छा मात्र, चाहे वह राजसिक हो या सात्त्विक हो, हमको अपने स्वरूप से दूर ले जाती है। ज्ञानवान इच्छारहित पद में स्थित होते हैं। चिन्ताओं और कामनाओं के शान्त होने पर ही स्वतंत्र वायुमण्डल का जन्म होता है।

हम वासी उस देश के जहाँ पार ब्रह्म का खेल।
दीया जले अगम का बिन बाती बिन तेल।।

आनन्द का सागर मेरे पास था मुझे पता न था। अनन्त प्रेम का दरिया मेरे भीतर लहरा रहा था और मैं भटक रहा था संसार के तुच्छ सुखों में।
ऐ दुनियाँदारों ! ऐ बोतल की शराब के प्यारों ! बोतल की शराब तुम्हें मुबारक है। हमने तो अब फकीरों की प्यालियाँ पी ली हैं..... हमने अब रामनाम की शराब पी ली है।
दूर हटो दुनियाँ की झंझटों ! दूर हटो रिश्तेनातों की जालों ! हमने राम से रिश्ता अपना बना लिया है।
हम उसी परम प्यारे को प्यार किये जा रहे हैं जो वास्तव में हमारा है।
'आत्मज्ञान में प्रीति, निरन्तर आत्मविचार और सत्पुरूषों का सान्निध्य' – यही आत्म-साक्षात्कार की कुँजियाँ हैं।
हम निःसंकल्प आत्म-प्रसाद में प्रवेश कर रहे हैं। जिस प्रसाद में योगेश्वरों का चित्त प्रसाद पाता है, जिस प्रसाद में मुनियों का चित्त मननशील होता है उस प्रसाद में हम आराम पाये जा रहे हैं।
तुम्हें मृत्युदण्ड की सजा मिलने की तैयारी हो, न्यायाधीश सजा देने के लिए कलम उठा रहा हो, उस एक क्षण के लिए भी यदि तुम अपने आत्मा में स्थित हो जाओ तो न्यायाधीश से वही लिखा जायेगा जो परमात्मा के साथ तुम्हारी नूतन स्थिति के अनुकूल होगा, तुम्हारे कल्याण के अनुकूल होगा।
दुःख का पहाड़ गिरता हो और तुम परमात्मा में डट जाओ तो वह पहाड़ रास्ता बदले बिना नहीं रह सकता। दुःख का पहाड़ प्रकृति की चीज है। तुम परमात्मा में स्थित हो तो प्रकृति परमात्मा के खिलाफ कभी कदम नहीं उठाती। ध्यान में जब परमात्म-स्वरूप में गोता मारो तो भय, चिन्ता, शोक, मुसीबत ये सब काफूर हो जाते हैं। जैसे टॉर्च का प्रकाश पड़ते ही ठूँठे में दिखता हुआ चोर भाग जाता है वैसे ही आत्मविचार करने से, आत्म-भाव में आने मात्र से भय, शोक, चिन्ता, मुसीबत, पापरूपी चोर पलायन हो जाते हैं। आत्म-ध्यान में गोता लगाने से कई जन्मों के कर्म कटने लगते हैं। अभी तो लगेगा कि थोड़ी शान्ति मिली, मन पवित्र हुआ लेकिन कितना अमाप लाभ हुआ, कितना कल्याण हुआ इसकी तुम कल्पना तक नहीं कर सकते। आत्म ध्यान की युक्ति आ गयी तो कभी भी विकट परिस्थितियों के समय ध्यान में गोता मार सकते हो।
मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध और जालंधर बन्ध, यह तीन बन्ध करके प्राणायाम करें, ध्यान करें तो थोड़े ही दिनों में अदभुत चमत्कारिक लाभ हो जायगा। जीवन में बल आ जायगा। डरपोक होना, भयभीत होना, छोटी-छोटी बातों में रो पड़ना, जरा-जरा बातों में चिन्तातुर हो जाना यह सब मन की दुर्बलताएँ हैं, जीवन के दोष हैं। इन दोषों की निकालने के लिए ॐ का जप करना चाहिए। प्राणायाम करना चाहिए। सत्पुरूषों का संग करना चाहिए।
जो तुम्हें शरीर से, मन से, बुद्धि से दुर्बल बनाये वह पाप है। पुण्य हमेशा बलप्रद होता है। सत्य हमेशा बलप्रद होता है। तन से, मन से, बुद्धि से और धन से जो तुम्हें खोखला करे वह राक्षस है। जो तुम्हें तन-मन-बुद्धि से महान् बनायें वे संत हैं।
जो आदमी डरता है उसे डराने वाले मिलते हैं।
त्रिबन्ध के साथ प्राणायाम करने से चित्त के दोष दूर होने लगते हैं, पाप पलायन होने लगते हैं, हृदय में शान्ति और आनन्द आने लगता है, बुद्धि में निर्मलता आने लगती है। विघ्न, बाधाएँ, मुसीबतें किनारा करने लगती हैं।
तुम ईश्वर में डट जाओ। तुम्हारा दुश्मन वही करेगा जो तुम्हारे हित में होगा। ॐ का जप करने से और सच्चे आत्मवेत्ता संतों की शरण में जाने से कुदरत ऐसा रंग बदल देती है कि भविष्य ऊँचा उठ जाता है।
अचल संकल्प-शक्ति, दृढ़ निश्चय और निर्भयता होनी चाहिए। इससे बाधाएँ ऐसी भागती हैं जैसे आँधी से बादल। आँधी चली तो बादल क्या टिकेंगे ?
मुँह पर बैठी मक्खी जरा-से हाथ के इशारे से उड़ जाती है ऐसे ही चिन्ता, क्लेश, दुःख हृदय में आयें तब जरा सा ध्यान का इशारा करो तो वे भाग जायेंगे। यह तो अनुभव की बात है। डरपोक होने से तो मर जाना अच्छा है। डरपोक होकर जिये तो क्या जिये ? मूर्ख होकर जिये तो क्या जिये ? भोगी होकर जिये तो क्या खाक जिये ? योगी होकर जियो। ब्रह्मवेत्ता होकर जियो। ईश्वर के साथ खेलते हुए जियो।
कंजूस होकर जिये तो क्या जिये ? शिशुपाल होकर जिये तो क्या जिये ? शिशुपाल यानी जो शिशुओं को, अपने बच्चों को पालने-पोसने में ही अपना जीवन पूरा कर दे। भले चार दिन की जिन्दगी हो, चार पल की जिन्दगी हो लेकिन हो आत्मभाव की। चार सौ साल जिया लेकिन अज्ञानी होकर जिया तो क्या खाक जिया ? मजदूरी की और मरा। जिन्दगी जीना तो आत्मज्ञान की।
भूतकाल जो गुजर गया उसके लिये उदास मत हो। भविष्य की चिन्ता मत करो। जो बीत गया उसे भुला दो। जो आता है उसे हँसते हुए गुजारो। जो आयेगा उसके लिए विमोहित न हो। आज के दिन मजे में रहो। आज का दिन ईश्वर के लिए। आज खुश रहो। आज निर्भय रहो। यह पक्का कर दो। 'आज रोकड़ा.... काले उधार।' इसी प्रकार आज निर्भय....। आज नहीं डरते। कल तो आयेगी नहीं। जब कल नहीं आयेगी तो परसों कहाँ से आयेगी ? जब आयेगी तो आज होकर ही आयेगी।
आदमी पहले भीतर से गिरता है फिर बाहर से गिरता है। भीतर से उठता है तब बाहर से उठता है। बाहर कुछ भी हो जाय लेकिन भीतर से नहीं गिरो तो बाहर की परिस्थितियाँ तुम्हारे अनुकूल हो जायेंगी।
विघ्न, बाधाएँ, दुःख, संघर्ष, विरोध आते हैं वे तुम्हारी भीतर की शक्ति जगाने कि लिए आते है। जिस पेड़ ने आँधी-तूफान नहीं सहे उस पेड़ की जड़ें जमीन के भीतर मजबूत नहीं होंगी। जिस पेड़ ने जितने अधिक आँधी तूफान सहे और खड़ा रहा है उतनी ही उसकी नींव मजबूत है। ऐसे ही दुःख, अपमान, विरोध आयें तो ईश्वर का सहारा लेकर अपने ज्ञान की नींव मजबूत करते जाना चाहिए। दुःख, विघ्न, बाधाएँ इसलिए आती हैं कि तुम्हारे ज्ञान की जड़ें गहरी जायें। लेकिन हम लोग डर जाते है। ज्ञान के मूल को उखाड़ देते हैं।

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गुरुवार, अप्रैल 15, 2010

प्राप्ति और प्रतीती में अंतर


अमरदास नाम के एक संत हो गये। वे जब तीन साल के थे, तब माँ की गोद में बैठे-बैठे कुछ प्रश्न पूछने लगेः
"माँ ! मैं कौन हूँ ?"
बेटा ! तू मेरा बेटा है ?
"तेरा बेटा कहाँ है?"
माँ ने उसके सिर पर हाथ रखकर, उसके बाल सहलाते हुए कहाः "यह रहा मेरा बेटा।"
"ये तो सिर और बाल है।"
माँ ने दोनों गालों को स्पर्श करते हुए कहाः "यह है मेरा गुलड़ू।"
"ये तो गाल हैं।"
हाथ को छूकर माँ ने कहाः "यह है मेरा बेटा।"
"ये तो हाथ है।"
अमरदास वास्तव में गत जन्म के प्राप्ति की ओर चलने वाले साधक रहे होंगे। इसीलिए तीन साल की उम्र में ऐसा प्रश्न उठा रहे थे। साधक का हृदय तो पावन होता है। जिसका हृदय पावन होता है, वह आदमी अच्छा लगता है। पापी चित्तवाला आदमी आता है, उसको देखकर चित्त उद्विग्न होता है। श्रेष्ठ आत्मा आता है, पुण्यात्मा आता है तो उसको देखकर हृदय पुलकित होता है। इसी बात को तुलसीदासजी ने इस प्रकार कहा हैः
एक मिलत दारूण दुःख देवहिं।
दूसर बिछुड़त प्राण हर लेवहिं।।

क्रूर आदमी आता है तो चित्त में दुःख होने लगता है। सदगुणी, सज्जन जब हमसे बिछुड़ता है, दूर होता है, तब मानो हमारे प्राण लिये जा रहा है। अमरदास ऐसा ही मधुर बालक था। माँ का इतना वात्सल्य और इतना समझदार बेटा ! तीन वर्ष की उम्र में ऐसे-ऐसे प्रश्न करे ! हृदय में पूर्ण निर्दोषता है। निर्दोष बच्चा प्यारा लगता ही है। माँ ने अमरदास को छाती से लगा लिया।
"यह है मेरा बेटा।"
"यह तो शरीर है। यह शरीर कब से तेरे पास है ?"
"यह तो शादी के बाद मेरे पास आया।"
"तो माँ उसके पहले मैं कहाँ था ? शादी के बाद तेरे पास मैं नहीं आया। तुम्हारे शरीर से मेरे शरीर का जन्म हुआ। तुम्हारी शादी के पहले भी कहीं था। इसका अर्थ है कि शरीर मैं नहीं हूँ। यह शरीर नहीं था, तब भी मैं था। शरीर नहीं रहेगा, तब भी मैं रहूँगा। तो वह मैं कौन हूँ ?"
'मैं कौन हूँ ?' इसकी खोज प्राप्ति में पहुँचा देती है। 'मैं आसाराम हूँ..... मैं गोविन्दभाई हूँ...' यह प्रतीति है। यह शरीर भी प्रतीति है, शरीर के सम्बन्ध भी प्रतीति हैं, शरीर से सम्बन्धित जड़ वस्तु या चेतन व्यक्ति आदि सब प्रतीति मात्र हैं। प्रतीति जिसकी सत्ता से हो रही है, वह है प्राप्ति।
शरीर भी प्रतीति, इन्द्रियाँ भी प्रतीति। हाथ भी प्रतीति, आँख भी प्रतीति, कान भी प्रतीति। आँख ठीक से देख रही है कि नहीं देख रही है, कान ठीक से सुन रहे हैं कि नहीं सुन रहे हैं, यह भी प्रतीति हो रही है। मन में शान्ति है कि अशान्ति, इसकी भी प्रतीति हो रही है। बुद्धि में याद रहता है कि नहीं रहता, इसकी भी प्रतीति हो रही है।
प्रतीति जिसको होती है, उसको अगर खोजोगे तो प्राप्ति हो जायेगी, बेड़ा पार हो जायेगा।
हम लोग गलती करते हैं कि प्रतीति के साथ अपने को जोड़ देते हैं। प्रतीति होने वाले शरीर को 'मैं' मान लेते हैं। हम क्या हैं ? हम प्राप्ति तत्त्व है, उधर ध्यान नहीं जाता।
मंदिर वाले मंदिर में जा जाकर आखिर यमपुरी पहुँच जाते हैं, स्वर्गादि में पहुँच जाते हैं। मस्जिदवाले भी अपने ढंग से कहीं न कहीं पहुँच जाते हैं। अपने-आप में, आत्म-परमात्मा में कोई विरले ही आते हैं। जो प्राप्ति में डट जाता है, वह परमात्मा में आता है और बाकी के लोग लोक-लोकान्तर में और जन्म-मरण के चक्कर में भटकते रहते हैं। धन्य तो वे हैं जो अपने आप में आये, परमात्मा में आये। वे तो धन्य होते ही हैं, उनकी मीठी दृष्टि झेलने वाले भी धनभागी हो जाते हैं।
दैत्यगुरू शुक्राचार्य राजा वृषपर्वा के गुरू थे। वे उसी के नगर में रहते थे। शुक्राचार्य की पुत्री थी देवयानी। उसकी सहेली थी वृषपर्वा राजा की पुत्री शर्मिष्ठा। शर्मिष्ठा कुछ अपने स्वभाव की थी, प्रतीति में उलझी हुई लड़की थी। शरीर के रूप लावण्य, टिप-टाप आदि में रूचि रखने वाली थी।
एक बार दोनों सहेलियाँ स्नान करने गई। शर्मिष्ठा ने भूल से देवयानी के कपड़े पहन लिये। देवयानी भी गुरू की पुत्री थी, वह भी कुछ कम नही थी। उसने शर्मिष्ठा को सुना दियाः
"इतनी भी अक्ल नहीं है ? राजकुमारी हुई है और दूसरो के कपड़े पहन लेती है ? भूल जाती है ?"
शर्मिष्ठा ने गुस्से में देवयानी को उठाकर कुएँ में डाल दिया और चली गई। देवयानी दैत्यगुरू की पुत्री थी। दैवयोग से कुएँ में पानी ज्यादा नहीं था। वहाँ से गुजरते हुए राजा ययाति ने देवयानी की रूदन-पुकार सुनी और उसे बाहर निकलवाया।
शुक्राचार्य ने सोचाः जिस राजा की पुत्री अपनी गुरू पुत्री को कुएँ में डाल देती है, ऐसे पापी राजा के राज्य ने हम नहीं रहेंगे। वे राज्य छोड़कर जाने लगे। राजा को पता चला की शुक्राचार्य कुपित होकर जा रहे हैं और यह राज्य के लिए शुभ नहीं है। अतः कैसे भी करके उनको रोकन चाहिए। राजा पहुँचा शुक्राचार्य के चरणों में और माफी माँगने लगा। उन्होंने कहाः
"मुझसे माफी क्या माँगते हो ? गुरूपुत्री का अपमान हुआ है तो उसी को राजी करो।"
राजा देवयानी के पास गया।
"आज्ञा करो देवी ! आप कैसे सन्तुष्ट होंगी ?"
"मैं शादी करके जहाँ जाऊँ, वहाँ तुम्हारी बेटी शर्मिष्ठा मेरी दासी होकर चले। तुम अपनी बेटी मुझे दहेज में दे दो, वह मेरी दासी होकर रहेगी।"
राजा के लिए यह था तो कठिन, लेकिन दूसरा कोई उपाय नहीं था। अतः राजा को यह शर्त कबूल करना पड़ा। ययाति राजा के साथ देवयानी की शादी हो गई। राजकुमारी शर्मिष्ठा को दासी के रूप में देवयानी के साथ भेजा गया। शर्मिष्ठा तो सुन्दर थी। उस दासी के साथ राजा ययाति पत्नी का व्यवहार न करे, इसलिए शुक्राचार्य ने ययाति को वचनबद्ध कर लिया। फिर भी विषय-विकार के तूफान में ययाति का मन फिसल गया। वह अपने वचन पर टिका नहीं। शुक्राचार्य को पता चला तो उन्होंने राजा ययाति को वृद्ध हो जाने का शाप दे दिया। युवान राजा ययाति तत्काल वृद्ध हो गया। शर्मिष्ठा को तो दुःख हुआ, लेकिन ययाति को उससे भी ज्यादा दुःख हुआ। 'त्राहिमाम्' पुकारते हुए राजा ययाति ने गिड़गिड़ाकर शुक्राचार्य से प्रार्थना की। शुक्राचार्य ने द्रवीभूत होकर कहाः
"तुम्हारा कोई युवान पुत्र अगर तुम्हारी वृद्धावस्था ले ले और अपनी जवानी तुम्हें दे दे त तुम संसार के भोग भोग सकते हो।"
राजा ययाति ने अपने पुत्रों से पूछा। सबसे छोटा पुत्र पुरूरवा राजी हो गया। पिता की मनोवांछा पूर्ण करने के लिए। उसका यौवन लेकर राजा ययाति ने हजार वर्ष तक भोग भोगे। फिर भी उसके चित्त में शान्ति नहीं हुई।
प्रतीति से कभी भी पूर्ण शांति मिल ही नहीं सकती। अगर प्रतीति का उपभोग करने से शान्ति मिली होती तो जिनके पास राजवैभव था, धन था, भोग-विलास था, वे अशान्त और दुःखी होकर क्यों मरे ? किसी सत्तावान को, धनवान को सत्ता और धन से, पुत्र-परिवार मिलने से मोक्ष मिल गया हो, ऐसा हमने नहीं सुना। जिसको ज्यादा विषय-विकार भोगने को मिले, वे बीमार रहे, दुःखी रहे, अशान्त रहे, आत्महत्या करके मरे – ऐसा आपने और हमने देखा सुना है। वे नर्कों में गये, मुक्त तो नहीं हुए। जिसको विषय विकार और संसार की चीजें ज्यादा मिलीं और ज्यादा भोगी उसकी मुक्ति हो गयी, ऐसा मैंने आज तक नहीं सुना। तुम लोगों ने भी नहीं सुना होगा और सुनोगे भी नहीं। रामतीर्थ बोलते थेः छाया चाहे बड़े पर्वत की हो, लेकिन छाया तो छायामात्र है।
ऐसे ही प्रतीति चाहे कितनी भी बड़ी हो, लेकिन प्रतीति तो केवल प्रतीति ही है।
आखिर राजा ययाति को लगा किः
न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।

अग्नि में घी डालने से आग और भड़कती है, ऐसे ही काम-विकार और संसार के भोग भोगने से तृष्णा, वासना, आशा, स्पृहा ये सब उद्वेग बढ़ाने वाले विकार अधिक भड़कते हैं।
राजा ययाति प्रतीति को प्रतीति समझकर, उसे तुच्छ जानकर ईश्वर की ओर लगने के लिए जंगल में चला गया, तप करने लगा।

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बुधवार, अप्रैल 14, 2010

अधिक मास माहात्म्य




अधिक मास में सूर्य की संक्रांति (सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश) न होने के कारन इसे ‘मलमास’ (मलिन मास ) कहा गया है | भगवान कृष्ण ने इसका स्वामित्व स्वीकार केर अपना ‘पुरुषोत्तम ’ नाम इसे प्रदान किया है |

व्रत विधि :
इस मास में आँवले व तिल का उबटन शरीर पर मॉल केर स्नान करना , आँवले के पेड़ के निचे भोजन करना भगवान श्री पुरुषोत्तम को अतिशय प्रिय है , साथ ही यह स्वास्थ्यप्रद और प्रसंन्ताप्रद भी है |


इस मास में भगवान के मंदिर , जलाशय या नदी में अथवा तुलसी , पीपल आदि पूजनीय वृक्षों के सम्मुख दीप-दान करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं , दुःख शोकों का नास होता है , वंशदीप बढ़ता है , ऊँचा सान्निध्य मिलता है तथा आयु बढती है |

भगवान श्री कृष्ण इस मास की व्रत विधि एवं महिमा बताते हुए कहते हैं : “इस मास में मेरे उद्देश्य से जो स्नान दान जप होम स्वध्याय , पित्रितर्पण तथा देवार्चन किया जाता है , वह सब अक्षय हो जाता है | जिन्होंने प्रमाद से मल मास को खली बिता दिया , उनका जीवन मनुष्य लोक में दारिद्र्य , पुत्रशोक तथा पाप के कीचड़ से निन्दित हो जाता है इसमें संदेह नहीं |”

सुगन्धित चन्दन , अनेक प्रकार के फूल , मिष्टान्न , नैवैद्द्य , धुप दीप आदि से लक्ष्मी सहित सनातन भगवान तथा पितामह भीष्म का पूजन करें | घंटा , मृदंग , और शंख की ध्वनि के साथ कपूर और चन्दन से आरती करें | ये न हों तो रुई की बत्ती से ही आरती करें | इससे अनंत फल की प्राप्ति होती है | चन्दन , अक्षत , और पुष्पों के साथ तांबे के पात्र में पानी रख कर भक्ति से प्रातः पूजन के पहले या बाद में अर्घ्य दें | अर्घ्य देते समय भगवान ब्रह्माजी के साथ मेरा स्मरण करके इस मंत्र को बोलें :


देवदेव महादेव प्रलयोत्पत्तिकारक |‍‌‍
गृहाणार्घ्यंमिमं देव कृपां कृत्वा ममोपरि ||
स्वयम्भुवे नमस्तुभ्यं ब्रह्मणेऽमिततेजसे |
नमोस्तुते श्रीयानन्त दयां कुरु ममोपरि ||


‘हे देवदेव ! हे महादेव ! हे प्रलय और उत्पत्ति करने वाले ! हे देव ! मुझ पैर कृपा केर के इस अर्घ्य को ग्रहण कीजिये | तुझ स्यम्भु के लिए नमस्कार तथा तुझ अमित तेज ब्रह्मा के लिए नमस्कार | हे अनंत ! लक्ष्मीजी के साथ आप मुझ पैर कृपा करें | ’

मल मास का व्रत दारिद्रय , पुत्रशोक और वैधव्य का नाशक है | चतुर्दशी के दिन उपवास केर अंत में उद्द्यापन करने से मनुष्य सब पापों से छुट जाता है | यदि दारिद्रय हो तो व्यतिपात योग में , द्वादशी पूर्णिमा , चतुर्दशी , नवमी और अष्टमी के दिन शोक विनाशक उपरोक्त व्रत को करना चाहिए जो उपचार मिल जाये उनसे ही यह कर ले |

मलमास में संध्योपासन , तर्पण , श्राद्ध , दान , नियम व्रत ये सब फल देते हैं | इसके व्रत से ब्रह्महत्या आदि सब पाप नष्ट हो जाते हैं |


विधिवत सेवते यस्तु पुरुषोत्तममादरात् |
कुलं स्वकीयमुद् धृत्य मामेवैष्यत्यसंशयम् ||


प्रति तीसरे वर्ष में पुरुषोत्तम मास के आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा- भक्ति के साथ व्रत , उपवास , पूजा आदि शुभकर्म करता है , निःसंदेह वह अपने समस्त परिवार के साथ मेरे लोक में पहुँच कर मेरा सानिध्य प्राप्त करता है


इस महीने में केवल ईश्वर के उद्देश्य से जो जप , सत्संग व सत्कथा –श्रवण , हरिकीर्तन , व्रत, उपवास स्नान , दान या पूजनादि किये जाते हैं , उनका अक्षय फल होता है और व्रती के संपूर्ण अनिष्ट नष्ट हो जाते हैं | निष्काम भाव से किये जाने वाले अनुष्ठानों के लिए यह अत्यंत श्रेष्ठ समय है| देवी भगवत के अनुसार यदि दान आदि का सामर्थ्य न हो तो संतों- महापुरुषों की सेवा सर्वोत्तम है , इससे तीर्थ स्नानादि के सामान फल होता है |



अधिक मास में वर्जित


इस मास में सभी सकाम कर्म एवं व्रत वर्जित हैं |जैसे – कुएँ , बावली , तालाब और बाग आदि का आरम्भ तथा प्रतिष्ठा , नवविवाहिता वधु का प्रवेश , देवताओं का स्थापन (देवप्रतिष्ठा) , यज्ञोपवित संस्कार , विवाह , नामकर्म , माकन बनाना , नए वस्त्र और अलंकार पहनना आदि |


अधिक मास में करने योग्य


प्राणघातक रोग आदि की निवृत्ति के लिए रुद्रजाप आदि अनुष्ठान , दान व जप कीर्तन आदि , पुत्रजन्म के कृत्य , पित्रिमरण के श्रद्धादी तथा गर्भाधान , पुंसवन जैसे संस्कार किये जाते हैं |

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उस यार से तू कब मिलेगा ?


हृषिकेश से आगे किसी गुफा में तेजानन्द नाम के 90 वर्षीय एक वृद्ध संत रहते थे। उनके पास कोई जाता किः "महाराज ! मुझे दीक्षा दीजिए।" तो दीक्षा लेने आने वालों से वे कहा करते थेः
"पहले साधु, मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर सबके यहाँ घूमकर आओ। अगर मुझसे दीक्षा ली और खिसके तो फिर बड़ा खतरनाक काम होगा। न इधर के रहोगे, न उधर के रहोगे।"

वे चुन-चुन कर दीक्षा देते थे। इसका कारण यह था कि अपनी अनुभूतियों से वे जान चुके थे कि कई लोग दीक्षा लेने के बाद उसका मूल्य नहीं समझते और उनकी दीक्षा कृपा को इधर-उधर बिखेर देते थे, इसलिए वे कसौटी पर खरे उतरने वाले को ही प्रायः दीक्षा देते थे।

यदा-कदा वे अपने भक्तों के देहातों में भी जाया करते थे। एक बार अपने कुछ शिष्यों को साथ लेकर वे कहीं जा रहे थे। रास्तें में उन्होंने एक किसान के खेत में चार-पाँच कुएँ खुदे हुए देखे। उन्होंने खेत का भ्रमण किया फिर किसान से पूछाः "क्यों भाई ! ये इतने सारे कुएँ तूने क्यों खोद रखे हैं?"
किसान बोलाः "महाराज ! यहाँ दस हाथ खोदा फिर भी पानी नहीं आया तो वहाँ पर बारह हाथ गहरा किया, लेकिन वहाँ भी पानी न मिला तो फिर यहाँ नौ हाथ, और यहाँ भी नहीं मिला तो वहाँ, वहाँ से वहाँ....।"

उन महात्मा ने आगे बढ़कर अपने शिष्यों को बताया किः "अगर इस किसान जैसे बेवकूफ बन गये और यहाँ नहीं तो वहाँ के चक्कर में पड़ गये तो जिन्दगी खत्म हो जाएगी खुदाई करते-करते, लेकिन पानी नहीं मिलेगा।"
मार्गदर्शन मिल गया है, अब तुम चल पड़ो ईश्वर के मार्ग पर। इधर-उधर झाँको मत।

कई लोग उपासना करते-करते इधर-उधर निहारते हुए आगे बढ़ते हैं लेकिन कइयों को तो मार्गदर्शन मिलता है और साधना करते हैं फिर साधना छोड़कर 'इसको राजी रखूँ, उसको राजी रखूँ, इससे मिलूँ....' के चक्कर में रह जाते हैं।
अरे ! इससे उससे मिलने में ही समय गँवाएगा तो अपने आप से कब मिलेगा ? भीतर मिलने वाले उस यार से तू कब मिलेगा ? जिन्दगी क्यों बरबाद करता है....? वक्त बहुत कम है और काम बहुत जरूरी है। अगर नहीं किया तो फिर बहुत तकलीफ होगी भैया !

कबीर जी ने चकवा चकवी की कल्पना करके एक बात समझाई हैः
साँझ पड़ी दिन आथमा दिना चकवी रोय।
चलो चकवा वहाँ जाइये जहाँ दिवस रैन न होय।।


सन्ध्या के समय जब दिन अस्त होता है, चकवी रोने लगती है और अपने प्रियतम चकवे से कहती हैं कि चलो चलें जहाँ कभी रात आवे ही नहीं। तब चकवा उसे समझाता हैः "पगली ! साँझ पड़ती है तो हम अपने-अपने घोंसले में चले जाते हैं, स्थायी जुदा नहीं हो रहे हैं, जो तू रोती है। चिन्ता मत कर.... प्रातः की मधुर बेला में हर रोज हमारा मिलन होता है।

कबीर जी कहते हैं- "जो मनुष्य जन्म पाकर भी अपने प्रियतम से, परमात्मा से, परमात्मा के प्यारे संतों, गुरूतत्त्व से नहीं मिला तो फिर न दिवस को मिलेगा, न रात्रि को न सुबह मिलेगा, न शाम को मिलेगा।"

चकवा कहता हैः
रैन की बिछड़ी चाकवी आन मिले प्रभात।
सत्य का बिछड़ा मानखा दिवस मिले नहीं रात।।


तू अपने सत्य स्वरूप में अनन्य भाव कर..... अपने सत्य स्वरूप को पाने के लिए जप, तप, सुमिरन कर। उठते-बैठते श्रद्धा-भक्ति से सदगुरू के मार्गदर्शन के अनुरूप दृष्टि बना, खानपान और वाहवाही का गुलाम मत बन। यह शरीर अग्नि की लपटों से जलकर भस्म हो जाये उसके पहले तू अपनी इच्छा-वासना को जलाकर अविनाशी पद को प्राप्त कर ले। अगर ऐसा कर दिखाया तो तेरा तो काम बन ही गया, जो तुझे याद करेंगे उनका भी काम बनता जायेगा।

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शनिवार, अप्रैल 10, 2010

रूचि और आवश्यकता


ऐसा कोई मनुष्य नहीं मिलेगा, जिसके पास कुछ भी योग्यता न हो, जो किसी को मानता न हो। हर मनुष्य जरूर किसी न किसी को मानता है। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमें जानने की जिज्ञासा न हो। वह कुछ न कुछ जानने की कोशिश तो करता ही है। करने की, मानने की और जानने की यह स्वतः सिद्ध पूँजी है हम सबके पास। किसी के पास थोड़ी है तो किसी के पास ज्यादा है, लेकिन है जरूर। खाली कोई भी नहीं।

हम लोग जो कुछ करते हैं, अपनी रूचि के अनुसार करते हैं। गलती क्या होती है कि हम आवश्यकता के अनुसार नहीं करते। रूचि के अनुसार मानते हैं, आवश्यकता के अनुसार नहीं जानते। बस यही एक गलती करते हैं। इसे अगर हम सुधार लें तो किसी भी क्षेत्र में आराम से, बिल्कुल मजे से सफल हो सकते हैं। केवल यह एक बात कृपा करके जान लो।

एक होती है रूचि और दूसरी होती है आवश्यकता। शरीर को भोजन करने की आवश्यकता है। वह तन्दुरूस्त कैसे रहेगा, इसकी आवश्यकता समझकर आप भोजन करें तो आपकी बुद्धि शुद्ध रहेगी। रूचि के अनुसार भोजन करेंगे तो बीमारी होगी। अगर रूचि के अनुसार भोजन नहीं मिलेगा और यदि भोजन मिलेगा तो रूचि नहीं होगी। जिसको रूचि हो और वस्तु न हो तो कितना दुःख ! वस्तु हो और रूचि न हो तो कितनी व्यथा !

खूब ध्यान देना कि हमारे पास जानने की, मानने की और करने की शक्ति है। इसको आवश्यकता के अनुसार लगा दें तो हम आराम से मुक्त हो सकते हैं और रूचि के अनुसार लगा दें तो एक जन्म नहीं, करोड़ों जन्मों में भी काम नहीं बनता। कीट, पतंग, साधारण मनुष्यों में और महापुरूषों में इतना ही फर्क है कि महापुरूष माँग के अनुसार कर्म करते हैं जबकि साधारण मनुष्य रूचि के अनुसार कर्म करते हैं।

जीवन की माँग है योग। जीवन की माँग है शाश्वत सुख। जीवन की माँग है अखण्डता। जीवन की माँग है पूर्णता।

आप मरना नहीं चाहते, यह जीवन की माँग है। आप अपमान नहीं चाहते। भले सह लेते हैं, पर चाहते नहीं। यह जीवन की माँग है। तो अपमान जिसका न हो सके, वह ब्रह्म है। अतः वास्तव में आपको ब्रह्म होने की माँग है। आप मुक्ति चाहते हैं। जो मुक्तस्वरूप है, उसमें अड़चन आती है काम, क्रोध आदि विकारों से।

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुदभवः।

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिहवैरिणम्।।
'रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान।'

(भगवद् गीताः 3.37)

काम और क्रोध महाशत्रु हैं और इसमें स्मृतिभ्रम होता है, स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश होता है। बुद्धिनाश से सर्वनाश हो जाता है। अगर रूचि को पोसते हैं तो स्मृति क्षीण होती है। स्मृति क्षीण हुई तो सर्वनाश।

एक लड़के की निगाह पड़ोस की किसी लड़की पर गई और लड़की की निगाह लड़के पर गई। अब उनकी एक दूसरे के प्रति रूचि हुई। विवाह योग्य उम्र है तो माँग भी हुई शादी की। अगर हमने माँग की किन्तु कुल शिष्टाचार की ओर ध्यान नहीं दिया और लड़का लड़की को ले भागा अथवा लड़की लड़के को ले भागी तो मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहे। किसी होटल में रहे, कभी कहाँ रहे – अखबारों में नाम छपा गया, 'पुलिस पीछे पड़ेगी,' डर लग गया। इस प्रकार रूचि में अन्धे होकर कूदे तो परेशान हुए। अगर विवाह योग्य उम्र हो गई है, गृहस्थ जीवन की माँग है, एक दूसरे का स्वभाव मिलता है तो माँ-बाप से कह दिया और माँ-बाप ने खुशी से समझौता करके दोनों की शादी करा दी। यह हो गई माँग की पूर्ति और वह थी रूचि की पूर्ति। रूति की पूर्ति में जब अन्धी दौड़ लगती है तो परेशानी होती है, अपनी और अपने रिश्तेदारों की बदनामी होती है। ...तो शादी करने में बुद्धि चाहिए कि रूचि की पूर्ति के साथ माँग की पूर्ति हो।

माँग आसानी से पूरी हो सकती है और रूचि जल्दी पूरी होती नहीं। जब होती है तब निवृत्ति नहीं होती, अपितु और गहरी उतरती है अथवा उबान और विषाद में बदलती है। रूचि के अनुसार सदा सब चीजें होंगी नहीं, रूचि के अनुसार सब लोग तुम्हारी बात मानेंगी नहीं। रूचि के अनुसार सदा तुम्हारा शरीर टिकेगा नहीं। अन्त में रूचि बच जायेगी, शरीर चला जायगा। रूचि बच गई तो कामना बच गई। जातीय सुख की कामना, धन की कामना, सत्ता की कामना, सौन्दर्य की कामना, वाहवाही की कामना, इन कामनाओं से सम्मोह होता है। सम्मोह से बुद्धिभ्रम होता है, बुद्धिभ्रम से विनाश होता है।

करने की, मानने की और जानने की शक्ति को अगर रूचि के अनुसार लगाते हैं तो करने का अंत नहीं होगा, मानने का अंत नहीं होगा, जानने का अंत नहीं होगा। इन तीनों योग्यताओं को आप अगर यथायोग्य जगह पर लगा देंगे तो आपका जीवन सफल हो जायगा।

अतः यह बात सिद्ध है कि आवश्यकता पूरी करने में शास्त्र, गुरू समाज और भगवान आपका सहयोग करेंगे। आपकी आवश्यकता पूरी करने में प्रकृति भी सहयोग देती है। बेटा माँ की गोद में आता है, उसकी आवश्यकता होती है दूध की। प्रकृति सहयोग देकर दूध तैयार कर देती है। बेटा बड़ा होता है और उसकी आवश्यकता होती है दाँतों की तो दाँत आ जाते हैं।

मनुष्य की आवश्यकता है हवा की, जल की, अन्न की। यह आवश्यकता आसानी से यथायोग्य पूरी हो जाती है। आपको अगर रूचि है शराब की, अगर उस रूचि पूर्ति में लगे तो वह जीवन का विनाश करती है। शरीर के लिए शराब की आवश्यकता नहीं है। रूचि की पूर्ति कष्टसाध्य है और आवश्यकता की पूर्ति सहजसाध्य है।

आपके पास जो करने की शक्ति है, उसे रूचि के अनुसार न लगाकर समाज के लिए लगा दो। अर्थात् तन को, मन को, धन को, अन्न को, अथवा कुछ भी करने की शक्ति को 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' में लगा दो।

आपको होगा कि अगर हम अपना जो कुछ है, वह समाज के लिए लगा दें तो फिर हमारी आवश्यकताएँ कैसे पूरी होंगी?

आप समाज के काम में आओगे तो आपकी सेवा में सारा समाज तत्पर होकर लगा रहेगा। एक मोटरसाइकल काम में आती है तो उसको संभालने वाले होते हैं कि नहीं ? घोड़ा-गधा काम में आते हैं तो उसको भी खिलाने वाले होते हैं। आप तो मनुष्य हो। आप अगर लोगों के काम आओगे तो हजार-हजार लोग आपकी आवश्यकता पूरी करने के लिए लालायित हो जायेंगे। आप जितना-जितना अपनी रूचि को छोड़ोगे, उतनी उतनी उन्नति करते जाओगे।

जो लोग रूचि के अनुसार सेवा करना चाहते हैं, उनके जीवन मे बरकत नहीं आती। किन्तु जो आवश्यकता के अनुसार सेवा करते हैं, उनकी सेवा रूचि मिटाकर योग बन जाती है। पतिव्रता स्त्री जंगल में नहीं जाती, गुफा में नहीं बैठती। वह अपनी रूचि पति की सेवा में लगा देती है। उसकी अपनी रूचि बचती ही नहीं है। अतः उसका चित्त स्वयमेव योग में आ जाता है। वह जो बोलती है, ऐसा प्रकृति करने लगती है।

तोटकाचार्य, पूरणपोडा, सलूका-मलूका, बाला-मरदाना जैसे सत्शिष्यों ने गुरू की सेवा में, गुरू की दैवी कार्यों में अपने करने की, मानने की और जानने की शक्ति लगा दी तो उनको सहज में मुक्तिफल मिल गया। गुरूओं की भी ऐसा सहज में नहीं मिला था जैसे इन शिष्यों को मिल गया। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य को गुरूप्राप्ति के लिए कितना-कितना परिश्रम करना पड़ा ! कहाँ से पैदल यात्रा करनी पड़ी ! ज्ञानप्राप्ति के लिए भी कैसी-कैसी साधनाएँ करनी पड़ी ! जबकी उनके शिष्य तोटकाचार्य ने तो केवल अपने गुरूदेव के बर्तन माँजते-माँजते ही प्राप्तव्य पा लिया।

अपनी करने की शक्ति को स्वार्थ में नहीं अपितु परहित में लगाओ तो करना तुम्हारा योग हो जायेगा। मानने की शक्ति है तो विश्वनियंता को मानो। वह परमसुहृद है और सर्वत्र है, अपना आपा भी है और प्राणिमात्र का आधार भी है। जो लोग अपने को अनाथ मानते हैं, वह परमात्मा का अनादर करते हैं। जो बहन अपने को विधवा मानती है, वह परमात्मा का अनादर करती है। अरे ! जगतपति परमात्मा विद्यमान होते हुए तू विधवा कैसे हो सकती है ? विश्व का नाथ साथ में होते हुए तुम अनाथ कैसे हो सकते हो ? अगर तुम अपने को अनाथ, असहाय, विधवा इत्यादि मानते हो तो तुमने अपने मानने की शक्ति का दुरूपयोग किया। विश्वपति सदा मौजूद है और तुम आँसू बहाते हो ?

"मेरे पिता जी स्वर्गवास हो गये.... मैं अनाथ हो गया.........।"

"गुरुजी आप चले जायेंगे... हम अनाथ हो जाएँगे....।"

नहीं नहीं....। तू वीर पिता का पुत्र है। निर्भय गुरू का चेला है। तू तो वीरता से कह दे कि, 'आप आराम से अपनी यात्रा करो। हम आपकी उत्तरक्रिया करेंगे और आपके आदर्शों को, आपके विचारों को समाज की सेवा में लगाएँगे ताकि आपकी सेवा हो जाय।' यह सुपुत्र और सत्शिष्य का कर्त्तव्य होता है। अपने स्वार्थ के लिये रोना, यह न पत्नी के लिए ठीक है न पति के लिए ठीक है, न पुत्र के लिए ठीक है न शिष्य के लिए ठीक है और न मित्र के लिए ठीक है।

पैगंबर मुहम्मद परमात्मा को अपना दोस्त मानते थे, जीसस परमात्मा को अपना पिता मानते थे और मीरा परमात्मा को अपना पति मानती थी। परमात्मा को चाहे पति मानो चाहे दोस्त मानो, चाहे पिता मानो चाहे बेटा मानो, वह है मौजूद और तुम बोलते हो कि मेरे पास बेटा नहीं है.... मेरी गोद खाली है। तो तुम ईश्वर का अनादर करते हो। तुम्हारे हृदय की गोद में परमात्मा बैठा है, तुम्हारी इन्द्रियों की गोद में परमात्मा में बैठा है।

तुम मानते तो हो लेकिन अपनी रूचि के अनुसार मानते हो, इसलिए रोते रहते हो। माँग के अनुसार मानते हो तो आराम पाते हो। महिला आँसू बहा रही है कि रूचि के अनुसार बेटा अपने पास नहीं रहा। उसकी जहाँ आवश्यकता थी, परमात्मा ने उसको वहाँ रख लिया क्योंकि उसकी दृष्टि केवल उस महिला की गोद या उसका घर ही नहीं है। सारी सृष्टि, सारा ब्रह्माण्ड उस परमात्मा की गोद में है। तो वह बेटा कहीं भी हो, वह परमात्मा की गोद में ही है। अगर हम रूचि के अनुसार मन को बहने देते हैं तो दुःख बना रहता है।

रूचि के अनुसार तुम करते रहोगे तो समय बीत जायगा, रूचि नहीं मिटेगी। यह रूचि है कि जरा-सा पा लें..... जरा सा भोग लें तो रूचि पूरी हो जाय। किन्तु ऐसा नहीं है। भोगने से रूचि गहरी उतर जायगी। जगत का ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो रूचिकर हो और मिलता भी रहे। या तो पदार्थ नष्ट हो जाएगा या उसमें उबान आ जाएगी।

रूचि को पोसना नहीं है, निवृत्त करना है। रूचि निवृत्त हो गई तो काम बन गया, फिर ईश्वर दूर नहीं रहेगा। हम गलती यह करते हैं कि रूचि के अनुसार सब करते रहते हैं। पाँच-दस व्यक्ति ही नहीं, पूरा समाज इसी ढाँचे में चल रहा है। अपनी आवश्यकता को ठीक से समझते नहीं और रूचि पूरी करने में लगे रहते हैं। ईश्वर तो अपना आपा है, अपना स्वरूप है। वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-

"हे रामजी ! फूल, पत्ते और टहनी तोड़ने में तो परिश्रम है, किन्तु अपने आत्मा-परमात्मा को जानने में क्या परिश्रम है ? जो अविचार से चलते हैं, उनके लिए संसार सागर तरना महा कठिन है, अगम्य है। तुम सरीखे जो बुद्धिमान हैं उनके लिए संसार सागर गोपद की तरह तरना आसान है। शिष्य में जो सदगुण होने चाहिए वे तुम में हैं और गुरू में जो सामर्थ्य होना चाहिए वह हममें है। अब थोड़ा सा विचार करो, तुरन्त बेड़ा पार हो जायगा।"हमारी आवश्यकता है योग की और जीते हैं रूचि के अनुसार। कोई हमारी बात नहीं मानता तो हम गर्म हो जाते हैं, लड़ने-झगड़ने लगते हैं। हमारी रूचि है अहं पोसने की और आवश्यकता है अहं को विसर्जित करने की। रूचि है अनुशासन करने की, कुछ विशेष हुक्म चलाने की और आवश्यकता है सबमें छुपे हुए विशेष को पाने की।

आप अपनी आवश्यकताएँ पूरी करो, रूचि को पूरी मत करो। जब आवश्यकताएँ पूरी करने में लगोगे तो रूचि मिटने लगेगी। रूचि मिट जायगी तो शहंशाह हो जाओगे। आपमें करने की, मानने की, जानने की शक्ति है। रूचि के अनुसार उसका उपयोग करते हो तो सत्यानाश होता है। आवश्यकता के अनुसार उसका उपयोग करोगे तो बेड़ा पार होगा।

आवश्यकता है अपने को जानने की और रूचि है लंदन, न्यूयार्क, मास्को में क्या हुआ, यह जानने की।

'इसने क्या किया... उसने क्या किया.... फलाने की बारात में कितने लोग थे.... उसकी बहू कैसी आयी....' यह सब जानने की आवश्यकता नहीं है। यह तुम्हारी रूचि है। अगर रूचि के अनुसार मन को भटकाते रहोगे तो मन जीवित रहेगा और आवश्यकता के अनुसार मन का उपयोग करोगे तो मन अमनीभाव को प्राप्त होगा। उसके संकल्प-विकल्प कम होंगे। बुद्धि को परिश्रम कम होगा तो वह मेधावी होगी। रूचि है आलस्य में और आवश्यकता है स्फूर्ति की। रूचि है थोड़ा करके ज्यादा लाभ लेने में और आवश्यकता है ज्यादा करके कुछ भी न लेने की। जो भी मिलेगा वह नाशवान होगा, कुछ भी नहीं लोगे तो अपना आपा प्रकट हो जायगा।

कुछ पाने की, कुछ भोगने की जो रूचि है, वही हमें सर्वेश्वर की प्राप्ति से वंचित कर देती है। आवश्यकता है 'नेकी कर कुएँ में फेंक'। लेकिन रूचि होती है, 'नेकी थोड़ी करूँ और चमकूँ ज्यादा। बदी बहुत करूँ और छुपाकर रखूँ।' इसीलिए रास्ता कठिन हो गया है। वास्तव में ईश्वर-प्राप्ति का रास्ता रास्ता ही नहीं है, क्योंकि रास्ता तब होता है जब कोई चीज वहाँ और हम यहाँ हों, दोनों के बीच में दूरी हो। हकीकत में ईश्वर ऐसा नहीं है कि हम यहाँ हों और ईश्वर कहीं दूर हो। आपके और ईश्वर के बीच एक इंच का भी फासला नहीं, एक बाल जितना भी अंतर नहीं लेकिन अभागी रूचि ने आपको और ईश्वर को पराया कर दिया है। जो पराया संसार है, मिटने वाला शरीर है, उसको अपना महसूस कराया। यह शरीर पराया है, आपका नहीं है। पराया शरीर अपना लगता है। मकान है ईंच-चूने-लक्कड़-पत्थर का और पराया है लेकिन रूचि कहती है कि मकान मेरा है।

स्वामी रामतीर्थ कहते हैं-

"हे मूर्ख मनुष्यों ! अपना धन, बल व शक्ति बड़े-बड़े भवन बनाने में मत खर्चो, रूचि को पूर्ति में मत खर्चो। अपनी आवश्यकता के अनुसार सीधा सादा निवास स्थान बनाओ और बाकी का अमूल्य समय जो आपकी असली आवश्यकता है योग की, उसमें लगाओ। ढेर सारी डिजाइनों के वस्त्रों की कतारें अपनी अलमारी में मत रखो। अपने दिल की अलमारी में आने का समय बचा लो। जितनी आवश्यकता हो उतने ही वस्त्र रखो, बाकी का समय योग में लग जायगा। योग ही तुम्हारी आवश्यकता है। विश्रान्ति तुम्हारी आवश्यकता है। अपने आपको जानना तुम्हारी आवश्यकता है। जगत की सेवा करना तुम्हारी आवश्यकता है क्योंकि जगत से शरीर बना है तो जगत के लिए करोगे तो तुम्हारी आवश्यकता अपने आप पूरी हो जायगी।

ईश्वर को आवश्यकता है तुम्हारे प्यार की, जगत को आवश्यकता है तुम्हारी सेवा की और तुम्हें आवश्यकता है अपने आपको जानने की।

शरीर को जगत की सेवा में लगा दो, दिल में परमात्मा का प्यार भर दो और बुद्धि को अपना स्वरूप जानने में लगा दो। आपका बेड़ा पार हो जायगा। यह सीधा गणित है।

मानना, करना और जानना रूचि के अनुसार नहीं बल्कि, आवश्यकता के अनुसार ही हो जाना चाहिए। आवश्यकता पूरी करने में नहीं कोई पाप, नहीं कोई दोष। रूचि पूरी करने में तो हमें कई हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। जीवन खप जाता है किन्तु रूचि खत्म नहीं होती, बदलती रहती है। रूचिकर पदार्थ आप भोगते रहें तो भोगने का सामर्थ्य कम हो जायगा और रूचि रह जायगी। देखने की शक्ति खत्म हो जाय और देखने की इच्छा बनी रहे तो कितना दुःख होगा ! सुनने की शक्ति खत्म हो जाय और सुनने की इच्छा बनी रहे तो कितना दुर्भाग्य ! जीने की शक्ति क्षीण हो जाय और जीने की रूचि बनी रहे तो कितना दुःख होगा ! इसलिए मरते समय दुःख होता है। जिनकी रूचि नहीं होती उन आत्मरामी पुरूषों को क्या दुःख ? श्रीकृष्ण को देखते-देखते भीष्म पितामह ने प्राण ऊपर चढ़ा दिये। उन्हें मरने का कोई दुःख नहीं।

सूँघने की रूचि बनी रहे और नाक काम न करे तो ? यात्रा की रूचि बनी रहे और पैर जवाब दे दें तो ? पैसों की रूचि बनी रहे और पैसे न हों तो कितना दुःख ? वाहवाही की रूचि है और वाहवाही न मिली तो ?

अगर रूचि के अनुसार वाहवाही मिल भी जाय तो क्या रूचि पूरी हो जायगी ? नहीं, और ज्यादा वाहवाही की इच्छा होगी। हम जानते ही हैं कि जिसकी वाहवाही होती है उसकी निन्दा भी होती है। अतः वाहवाही से रूचिपूर्ति का सुख मिलता है तो निन्दा से उतना ही दुःख होगा। और इतने ही निन्दा करने वालों के प्रति अन्यायकारी विचार उठेंगे। अन्यायकारी विचार जिस हृदय में उठेंगे, उसी हृदय को पहले खराब करेंगे। अतः हम अपना ही नुकसान करेंगे।

एक होता है अनुशासन, दूसरा होता है क्रोध। जिन्हें अपने सुख की कोई रूचि नहीं, जो सुख देना चाहते हैं, जिन्हें अपने भोग की कोई इच्छा नहीं है, उनकी आवश्यकता सहज में पूरी होती है। जो दूसरों की आवश्यकता पूरी करने में लगे हैं, वे अगर डाँटते भी हैं तो वह अनुशासन हो जाता है। जो रूचिपूर्ति के लिए डाँटते हैं, वह क्रोध हो जाता है। आवश्यकतापूर्ति के लिए अगर पिटाई भी कर दी जाय तो भी प्रसाद बन जाता है।

माँ को आवश्यकता है बेटे को दवाई पिलाने की तो माँ थप्पड़ भी मारती है, झूठ भी बोलती है, गाली भी देती है फिर भी उसे कोई पाप नहीं लगता। दूसरा कोई आदमी अपनी रूचि पूर्ति के लिए ऐसा ही व्यवहार उसके बेटे से करे तो देखो, माँ या दूसरे लोग भी उसकी कैसी खबर ले लेते हैं ! किसी की आवश्यकतापूर्ति के लिए किया हुआ क्रोध भी अनुशासन बन जाता है। रूचि पूर्ति के लिए किया हुआ क्रोध कई मुसीबतें खड़ी कर देता है।

एक विनोदी बात है। किसी जाट ने एक सूदखोर बनिये से सौ रूपये उधार लिये थे। काफी समय बीत जाने पर भी जब उसने पैसे नहीं लौटाये तो बनिया अकुलाकर उसके पास वसूली के लिए गया।

"भाई ! तू ब्याज मत दे, मूल रकम सौ रूपये तो दे दे। कितना समय हो गया ?"

जाट गुर्राकर बोलाः "तुम मुझे जानते हो न ? मैं कौन हूँ?"

"इसीलिए तो कहता हूँ कि ब्याज मत दो। केवल सौ रूपये दे दो।"

"सौ वौ नहीं मिलेंगे। मेरा कहना मानो तो कुछ मिलेगा।"

बनिये ने सोचा कि खाली हाथ लौटने से बेहतर है, जो कुछ मिले वही ले लूँ।

जाट ने कहाः "देखो, मगर आपको पैसे लेने हो तो मेरी इतनी सी बात मानो। आपके सौ रूपयें हैं ?"

"हाँ"।

"तो सौ के कर दो साठ।"

"ठीक है, साठ दे दो।"

"ठहरो, मुझे बात पूरी कर लेने दो। सौ के कर दो साठ.... आधा कर दो काट.. दस देंगे... दस छुड़ायेंगे और दस के जोड़ेंगे हाथ। अभी दुकान पर पहुँच जाओ।"

मिला क्या ? बनिया खाली हाथ लौट गया।

ऐसे ही मन की जो इच्छाएँ होती हैं, उसको कहेंगे कि भाई ! इच्छाएँ पूरी करेंगे लेकिन अभी तो सौ की साठ कर दे, और उसमें से आधा काट कर दे। दस इच्छाएँ तेरी पूरी करेंगे धर्मानुसार, आवश्यकता के अनुसार। दस इच्छाओं की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है और शेष दस से जोड़ेंगे हाथ। अभी तो भजन में लगेंगे, औरों की आवश्यकता पूरी करने में लगेंगे।

जो दूसरों की आवश्यकता पूरी करने में लगता है, उसकी रूचि अपने आप मिटती है और आवश्यकता पूरी होने लगती है। आपको पता है कि जब सेठ का नौकर सेठ की आवश्यकताएँ पूरी करने लगता है तो उसके रहने की आवश्यकता की पूर्ति सेठ के घर में हो जाती है। उसकी अन्न-वस्त्रादि की आवश्यकताएँ पूरी होने लगती हैं। ड्रायवर अपने मालिक की आवश्यकता पूरी करता है तो उसकी घर चलाने की आवश्यकतापूर्ति मालिक करता ही है। फिर वह आवश्यकता बढ़ा दे और विलासी जीवन जीना चाहे तो गड़बड़ हो जायगी, अन्यथा उसकी आवश्यकता जो है उसकी पूर्ति तो हो ही जाती है। आवश्यकता पूर्ति में और रूचि की निवृत्ति में लग जाय तो ड्रायवर भी मुक्त हो सकता है, सेठ भी मुक्त हो सकता है, अनपढ़ भी मुक्त हो सकता है, शिक्षित भी मुक्त हो सकता, निर्धन भी मुक्त हो सकता है, धनवान भी मुक्त हो सकता है, देशी भी मुक्त हो सकता है, परदेशी भी मुक्त हो सकता है। अरे, डाकू भी मुक्त हो सकता है।

आपके पास ज्ञान है, उस ज्ञान का आदर करो। फिर चाहे गंगा के किनारे बैठकर आदर करो या यमुना के किनारे बैठकर आदर करो या समाज में रहकर आदर करो। ज्ञान का उपयोग करने की कला का नाम है सत्संग।

सबके पास ज्ञान है। वह ज्ञानस्वरूप चैतन्य ही सबका अपना आपा है। लेकिन बुद्धि के विकास का फर्क है। ज्ञान तो मच्छर के पास भी है। बुद्धि की मंदता के कारण रूचिपूर्ति में ही हम जीवन खर्च किये जाते हैं। जिसको हम जीवन कहते हैं, वह शरीर हमारा जीवन नहीं है। वास्तव में ज्ञान ही हमारा जीवन है, चैतन्य आत्मा ही हमारा जीवन है।

ॐकार का जप करने से आपकी आवश्यकतापूर्ति की योग्यता बढ़ती है और रूचि की निवृत्ति में मदद मिलती है। इसलिए ॐकार (प्रणव) मंत्र सर्वोपरि माना जाता है। हालाँकि संसारी दृष्टि से देखा जाय तो महिलाओं को एवं गृहस्थियों को अकेला ॐकार का जप नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन्होंने रूचियों को आवश्यकता का जामा पहनाकर ऐसा विस्तार कर रखा है कि एकाएक अगर वह सब टूटने लगेगा तो वे लोग घबरा उठेंगे। एक तरफ अपनी पुरानी रूचि खींचेगी और दूसरी तरफ अपनी मूलभूत आवश्यकता – एकांत की, आत्मसाक्षात्कार की इच्छा आकर्षित करेगी। प्रणव के अधिक जप से मुक्ति की इच्छा जोर मारेगी। इससे गृहस्थी के इर्द-गिर्द जो रूचि पूर्ति करने वाले मंडराते रहते हैं, उन सबको धक्का लगेगा। इसलिए गृहस्थियों को कहते हैं कि अकेले ॐ का जप मत करो। ऋषियों ने कितना सूक्ष्म अध्ययन किया है।

समाज को आपके प्रेम की, सान्तवना की, स्नेह की और निष्काम कर्म की आवश्यकता है। आपके पास करने की शक्ति है तो उसे समाज की आवश्यकतापूर्ति में लगा दो। आपकी आवश्यकता माँ, बाप, गुरू और भगवान पूरी कर देंगे। अन्न, जल और वस्त्र आसानी से मिल जायेंगे। पर टैरीकोटन कपड़ा चाहिए, पफ-पावडर चाहिए तो यह रूचि है। रूचि के अनुसार जो चीजें मिलती हैं, वे हमारी हानि करती हैं। आवश्यकतानुसार चीजें हमारी तन्दुरूस्ती की भी रक्षा करती है। जो आदमी ज्यादा बीमार है, उसकी बुद्धि सुमति नहीं है।

चरक-संहिता के रचयिता ने अपने शिष्य को कहा कि तंदरूस्ती के लिए भी बुद्धि चाहिए। सामाजिक जीवन जीने के लिए भी बुद्धि चाहिए और मरने के लिय भी बुद्धि चाहिए। मरते समय भी अगर बुद्धि का उपयोग किया जाय कि, 'मौत हो रही है इस देह की, मैं तो चैतन्य व्यापक आत्मा हूँ।' ॐकार का जप करके मौत का भी साक्षी बन जायें। जो मृत्यु को भी देखता है उसकी मृत्यु नहीं होती। क्रोध को देखने वाले हो जाओ तो क्रोध शांत हो जायेगा। यह बुद्धि का उपयोग है। जैसे आप गाड़ी चलाते हो और देखते हुए चलाते हो तो खड्डे में नहीं गिरती और आँख बन्द करके चलाते हो तो बचती भी नहीं। ऐसे ही क्रोध आया और हमने बुद्धि का उपयोग नहीं किया तो बह जायेंगे। काम, लोभ और मोहादि आयें और सतर्क रहकर बुद्धि से काम नहीं लिया तो ये विकार हमें बहा ले जायेंगे।

लोभ आये तो विचारों कि आखिर कब तक इन पद-पदार्थों को संभालते रहोगे। आवश्यकता तो यह है कि बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय इनका उपयोग किया जाये और रूचि है इनका अम्बार लगाने की। अगर रूचि के अनुसार किया तो मुसीबतें पैदा कर लोगे। ऐसे ही आवश्यकता है कहीं पर अनुशासन की और आपने क्रोध की फुफकार मार दी तो जाँच करो कि उस समय आपका हृदय तपता तो नहीं। सामने वाले का अहित हो जाये तो हो जाये किन्तु आपकी बात अडिग रहे – यह क्रोध है। सामने वाला का हित हो, अहित तनिक भी न हो, अगर यह भावना गहराई में हो तो फिर वह क्रोध नहीं, अनुशासन है। अगर जलन महसूस होती है तो क्रोध घुस गया। काम बुरा नहीं है, क्रोध बुरा नहीं है, लोभ-मोह और अहंकार बुरा नहीं है। धर्मानुकूल सबकी आवश्यकता है। अगर बुरा होता तो सृष्टिकर्ता बनाता ही क्यों ? जीवन-विकास के लिए इनकी आवश्यकता है। दुःख बुरा नहीं है। निन्दा, अपमान, रोग बुरा नहीं है। रोग आता है तो सावधान करता है कि रूचियाँ मत बढ़ाओ। बेपरवाही मत करो। अपमान भी सिखाता है कि मान की इच्छा है, इसलिए दुःख होता है। शुकदेव जी को मान में रूचि नहीं है, इसलिए कोई लोग अपमान कर रहे हैं फिर भी उन्हें दुःख नहीं होता। रहुगण राजा कितना अपमान करते हैं, किन्तु जड़भरत शांतचित्त रहते हैं।

अपमान का दुःख बताता है कि आपको मान में रूचि है। दुःख का भाव बताता है कि सुख में रूचि है। कृपा करके अपनी रूचि परमात्मा में ही रखो।

सुख, मान और यश में नहीं फँसोगे तो आप बिल्कुल स्वतंत्र हो जाओगे। योगी का योग सिद्ध हो जायगा, तपी का तप और भक्त की भक्ति सफल हो जायगी। बात अगर जँचती है तो इसे अपनी बना लेना। तुम दूसरा कुछ नहीं तो कम से कम अपने अनुभव का तो आदर करो। आपको रूचि अनुसार भोग मिलते हैं तो भोग भोगते-भोगते आप थक जाते हैं कि नहीं ? ऊबान है कि नहीं ? ... इस ज्ञान का आदर करो। 'बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय' काम करते हो तो आपको आनन्द आता है। आपका मन एवं बुद्धि विकसित होती है। यह भी आपका अनुभव है। सत्संग के बाद आपको यह महसूस होता है कि बढ़िया कार्य किया। शांति, सुख एवं सुमति मिली। ....तो अपने अनुभव की बात को आप पक्की करके हृदय की गहराई में उतार लो कि रूचि की निवृत्ति में ही आनन्द है और आवश्यकता तो स्वतः पूरी हो जायेगी।


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